खेल
क्या खेल सिर्फ मनोरंजन के लिए होते हैं, या फिर ये इंसान के विकास में भी मदद कर सकते हैं।
![]() जग्गी वासुदेव |
यह खेल की सुंदरता है-जैसे ही आप खेल के मैदान पर उतरते हैं, आप में एक खास तरह का त्याग आ जाता है, और आपकी पहचान गायब हो जाती है। हम दुनिया भर में, अपने कार्यक्रमों में खेल का इस्तेमाल करते हैं। हम जहां भी कोई ध्यान की प्रक्रिया सिखाते हैं, ध्यान की प्रक्रिया में उन्हें ले जाने से पहले हमेशा एक घंटे का कोई सरल खेल होता है, जो वे खेलते हैं, जहां लोग बच्चों जैसे हो जाते हैं।
चीखते-चिल्लाते हैं, दौड़ते-भागते हैं, खुलकर खेलते हैं। अगर त्याग का भाव न हो, अगर लोग चीख-चिल्ला नहीं सकते, हंस-कूद नहीं सकते, खेल नहीं सकते, तो वे निश्चित तौर पर ध्यान भी नहीं कर सकते। जाति और इस तरह के दुराग्रह हजारों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं। लेकिन हमने देखा है कि जब गांवों की टीमें बनती थीं, और जब तमिलनाडु में सब ‘लीग टूर्नामेंट’ शुरू हुए तो जो भी अच्छा खेलता था, वह हीरो बन जाता था।
फिर कोई उसकी जाति को नहीं देखता था। वह उनके गांव का ‘चैंपियन’ होता था, और उनके लिए बस यही मायने रखता था। खेल ने जाति के अंतर को पाट दिया, पूरी तरह से नहीं तो भी कुछ हद तक। इसने एक तरह से अलग-अलग समुदायों के बीच पुल बना दिया।
आज भी जब कोई मैच चल रहा होता है, तो आप देखेंगे कि सभी समुदाय साथ-साथ आ जाते हैं। भूल जाते हैं कि वे कौन हैं। शुरु आत में वे अपने ही लोगों के साथ खड़े होते हैं, पर जैसे-जैसे खेल रफ्तार पकड़ता है, दर्शक उछलने लगते हैं, और फिर एक दूसरे के साथ घुल-मिल जाते हैं। वे एक दूसरे की पीठ ठोकते हैं और भूल जाते हैं कि वे कौन हैं? यह खेल की सुंदरता है। आप पूरी तरह से जुड़े बगैर खेल नहीं सकते। संपूर्ण भागीदारी, पूरी तरह से जुड़ जाना, शामिल होना, यह किसी भी खेल का मूल मंत्र है।
अगर पूरा जुड़ाव नहीं है, तो कोई खेल संभव ही नहीं है। खेल उनके भीतर भागीदारी का ऐसा भाव लाता है कि वे बड़ी बातों के लिए तैयार हो जाते हैं। हम गांवों में खेलों का इस्तेमाल बहुत ही प्रभावशाली ढंग से कर रहे हैं, जिसके कारण वे शांत, स्थिर हो जाते हैं, और ध्यान में उतरते हैं, जिसकी उन्होंने अपने जीवन में कभी कल्पना भी नहीं की थी। विवेकानंद ने तो यहां तक कहा था कि प्रार्थना करने से ज्यादा आप ईश्वर के करीब तब होते हैं, जब फुटबॉल खेल रहे होते हैं।
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