धर्म

Last Updated 08 Jan 2019 06:54:11 AM IST

धर्म तो सदा ही नगद होता है। उधार और धर्म, संभव नहीं। उधार धर्म का नाम ही अधर्म है। और उधार धर्म बहुत प्रचलित है पृथ्वी पर।


आचार्य रजनीश ओशो

मंदिर मस्जिदों में जिसे तुम पाते हो, वह उधार धर्म है। उधार से अर्थ है : वह अनुभव तुम्हारा नहीं किसी और का है। किसी राम को हुआ अनुभव या किसी कृष्ण को या किसी क्राइस्ट को, तुमने सिर्फ मान लिया है। उधार धर्म बिल्कुल सस्ता है। गीता पढ़ो, मिल जाता है। बाइबिल पढ़ो, मिल जाता है। उधार धर्म तो चारों तरफ देने वाले मौजूद हैं। मां-बाप से मिल जाता है, पंडित-पुरोहित से मिल जाता है। नगद धर्म दूसरे से नहीं मिलता। धर्म को स्वयं के भीतर ही कुआं खोदना पड़ता है, गहरी खुदाई करनी पड़ती है।

लंबी यात्रा है अंतर्यात्रा क्योंकि बहुत दूर हम निकल आए हैं अपने से। जन्मों जन्मों अपने से दूर जाते रहे हैं। अब अपने पास आना इतना आसान नहीं। हमने हजार बाधाएं बीच में खड़ी कर दी हैं। भूल ही गए हैं कि अपने को कहां छोड़ आए। विस्मृति के पहाड़ खड़े हो गए हैं। नगद धर्म का अर्थ होता है: इन सारे पहाड़ों को पार करना होगा। ये भीतर हैं विचारों के, भावनाओं के, पक्षपातों के, धारणाओं के। यह खुदाई बाहर करनी होती तो बहुत कठिन नहीं थी; उठा लेते कुदाली और खोद देते। यह भीतर करनी है। ध्यान की कुदाली से ही हो सकती है।

ध्यान की कुदाली बाजार में नहीं मिलती; स्वयं निर्मिंत करनी होती है; इंच-इंच श्रम से बनानी होती है। धर्म तो सदा ही नगद होता है अर्थ, कि धर्म सदा ही आत्म-अनुभूति से होता है। तो जो उधार हो, उसे अधर्म मान लेना। मैं नास्तिक को अधार्मिंक नहीं कहता, खयाल रखना। नास्तिक धर्म- शून्य है, अधार्मिंक नहीं। अधार्मिंक तो मैं कहता हूं हिंदू को, मुसलमान को, ईसाई को, जैन को, सिक्ख को, जिसने दूसरे को मानकर अपनी खोज ही बंद कर दी है; जो कहता है : ‘हम क्यों खोज करें? बाबा नानक खोज कर गए। हम क्यों खोज करें?

कबीरदास खोज कर गए।’ ऐसा नहीं है कि नानक और कबीर, दादू और रैदास ने सत्य नहीं पाया था; पाया था, लेकिन अपने भीतर खोदा था, तो पाया था। तुम सच में ही नानक को प्रेम करते हो तो उसी तरह अपने भीतर खोदो जैसा उन्होंने खोदा। सच में ही कृष्ण के अनुगामी हो तो कृष्ण के पीछे मत चलो। यह बात तुम्हें बेबूझ लगेगी, क्योंकि अनुगमन का अर्थ होता है पीछे चलना। मेरी भाषा में अनुगमन का अर्थ होता है: वैसे चलो जैसे कृष्ण चले। कृष्ण के पीछे चले तो तुम कृष्ण का अनुगमन नहीं कर रहे हो। कृष्ण किसी के पीछे नहीं चले। अपने भीतर चले। तुम भी कृष्ण की भांति ही अपने भीतर चलो।



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