संवेदना
अभी पश्चिम में एक नया आंदोलन चलता है विशेषकर अमेरिका में संवेदनशीलता को बढ़ाने का। क्योंकि अमेरिका को अनुभव होना शुरू हुआ है कि आदमी की संवेदनशीलता समाप्त हो गई है।
आचार्य रजनीश ओशो |
हम छूते हैं, लेकिन छूना हमारा बिल्कुल मुर्दा है। देखते हैं, लेकिन आंखें हमारी पथराई हुई हैं। सुनते हैं, लेकिन कानों पर आवाज ही पड़ती है, हृदय तक कोई संवेदन नहीं पहुंचता। प्रेम भी करते हैं, प्रेम की बात भी करते हैं, लेकिन प्रेम हमारा बिल्कुल निष्प्राण है। संवेदनाशून्य, जड़, यंत्रवत हम उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सब हम कर लेते हैं। मनसविद कह रहे हैं कि हम आदमी की संवेदना वापस न ला सके तो हम आदमी को पृथ्वी पर इस सदी के आगे बचा नहीं सकेंगे।
लेकिन संवेदना वापस कैसे लौटे? संवेदना खो क्यों गई है? आपको बचपन की कोई स्मृति है तो याद होगा कि अगर बगीचे में फूल खिल गया है, तो जैसा बचपन में वह आपको दिखाई पड़ा था खिलता हुआ, वैसा अब भी फूल खिलता है लेकिन आपको दिखाई नहीं पड़ता। सूरज बचपन में भी उगता था, अब भी उगता है; लेकिन अब सूरज के उगने से हृदय में कोई नृत्य पैदा नहीं होता। चांद अब भी निकलता है, अब भी आप आंख उठा कर कभी चांद को देख लेते हैं, लेकिन चांद आपको स्पर्श नहीं करता। क्या हो गया है? लाओत्से जो कह रहा है, आलिंगन टूट गया है।
बुद्धि और एंद्रिक तल दो हो गए हैं। इंद्रियों में संवेदना होती है, बुद्धि संवेदना को अनुभव करती है। दोनों टूट जाएं तो संवेदना होनी बंद हो जाती है। बच्चे एक स्वर्ग में रहते हुए मालूम पड़ते हैं, इसी जमीन पर, जहां हम हैं। लेकिन उनके स्वर्ग में रहने का कोई और कारण नहीं है, सिर्फ इतना ही कारण है कि अभी उनकी इंद्रिय-आत्मा और उनकी बुद्धि-आत्मा में फासला नहीं बढ़ा है। वे भोजन करते हैं, तो शरीर ही नहीं, उनकी पूरी आत्मा भी भोजन से आनंदित होती है।
जब वे नाचते हैं तो शरीर ही नहीं, उनकी आत्मा भी नाचती है। जब वे दौड़ते हैं तो उनका शरीर ही नहीं दौड़ता, उनकी आत्मा भी दौड़ती है। अभी वे संयुक्त हैं। उनके भीतर भेद पड़ना शुरू नहीं हुआ। अभी वे अद्वैत में हैं। इसलिए बच्चा जिन आनंद को अनुभव कर पाता है, उनको हम अनुभव नहीं कर पाते। होना तो उलटा चाहिए कि हम ज्यादा अनुभव कर सकें क्योंकि हमारी अनुभव की क्षमता और हमारे अनुभव का संग्रह बड़ा है।
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