प्रणिधान
प्रणिधान का अर्थ है-धारण करना, स्थापित करना। ईश्वर प्रणिधान अर्थात ईश्वर को धारण करना, ईश्वर को स्थापित करना।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
परमात्मा हमारे हृदयों में विराजमान है। गीता कहती है-ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेùर्जुन तिष्ठति। अर्थात हे अर्जुन! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में बैठा हुआ है। सर्वव्यापक परमात्मा हर एक के रोम-रोम में रम रहा है। फिर भी मनुष्य उसे भूला हुआ है। कहने को तो लोग ईश्वर को जानते भी हैं और मानते भी हैं, पर व्यवहार में उसका एक प्रकार से बहिष्कार ही कर देते हैं।
पुलिस सर्वव्यापक नहीं है, तो भी उससे जितना डरते हैं उतना ईश्वर से नहीं डरते। अमीरों में उतनी उदारता नहीं होती, तो भी अमीरों या अफसरों का जितना आदर करते हैं, उतना ईश्वर का नहीं करते। स्त्री का प्यार सच्चा और स्थायी नहीं होता, तो भी जितना प्यार अपनी स्त्री से करते हैं उतना ईश्वर से नहीं करते। बेटे के ब्याह में जितना खर्च कर देते हैं उससे चौथाई भी ईश्वर के निमित्त नहीं लगाते। यदि सच्चाई के साथ देखा जाए तो ईश्वर को एक बहुत ही गौण स्थान दिया जाता है। या तो धन, सम्पदा, बेटा, पोता, जीत, स्वास्थ्य, विद्या, बुद्धि, स्वर्ग, मुक्ति आदि प्राप्त करने के लिए ईश्वर को टटोलते हैं या कोई विपत्ति आ जाने पर छुटकारे के लिए उसे पुकारते हैं।
अध्यात्म विद्या का जो लोग शोध कर रहे हैं, राजयोग की साधना के लिए यम-नियमों की जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें ईश्वर प्रणिधान का तत्त्वज्ञान भली प्रकार समझना होगा और बुद्धिपूर्वक उस पर आरूढ़ होना होगा। योग के आठ अंगों में से द्वितीय अंग नियम का पांचवां नियम ईश्वर पूजा नहीं वरन ईश्वर प्रणिधान है। परमात्मा की हृदय में स्थापना करना, उसे हर घड़ी अपने साथ देखना, रोम-रोम में उसका व्यापकत्व अनुभव करना यह ईश्वर प्रणिधान का चिह्न है। मंदिर में मूर्ति की स्थापना की जाती है तो उसकी पूजा के लिए पुजारी नियत करना पड़ता है जो यथासमय सारी पूजापत्री किया करे।
पुजारी अन्य कार्य भी करता है, पर प्रतिमा के भोग, स्नान, शयन, आरती आदि का ध्यान विशेष सावधानी के साथ रखता है। ईश्वर प्रणिधान में ईश्वर की प्रतिमा का हृदय में, अंत:करण में स्थापित करनी होती है और उसे चौबीस घण्टे का साथी बनाना पड़ता है। पुजारी का प्रधान कार्य प्रतिमा की पूजा है।
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