विवेक दृष्टि
अध्यात्म शास्त्र में पग-पग पर एक उद्बोधन निर्देशन पूरा जोर देकर दिया जाता है कि ‘अपने को जानो, उसे उठाओ।’
श्रीराम शर्मा आचार्य |
‘आत्मानं विद्धि’ ‘आत्मावा अरे ज्ञातव्य’ जैसे सूत्र संकेतों का आत्म क्षेत्र के प्रवेशार्थी को ध्यान पूर्वक मनन-चिंतन करना पड़ता है। आत्मज्ञान की महत्ता, प्रतिक्रिया एवं सिद्धि परिणिति का इतना अधिक प्रतिपादन हुआ है कि उससे बढ़कर इस संसार में और कोई बड़ी उपलब्धि मानी ही नहीं गई। अन्त:ज्ञान की उपयोगिता बाह्य ज्ञान की तुलना में कहीं अधिक है। सुख-साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोगकत्र्ता की विवेक दृष्टि का प्रखर होना आवश्यक है अन्यथा भौतिक उपलब्धियों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे अगणित समस्याएं उत्पन्न होंगी।
मोटर अच्छी होना पर्याप्त नहीं है, ड्राइवर यदि अनाड़ी हुआ तो कितने ही संकटों का सामना करना पड़ सकता है। साधनों की कमी रहते हुए भी जीवन-लक्ष्य सामने हो तो अभावों में भी सदा प्रसन्न और सन्तुष्ट रहा जा सकता है, जबकि अन्त:विवेक के अभाव में साधनों की प्रचुरता से बंदर के हाथ में तलवार पड़ जाने जैसी स्थिति पैदा होगी, जिसने अपने मालिक की नाक पर बैठी मक्खी को उड़ाने के लिए गर्दन ही उड़ा दी थी। मनुष्य के लिए खोज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न कौन-सा हो सकता है? ेताेतरोपनिषद् का ऋषि यह स्पष्ट करता है-
‘‘किं कारणं ब्रह्मा कुत: स्मजाता जीवाम् केन च सम्प्रतिष्ठा:।
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहेब्रह्मा विदो व्यवस्थाम्।।’’
अर्थात्-हे वेदज्ञ महषिर्यों! इस जगत् का प्रधार कारण ‘ब्रह्मा’ कौन है? हम सभी किससे उत्पन्न हुए हैं, किससे जी रहे हैं तथा किसमें प्रतिष्ठित हैं? साथ ही किसके अधीन रहकर हम लोग सुख और दु:ख का अनुभव करते हैं। इस प्रश्न के उत्तर की अर्थात् आत्मज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि हम कौन हैं? और क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर ऋषियों ने गंभीर चिंतन एवं अनुसंधान से जो निष्कर्ष निकाले थे वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं तथा आत्मानुसंधान में प्रवृत्त होने के इच्छुक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं।
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