सूर्य
बाहर के सूर्य की भांति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ है, बाहर के चांद की ही भांति मनुष्य के भीतर भी चांद छिपा हुआ है.
आचार्य रजनीश ओशो |
और पंतजलि का रस इसी में है कि वे अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं. इसलिए जब वे कहते हैं-‘भुवन ज्ञानम? सूर्ये संयमात.’ सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है.’ तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है, जो बाहर है. उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है.
हमारे भीतर सूर्य कहां है? हमारे अंतस के सौर-तंत्र का केंद्र कहा है? वह केंद्र ठीक प्रजनन-तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है. इसीलिए कामवासना में एक प्रकार की ऊष्णता, एक प्रकार की गर्मी होती है. कामवासना का केंद्र सूर्य होता है. इसीलिए तो कामवासना व्यक्ति को इतना ऊष्ण और उत्तेजित कर देती है. जब कोई व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह उत्तप्त से उत्तप्त होता चला जाता है.
व्यक्ति कामवासना के प्रवाह में एक तरह से ज्वर-ग्रस्त हो जाता है, पसीने से एकदम तर-बतर हो जाता है, उसकी श्वास भी अलग ढंग से चलने लगती है. और उसके बाद व्यक्ति थककर सो जाता है. जब व्यक्ति कामवासना से थक जाता है तो तुरंत भीतर चंद्र ऊर्जा सक्रिय हो जाती है. जब सूर्य छिप जाता है, तब चंद्र का उदय होता है. इसीलिए तो काम-क्रीड़ा के तुरंत बाद व्यक्ति को नींद आने लगती है. सूर्य ऊर्जा का काम समाप्त हो चुका, अब चंद्र ऊर्जा का कार्य प्रारंभ होता है.
भीतर की सूर्य ऊर्जा काम-केंद्र है. उस सूर्य ऊर्जा पर संयम केंद्रित करने से, व्यक्ति भीतर के संपूर्ण सौर-तंत्र को जान ले सकता है. काम-केंद्र पर संयम करने से व्यक्ति काम के पार जाने में सक्षम हो जाता है. काम-केंद्र के सभी रहस्यों को जान सकता है. लेकिन बाहर के सूर्य के साथ उसका कोई भी संबंध नहीं है. लेकिन अगर कोई व्यक्ति भीतर के सूर्य को जान लेता है तो उसके प्रतिबिंब से वह बाहर के सूर्य को भी जान सकता है.
सूर्य इस अस्तित्व के सौर-मंडल का काम-केंद्र है. इसी कारण जिसमें भी जीवन है, प्राण है, उसको सूर्य की रोशनी, सूर्य की गर्मी को आवश्यकता है. जैसे कि वृक्ष अधिक से अधिक ऊपर जाना चाहते हैं. जैसे सूर्य जीवन है, वैसे ही कामवासना भी जीवन है. इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है, और ठीक इसी तरह से कामवासना से ही जीवन जन्म लेता है-सभी प्रकार के जीवन का जन्म काम से ही होता है.
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