गुरु-महिमा
संत कबीर कहते हैं कि गुरु गोविन्द दोनों खड़े हैं। मैं पहले किसके चरण स्पर्श करूं?
श्रीराम शर्मा आचार्य |
अंतत: गुरु की बलिहारी लेते हैं कि हे गुरु वर! आप न होते तो मुझे गोविन्द की, परमतत्त्व की, ईश्वरत्व की प्राप्ति न हुई होती। गुरु वस्तुत: शिष्य को गढ़ता है एक कुंभकार की तरह। इस कार्य में उसे कहीं चोट भी लगानी पड़ती है, कुसंस्कारों का निष्कासन भी करना पड़ता है तथा कहीं अपने हाथों की थपथपाहट से उसे प्यारा का पोषण देकर उसमें सुसंस्कारों का प्रवेश भी वह कराता है। संत कबीर ने इसलिए गुरु को कुम्हार कहते हुए शिष्य को कुम्भ बताया है। मटका बनाने के लिए कुम्भकार को अंदर हाथ लगाकर बाहर से चोट लगानी पड़ती है कि कहीं कोई कमी तो रह नहीं गई। छोटी-सी मटके में कमजोरी उसके टूटने का कारण बन सकती है। गुरु ही ऐसा प्राणी है जिससे शिष्य के आत्मिक संबंध की संभावनाएं बनती हैं, प्रगाढ़ होती चली जाती हैं। शेष पारिवारिक सामाजिक प्राणियों से शारीरिक मानसिक-भावनात्मक संबंध तो होते हैं, लेकिन आध्यात्मिक स्तर का उच्चस्तरीय प्रेम तो गुरु से ही होता है।
गुरु अर्थात मानवीय चेतना का मर्मज्ञ मनुष्य में उलट फेर कर सकने में, उसका प्रारब्ध तक बदल सकने में समर्थ सर्वज्ञ। सभी साधक गुरु नहीं बन सकते। कुछ ही बन पाते हैं, जिन्हें वे मिल जाते हैं, वे निहाल हो जाते हैं। रामकृष्ण कहते थे सामान्य गुरु कान फूंकते हैं जबकि अवतारी पुरुष श्रेष्ठ महापुरुष सतगुरु -प्राण फूंकते हैं। ऐसे गुरु जब आते हैं, तब अनेकों विवेकानंद, महर्षि दयानन्द, गुरु विरजानंद, संत एकनाथ, गुरु जनार्दन नाथ, पंत निवृत्ति नाथ, गुरु गहिनी नाथ, योगी अनिर्वाण, गुरु स्वामी निगमानंद, आद्य शंकराचार्य, गुरु गोविंदपाद कीनाराम, गुरु कालूराम तैलंग स्वामी, गुरु भगीरथ स्वामी, महाप्रभु चैतन्य, गुरु ईश्वरपुरी जैसी महानात्माएं विनिर्मिंत हो जाती हैं। अंदर से गुरु का हृदय प्रेम से लबालब होता है बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हो। उसके हाथ में तो हथौड़ा है जो अहंकार को चकनाचूर कर डालता है। गुरु का अर्थ है सोयों में जगा हुआ व्यक्ति, अंधों में आंख वाला व्यक्ति। गुरु का अर्थ है वहां अब सब कुछ मिट गया है मात्र परमात्मा ही परमात्मा है वहां बस! ऐसे क्षणों में जब हमें परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, गुरु ही उपयोगी हो सकता है क्योंकि वह हमारे जैसा है।
Tweet |