बेकारी
कहावत है-‘खाली दिमाग शैतान की दुकान।’ यह उन सबके लिए है जो परिश्रम से जी चुराते हैं।
रीराम शर्मा आचार्य |
पहले देश में राजा-रईस, अमीर-उमराव, जमींदार-साहुकार-महंत-मठाधीश बहुत थे। उनके पास आमदनी बहुत थी और नौकर-चाकरों के बलबूते पर उनका व्यापार चलता रहता था। काम का कोई उत्तरदायित्व सिर पर न होने से उनके पास समय बहुत बचता था। बचे समय का उपयोग आम तौर से खुराफात में होता था। बेकारी की समस्या इसीलिए खतरनाक नहीं मानी जाती कि उन दिनों आदमी कमाता नहीं वरन् मुख्यतया इसलिए उसे भयंकर मानते हैं कि बेकार आदमी को उत्पात ही सूझेंगे। बुराई का आज चारों ओर बाहुल्य है।
बेकार आदमी सहज ही उस ओर आकषिर्त होते हैं। कार्यव्यस्त व्यक्ति फुरसत न मिलने के कारण बुराइयों से बचा रहता है। बेकारी का कारण सदा काम का अभाव नहीं है। नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें खाते फिरने वालों में से अधिकांश वे होते हैं, जो ऊंची आमदनी की, आरामतलब की, बिना मेहनत की नौकरी चाहते हैं, मेहनत-मजदूरी से जिन्हें अपनी और इज्जत घटती मालूम होती है। उनके लिए बाबूगीरी की नौकरियां मिलना मुश्किल हो सकती हैं, पर परिश्रम करने वाले के लिए काम की कमी नहीं है।
ज्यादा पैसे का नहीं, बड़ा न सही, परंतु हर आदमी को हर जगह काम मिल सकता है और बहुत न सही, पर थोड़ा-सा तो वह कमा ही सकता है। थोड़ी भी कमाई न हो तो समय की बेकारी तो किसी काम में लगे रहने से बच ही जाती है। खुराफात में मन दौड़ाने का अवसर नहीं मिलता, यह भी क्या कुछ कम लाभ है? कहावत है कि ‘कुछ न कुछ किया कर, कुछ न हो तो पाजामा उधेड़कर सिया कर।’
बेकार बातों में वक्त गंवाने की से अच्छा है कि पाजामा उधेड़ने और सीने की कला का अभ्यास होता रहे और उस कार्य में हाथ सध जाए। कारीगरों की हर क्षेत्र में आवश्यकता है। देश में उद्योग-धंधे बढ़ रहे हैं। उनमें कुशल कारीगरों की कमी को देखते हुए अच्छी आजीविका मिलने की गुंजाइश रहती है, स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। बाबूगीरी की अपेक्षा लोग मेहनतकश बनने को तैयार हों, तो उनकी शान-शेखी में ही थोड़ी कमी हो सकती है, पर लाभ उन्हें भी होगा और सारे समाज को भी।
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