विभूति
हम संपदाएं कमाने में तल्लीन हों या विभूतियां उपार्जित करने के लिए तत्पर हों, इस ऊहापोह में गहराई तक उतरने के पश्चात इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि आत्मिक विभूतियों की समृद्धि भौतिक तुलनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक सुखद एवं श्रेयस्कर है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
धन, पद, बल, परिवार, वैभव, वर्चस्व, क्रियाकौशल आदि को सम्पदा गिना जाता है। इनके सहारे इंद्रिय तृप्ति एवं तृष्णा और अहंता का पोषण होता है। विभूतियां उन आत्मिक गुणों को कहते हैं, जो व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित बनाने में सहायक होते हैं। सच्चरित्रता, सज्जनता, सहृदयता, कर्त्तव्यपरायणता, श्रमशीलता, उदारता जैसे सद्गुणों को इसी श्रेणी में रखा जाता है।
धनवान का बड़प्पन और गुणवान की महानता दोनों की तुलना में सामान्य बुद्धि भले ही संपत्ति को प्रधानता दे, पर विवेकवान यही निर्णय करेंगे कि सद्गुणों की पूंजी-विभूति प्रत्येक दृष्टि से अधिक ऊंची और अधिक श्रेयस्कर है। भौतिक उपलब्धियां तभी तक आकषर्क प्रतीत होती हैं जब तक वे मिल नहीं जातीं। मिलने पर तो उनके साथ जुड़े हुए झंझट और उन्माद इतने विषम होते हैं कि अन्तत: उनके कारण मनुष्य अधिक अशांत उद्विग्न रहने लगता है।
मित्र भी घात लगाते हैं और ईष्र्यालुओं एवं अपहरणकारी प्रिय पात्रों का वेष बनाकर जुड़ते, चिपटते आते हैं। जोंक जिस तरह रक्त पीती है, वैसे ही संपत्ति लोभी मित्र भी भीतर ही भीतर शत्रुता का व्यवहार करते रहते हैं। वस्तुस्थिति को समझने वाला संपत्तिवान देखता है कि संपत्ति का निजी उपयोग उतना ही हो सका, जितना कि निर्धन कर पाते हैं। जो अतिरिक्त जमा किया गया था, उसमें मित्र वेषधारी शत्रुओं की, अगणित उलझनों की और चरित्रगत दोष-दुगरुणों की एक बड़ी फौज सामने लाकर खड़ी कर दी।
संपत्ति अभिवर्धन के प्रयास अन्तत: निर्थक ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि विभूतियों के अभाव में उनका सदुपयोग भी नहीं बन पड़ता। कृपणता उपयोग भी नहीं करने देती। संचय से उत्तराधिकारियों की दुरभिसंधियां बढ़ती चली जाती हैं। उच्छृंखल उपभोग अथवा उद्धत प्रदर्शन किया जाय, तो भी उसकी प्रतिक्रिया कुछ ही समय में घातक विद्रोह साथ लेकर सामने आ खड़ी होती है। जितना श्रम और मनोयोग संपदा के उपार्जन में लगाया जाय, उतना ही ध्यान एवं प्रयास सद्गुणों के अभिवर्धन पर केंद्रित किया जाए, तो उस आत्मपरिष्कार का लाभ असाधारण रूप से उपलब्ध होगा।
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