विश्वास

Last Updated 11 Sep 2019 06:53:42 AM IST

एक दिन अगर, आपका अनुभव आपके मन की सीमाओं से परे उठ जाता है, तो श्रद्धा अपने आप पैदा होती है जबकि विश्वास विकसित की हुई चीज है। श्


जग्गी वासुदेव

रद्धा घटित होती है या अगर इसे एक और तरह से कहें, विश्वास दिमाग में जबरन कुछ बैठाना है, जबकि श्रद्धा दिमाग को धोकर साफ और स्पष्ट बनाना है! आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए आपको थोड़ी श्रद्धा चाहिए लेकिन विश्वास नहीं।

जब आप कहते हैं, ‘मैं विश्वास करता हूं’ तो आप मूलत: यह कह रहे हैं कि ‘मैं यह स्वीकार करने को इच्छुक नहीं हूं कि मैं नहीं जानता।’ जब आप ‘मैं नहीं  जानता’ की अवस्था में होते हैं, तब आप जीवंत, जवाब देने योग्य, बच्चे सरीखे होते हैं, आपका किसी से टकराव नहीं हो सकता। मनुष्य की बुद्धिमत्ता ऐसी है कि यह आपको जीवन के बारे में अचरज में डालती है। जिस पल आप अचरज के इस गहन भाव को एक तय निष्कर्ष से बदल देते हैं, तब आप जानने की सारी संभावनाओं को ही खत्म कर देते हैं।

विश्वास में, आपके पास एक नये तरह का आत्मविश्वास होता है, लेकिन बिना स्पष्टता के तय निष्कर्ष खतरनाक हो सकता है, आपके खुद के लिए और दुनिया, दोनों के लिए। जिस पल आप किसी चीज में विश्वास करते हैं, आपका टकराव एक विपरीत विश्वास से होता है। आप इसे मध्यस्थता की बातचीत से टाल सकते हैं। लेकिन टकराव लाजिमी है। आध्यात्मिक होने के लिए आपको किसी धर्म का पालन करने की जरूरत नहीं है। अक्सर शिकायत सुनाई पड़ती है कि आज की पीढ़ी धार्मिंक नहीं है यानी इसके विश्वास पिछली पीढ़ी की तरह नहीं हैं।

निजी तौर पर मेरी कामना है कि और ज्यादा युवा किसी विश्वास को न मानने वाले हों। यह दुनिया में एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जब युवा उस चीज में विश्वास कर लेते हैं जो उनके पिता कहते हैं। उन्हें खोजने के लिए इच्छुक होना चाहिए, खुद से जानने की ललक होनी चाहिए। वह ललक गायब हो गई है, तो आप उन्हें युवा अब और कैसे कह सकते हैं? वे बूढ़े हो गए हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब है कि आप खुद के साथ पूरी तरह से ईमानदार हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि किसने क्या कहा-चाहे वो कृष्ण हों, जीसस हों, गौतम बुद्ध हों, या भगवान या उनके पैगम्बर।



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