ईश्वर

Last Updated 24 Jan 2019 04:39:51 AM IST

ईश्वर का दंड एवं उपहार दोनों ही असाधारण हैं। इसलिए आस्तिक को इस बात का सदा ध्यान रहेगा कि दंड से बचा जाए और उपहार प्राप्त किया जाए।


श्रीराम शर्मा आचार्य

यह प्रयोजन छिट-पुट पूजा-अर्चना, जप-ध्यान से पूरा नहीं हो सकता। भावनाओं और क्रियाओं को उत्कृष्टता के ढांचे में ढालने से ही यह प्रयोजन पूरा होता है। न्यायनिष्ठ जज की तरह ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। स्तवन अर्चन करके उसे उसके नियम विधान से विचलित नहीं किया जा सकता है। अपना गुणगान करने वाले के साथ यदि वह पक्षपात करने लगे, तब उसकी न्याय व्यवस्था का कोई मूल्य न रहेगा, सृष्टि की सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जाएगी।

सबको अनुशासन में रखने वाला परमेश्वर स्वयं भी नियम व्यवस्था में बंधा है। यदि कुछ उच्छृंखलता एवं अव्यवस्था बरतेगा तो फिर उसकी सृष्टि में पूरी तरह अंधेरा फैल जाएगा। फिर कोई उसे न तो न्यायकारी कहेगा और न समदर्शी। तब उसे खुशामदी या रितखोर नाम से पुकारा जाने लगेगा, जो चापलूस स्तुति सा कर पुष्प-नैवेद्य भेंट कर दें, उससे प्रसन्न। भगवान् को हम सर्वव्यापक एवं न्यायकारी समझकर गुप्त या प्रकट रूप से अनीति अपनाने का कभी भी, कहीं भी साहस न करें। ईश्वर के दंड से डरें। उसका भक्त वत्सल ही नहीं, भयानक रौद्र रूप भी है।

उसका रौद्र रूप ईश्वरीय दंड से दंडित असंख्यों रुग्ण, आसक्त, मूक, वधिर, अंध, अपंग, कारावास एवं अस्पतालों में पड़े हुए कष्टों से कराहते हुए लोगों की दयनीय दशा को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। केवल वंशी बजाने वाले और रास रचाने वाले ईश्वर का ही ध्यान न रखें, उसका त्रिशूलधारी भी एक रूप है, जो असुरता में निमग्न दुरात्माओं का नृशंस दमन, मर्दन भी करता है।

न्यायनिष्ठ जज को जिस प्रकार अपने सगे-संबंधियों, प्रशंसक मित्रों तक को कठोर दंड देना पड़ता है, फांसी एवं कोड़े लगाने की सजा देने को विवश होना पड़ता है, वैसे ही ईश्वर को भी अपने भक्त-अभक्त का, प्रशंसक-निंदक का भेद किए बिना उसके शुभ-अशुभ कर्मो का दंड पुरस्कार देना होता है। ईश्वर हमारे साथ पक्षपात करेगा, सत्कर्म न करते हुए भी विविध सफलताएं देगा या दुष्कर्म करते रहने पर भी दंड से बचे रहने की व्यवस्था कर देगा, ऐसा सोचना नितांत भूल है। उपासना का उद्देश्य पल्रोभन के अवसर आने पर भी सत्पथ से विचलित न होने की दृढ़ता प्रदान करे यही ईश्वर की कृपा का सर्वश्रेष्ठ चिह्न है।



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