किसानी
भारत में 50 फीसद से ज्यादा जमीन पर खेती- होती है। इसका अर्थ ये है कि हम 50 फीसद से ज्यादा जमीन को लगातार जोत रहे हैं, बिना किसी विराम के।
जग्गी वासुदेव |
लेकिन यदि हम खेती में ज्यादा वैज्ञानिक प्रक्रिया लाएं, तो केवल 30 फीसद जमीन ही समस्त भारतीयों को खिलाने के लिए पर्याप्त है। यह संस्कृति खास तौर पर दक्षिण भारत में कर्नाटक में थी कि उन पेड़ों को वे अपने बेटों, बेटियों के नाम दे देते थे।
जब एक बेटी के विवाह का अवसर आता था तो वे एक पेड़ काट डालते और उससे सारा खर्च निकल जाता था। अभी हम जिस ढंग से खेती कर रहे हैं वह पिछले 1000 साल से वैसा ही है, कुछ भी नहीं बदला। बाहर से दिखने वाले तमाम आधुनिक उपकरणों के बावजूद। ये बहुत ही अकुशल ढंग से की जा रही है। उदाहरण के लिए, भारत में 1 किग्राचावल उगाने के लिए 3500 लीटर पानी खर्च होता है। चीन में इससे आधे में काम चल जाता है और उनकी उत्पादकता हमारी उत्पादकता से दोगुनी है। हमें अपनी खेती में आधुनिक विज्ञान का ज्यादा उपयोग करना चाहिए।
हमारे विश्वविद्यालयों में बहुत सारे वैज्ञानिक हैं, बहुत ज्ञान उपलब्ध है, बहुत तकनीकें हैं लेकिन वह खेती की जमीन तक नहीं पहुंच रहा। हमने अपने अभियान ‘रैली फॉर रिवर्स’ के दौरान तीन वियतनामी विशेषज्ञों को बुलाया था क्योंकि वियतनाम फलों का एक बड़ा निर्यातक देश है। जब हमने उनसे बात करनी शुरू की तो वे हम पर हंस रहे थे। उन्होंने कहा,‘22 साल पहले, हम तीनों दिल्ली के एग्रीकल्चर कॉलेज में पढ़ते थे। हमनें वहां से सब कुछ सीखा और वो सारी बातें हमनें अपनी जमीन पर आजमाई। आप के पास सब ज्ञान है पर आप लोग बस रिसर्च पेपर लिखते हैं और अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में जाते हैं।
आप वो चीजें जमीन पर नहीं करते। यही आप की समस्या है’। उसने आंखें खोलने वाली सच्चाई से मुझे रुबरु करया था। इससे शायद ही कोई इंकार करे। यह त्रासदी है हमारे कृषि अनुसंधान क्षेत्र की। इसीलिए हम तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिर्वसटिी और कोयम्बटूर के फारेस्ट कॉलेज के साथ मिल कर काम कर रहे हैं, जिससे हमारे विश्वविद्यालयों में उपलब्ध ज्ञान, तकनीकी जानकारी का इस्तेमाल खेती की जमीनों पर किया जा सके। इसके बेहतर रिजल्ट आने की उम्मीद है।
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