उदय न अस्त

Last Updated 20 Dec 2017 01:22:43 AM IST

सूर्य वास्तव में न कभी उगता है, न डूबता है. मगर जिस तरह से हमें उसका बोध होता है, वह कितना शानदार धोखा है!


जग्गी वासुदेव

बड़ी से बड़ी चीजों के मामले में हमारे बोध में अनगिनत छलावे होते हैं. आप सिनेमा हॉल में बैठते हैं तो परदे पर दिखने वाला नाटक असली सा दिखता है. अगर प्रोजेक्शन रूम में जाकर देखें तो सिर्फ एक लाइट बल्ब और घूमते हुए दो पहिए होते हैं.

बहुत सारा नाटक होगा प्रेम, लड़ाई, युद्ध, शांति, शायद आत्मज्ञान भी. मगर मुख्य रूप से वह सिर्फ  एक प्रोजेक्शन है. जो व्यक्ति उस नाटक या सिनेमा का आनंद नहीं लेता, मूर्ख है. जो नाटक या सिनेमा में उलझ जाता है, उससे भी बड़ा मूर्ख. जो नाटक का पूरी तरह आनंद लेता है और फिर भी उस प्रक्रिया में उलझता नहीं, वह समझता है कि यह ओपनिंग क्रेडिट के साथ शुरू होता है और एंड टाइटल्स के साथ खत्म हो जाता है.

एक तरह से यह कब्र पर खुदे नामों की तरह है, जिन चरित्रों या पात्रों को आपने अभी फिल्म में देखा, वे अब वहां हैं. अगर आप नहीं समझ पाते कि इनके बीच में जो कुछ होता है, वह सिर्फ  एक नाटक है, और उसमें उलझ कर रह जाते हैं, तो बहुत सारी चीजें जो असली नहीं हैं, आपको असली लगने लगती हैं. और जो असली है, उससे आप पूरी तरह चूक जाएंगे. गुरू का काम आपको फिल्में दिखाना नहीं, बल्कि प्रोजेक्शन रूम तक ले जाना है.

आप कुर्सी पर बैठकर पॉपकार्न खाते हुए फिल्म का मजा ले सकते हैं. आपको एक भूमिका निभानी है और आप निर्देशक का हाथ नहीं पकड़ रहे. निर्देशक अभिनेता का हाथ नहीं पकड़ता तो मशहूर सितारे भी पूरी तरह अस्त-व्यस्त होंगे. कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने प्रतिभाशाली या समर्थ हैं, आप सृष्टा का हाथ नहीं पकड़ेंगे तो जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त होगा. आप कामयाब हैं, तो एक तरह की और असफल हैं, तो दूसरी तरह की अव्यवस्था होगी.

हर कोई असफल हो जाए तो दुनिया रसातल में चली जाएगी. कामयाब हो जाए तो हम और तेजी से धरती को नष्ट कर देंगे. आप जानते हैं कि आपको अपनी भूमिका कैसे निभानी है और प्रोजेक्शन रूम की प्रक्रिया के प्रति भी सजग हैं, तो सिनेमा को अपनी मर्जी से नियंत्रित कर सकते हैं. निर्देशक का हाथ पकड़ लें तो वह बढ़िया अनुभव हो सकता है. सबसे बढ़कर आप आराम करते हुए फिल्म देख सकते हैं.



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