निष्कलंक से सुरक्षा

Last Updated 25 May 2020 01:09:38 AM IST

प्रगति के मार्ग में अवरोध का-विशेषतया श्रेष्ठ सम्भावनाओं में अड़चन आने का अपना इतिहास है, जिसकी पुनरावृत्ति अनादिकाल से होती रहीं हैं।


श्रीराम शर्मा आचार्य

जिस प्रकार आसुरी सक्रमणों को निरस्त करने के लिए दैवी सन्तुलन की सृजन शक्तियों का अवतरण होता हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठता की अभिवृद्धि को आसुरी तत्व सहन नहीं कर पाते। उसमें अपना पराभव देखते हैं और बुझते समय दीपक के अधिक तेजी के साथ जलने की तरह अपनी दुष्टता का परिचय देते हैं। मरते समय चींटी के पंख उगते हैं। पागल कुत्ता जब मरने को होता है तो तालाब में डूबने को दौड़ता है। आसुरी तत्व भी जब अंतिम सांस लेते हैं और एक बारगी मरणासन्न की तरह उच्छास खींचकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं।

अवतारों में पुष्प-प्रक्रियाएं भी निर्बाध रीति से बिना किसी अड़चन के सम्पन्न नहीं हो जाती, उसमें पग-पग पर अवरोध और आक्रमण आड़े आते हैं। भगवान कृष्ण पर जन्म काल से ही एक के बाद एक आक्रमण हुए। वसुदेव जब उन्हें टोकरी में रखकर गोकुल ले जा रहे थे तो सिंह गर्जन, घटाओं का वषर्ण, सपरे का आक्रमण जैसे व्यवधान उत्पन्न हुए। इसके बाद पूतना, वृत्तासुर, तृणावत, कालिया, सर्प आदि द्वारा उनके प्राण हरण की दुरभिसन्धियां रची जातीं रहीं। कंस, जरासंध, शिशुपाल जैसे अनेक शत्रु बन गए।

चारुढ़, मुष्टिकासुर आदि ने उन पर अकारण आक्रमण किए। अन्तत: भीलों ने गोपियों का हरण-व्याध द्वारा प्रहार करने जैसी घटनाएं घटित हुई। कृष्ण की चरित्र-निष्ठा और न्याय-निष्ठा उच्चस्तरीय थी तो भी उन्हें रु क्मिणी चुराने का दोष लगाया गया। चरित्र हनन की चोट भगवान राम को भी सहनी पड़ी। सीता जैसी सती को लोगों ने दुराचारिणी कहा और अग्नि परीक्षा देने के लिए विवश किया। अपवादियों के दोषारोपण फिर भी समाप्त नहीं हुए और स्थिति यहां तक आ पहुंची कि सीता परित्याग जैसी दुखदायी दुर्घटना सामने आई।

जयंत ने सीताजी पर अश्लील आक्रमण किया। सूर्पणखा राम के स्तर को गिरा कर असुरों के समतुल्य ही बनाना चाहती है। चाहना अस्वीकार करने पर उसने जो विपत्ति ढाई वह सर्वविदित है। सत्यता और कर्त्तव्यों के प्रति राम के व्यवहार में कहीं अनौचित्य नहीं था। फिर भी उसने वह षड्यंत्र रचा, जिससे उन्हें चौदह वर्ष के एकाकी वनवास में प्राण खो बैठने जैसा ही त्रास सहना पड़ा।



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