अध्यात्म
आध्यात्मिकता का अर्थ है उस चेतना पर विश्वास करना, जो प्राणधारियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ती है, सुख-संवर्धन और दुख-निवारण की स्वाभाविक आकांक्षा को अपने शरीर या परिवार तक सीमित न रख कर अधिकाधिक व्यापक बनाती है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मीयता के विस्तार के रूप में किया जा सकता है। ‘प्रेम ही परमेर है’ का सिद्धांत यहां अक्षरश: लागू होता है। अंतरात्मा की सघन पिपासा, प्रेम का अमृत पान करने की होती है। इसी लोभ में उसे निरंतर भटकना पड़ता है। छल का व्यापार प्रेम, विश्वास के सहारे ही चलता है। वासना के आकषर्ण में प्रेम की संभावना ही उन्माद पैदा करती है। यह तो कृत्रिम और छद्मप्रेम की बात हुई, उसकी यथार्थता इतनी मार्मिंक होती है कि प्रेम देने वाला और प्रेम पाने वाला दोनों ही धन्य हो जाते हैं।
दार्शनिक विवेचना में इस भक्तिमार्गी आस्तिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। वेदांत ने आत्मा के परिष्कृत स्तर को ही परमात्मा माना है और उत्कृष्टता से भरापूरा अन्त:करण ही ब्रह्मलोक है। अपनी महानता पर विश्वास और तदनुरूप श्रेष्ठ आचरण का अवलम्बन, यही है सच्ची आस्तिकता। इसी के परिपोषण में साधना और उपासना का विशालकाय ढांचा खड़ा किया जाता है। अनेकता में समाविष्ट एकता की झांकी कर सकना ही ईश्वर दर्शन है।
सृष्टि का प्रत्येक सजीव और निर्जीव घटक एक-दूसरे से प्रभावित ही नहीं होता, वरन परस्परपूरक और अभिन्न भी है। एक की संवेदना दूसरे को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती, इसलिए अमुक व्यक्तित्वों की सुख-सुविधा को ध्यान में न रखते हुए समस्त विश्व का हित साधन करने की दृष्टि रखकर ही जीवन की कोई रीति-नीति निर्धारित की जाए, यह दृष्टि तत्त्व दर्शन का प्रत्यक्ष प्रतिफल है।
जब यह स्वत: सिद्ध सत्य चेतना के गहन मर्मस्थल तक प्रवेश कर जाए और निरन्तर इसी स्तर की अनुभूति होने लगे तो समझना चाहिए कि अध्यात्म और जीवन का समन्वय हो चला। पूजा की इतिश्री अमुक कर्मकाण्डों की पूर्ति के साथ ही हो जाती है; किन्तु आध्यात्मिकता व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग जीवन में व्यावहारिक हेर-फेर करने के लिए विवश करती है। आत्मसुधार, आत्म निर्माण के क्रम में अन्तरंग की आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं और अभिरु चियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होता है।
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