बेकारी

Last Updated 14 Mar 2019 05:46:25 AM IST

कहावत है-‘खाली दिमाग शैतान का घर।’ यह कहावत उन सबके लिए है जो परिश्रम से जी चुराते हैं। परिश्रम के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा-सा रहता है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

अब तो विज्ञान भी मानने लगा है कि परिश्रम से जी चुराने से ही नाना प्रकार की बीमारियां पनपती हैं। परिश्रम चाहे वह व्यायाम का ही क्यों न हो, किन्तु करना अवश्य चाहिए। जो बेकार रहेगा, उसे शैतानी सूझेगी। कुछ दिन पहले इस देश में राजा-रईस, अमीर-उमराव, जमींदार-साहूकार, महन्त-मठाधीश बहुत थे। उनके पास आमदनी बहुत थी और नौकर-चाकरों के बलबूते पर उनका व्यापार चलता रहता था। काम का कोई उत्तरदायित्व सिर पर न होने से उनके पास समय बहुत बचता था। इस बचे हुए समय का उपयोग आमतौर से खुराफातों में होता था। बहुत कम लोग इन वगरे में ऐसे थे, जो अपने समय को किसी मूल्यवान कार्य में लगाते थे।
अब यह वर्ग घट रहे हैं। परिस्थितियों ने उन्हें श्रम करने और सुधरने के लिए विवश किया है। वह विवशता उपयोगी भी है और आवश्यक भी। बेकारी की समस्या इसीलिए खतरनाक नहीं मानी जाती कि उन दिनों आदमी कमाता नहीं, वरन् मुख्यतया इसलिए उसे भयंकर मानते हैं कि बेकार आदमी को उत्पात ही सूझेंगे। बुरे विचार उसके मस्तिष्क में उठेंगे और वह बुरे कामों की ओर अग्रसर होगा। बुराई का आज चारों ओर बाहुल्य है। उसी का प्रसार एवं आकषर्ण भी प्रबल है। बेकार आदमी सहज ही उस ओर आकषिर्त होते हैं। कार्यव्यस्त व्यक्ति फुरसत न मिलने के कारण बुराइयों से बचा रहता है। पर बेकर आदमी के लिए तो सर्वनाश का द्वार खुला पड़ा है।

बेकारी का कारण सदा काम का अभाव नहीं है। बहुधा आलस्य भी होता है। नौकरी के लिए दर-दर ठोकरें खाते फिरने वालों में से अधिकांश वे होते हैं, जो ऊंची आमदनी की, आरामतलब की, बिना मेहनत की नौकरी चाहते हैं, श्रम में जिनका जी दुखता है, मेहनत-मजदूरी से जिन्हें अपनी शान और इज्जत घटती मालूम होती है। उनके  लिए बाबूगीरी की नौकरियां मिलना मुश्किल हो सकती हैं, पर परिश्रम करने वाले के लिए काम की कहीं कमी नहीं है। ज्यादा पैसे का नहीं, बड़ा न सही, परन्तु हर आदमी को हर जगह काम मिल सकता है और बहुत न सही, पर थोड़ा-सा तो वह कमा ही सकता है। थोड़ी भी कमाई न हो तो समय की बेकारी तो किसी काम में लगे रहने से बच ही जाती है।



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