नारी संबंधी अतिवाद
कुछ समय से नर-नारी के सान्निध्य का प्रश्न अतिवाद के दो अन्तिम सिरों के साथ जोड़ दिया गया है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
एक ओर तो नारी को इतना आकषर्क चित्रित किया गया कि उसकी मांसलता को ही सृष्टि की सबसे बड़ी विभूति सिद्ध कर दिया गया। कला ने नारी के अंग- प्रत्यंग की सुडौलता को इतना सराहा कि सामान्य भावुक व्यक्ति यह सोचने के लिए विवश हो गया कि ऐसी सुन्दरता को काम तृप्ति के लिए प्राप्त कर लेना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
गीत, काव्य, संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र, मूर्ति आदि कला के समस्त अंग जब नारी की मांसलता और कामुकता को ही आकाश तक पहुंचाने में जुट जाएं, तो बेचारी लोकवृत्ति को उधर मुड़ना ही पड़ेगा। इस कुचेष्टा का घातक दुष्परिणाम सामने आया। यौन प्रवृत्तियां भड़की, नर-नारी के बीच का सौजन्य चला गया और एक दूसरे के लिए अहितकर बन गए। यौन रोगों की बाढ़ आई, शरीर और मन जर्जर हो गया, पीढ़ियां दुर्बल से दुर्बलतर होती चली गई, मन:स्थिति उस कुचेष्टा के चिन्तन में तल्लीन होने के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण चिन्तन कर सकने में असमर्थ हो गई।
तेज, ओज, व्यक्तित्व, प्रतिभा, मेधा, शौर्य और वर्चस्व जो कुछ महान था, वह सब कुछ इसी कुचेष्टा की वेदी पर बलि हो गया। नारी को रमणी सिद्ध करके तुच्छ सा मनोरंजन भले पाया हो, पर उससे जो हानि हुई उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। जिनने भी मानवीय प्रवृत्तियों को इस पतनोन्मुख दिशा में मोड़ने के लिए प्रयत्न किया है वस्तुत: एक दिन वे मानवीय विवेक और ईश्वरीय न्याय की अदालत में अपराधियों की तरह खड़े किए जाएंगे। अतिवाद का एक सिरा यह है कि कामिनी, रमणी, वैश्या आदि बना कर उसे आकषर्ण का केंद्र बनाया गया।
अतिवाद का दूसरा सिरा है कि उसे पर्दे, घूंघट की कठोर जंजीरों में जकड़ कर अपंग सदृश्य बना दिया गया, उस पर इतने प्रतिबन्ध लगाए गए जितने बन्दी और पशु भी सहन नहीं कर सकते। जेल के कैदियों को थोड़ा घूमने-फिरने की, हंसने-बोलने की आजादी रहती है। पर घर की छोटी सी कोठरी में कैद नववधू के लिए परिवार के छोटी आयु वालों के सामने ही बोलने की छूट है। बड़ी आयु वालों से तो उसे पर्दा ही करना होता है। न उनके सामने मुंह खोला जा सकता है और न उनसे बात की जा सकती है। पर्दा सो पर्दा, प्रथा सो प्रथा, प्रतिबन्ध सो प्रतिबन्ध।
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