ईश्वर
आंखों से प्रकृति पदार्थ दिखते हैं. इंद्रियों द्वारा भी वे अनुभव किए जाते हैं. ईश्वर चेतना है. वह निराकार होती है.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
साकार तो उसका कलेवर भर दिखता है. ईश्वर का दृश्य स्वरूप यह विराट ब्रrांड है. अजरुन, यशोदा, कौशल्या आदि का मन जब ईश्वर दर्शन के लिए व्याकुल हुआ, तो उन्हें इसी रूप में दिव्य दर्शन कराए गए. इसके लिए दिव्य नेत्र दिए गए. कारण कि स्थूल दृष्टि तो विराट विश्व का एकबारगी नहीं देखा जा सकता.
आंखों की देख सकने की परिधि तो बहुत छोटी है फिर सुविस्तृत को कैसे देखा जाए? जिन्हें पूर्व कथानकों के अनुरूप दर्शन ही भक्ति भावना का सफलता का आधार दिखाई पड़ता है, उनके लिए प्रतिमा प्रतीकों का निर्धारण किया गया है.
जब व्यापक चेतना की सत्ता तो सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है, मात्र शरीरधारी आकार ही चाहिए तो फिर भगवान की आकृति किसी भी प्राणी के रूप में हो सकती है पर यह परिकल्पना रास नहीं आती और मनुष्य शरीर अपना अभ्यास होने के कारण अधिक मनभावन प्रतीत होता है. इसलिए प्रतिमाओं में मनुष्याकृति को ही प्रमुखता दी गई है. यों तत्त्वदर्शियों ने मछली, वाराह, नृसिंह आदि को भी भगवान के अवतार ही बताकर प्राणी मात्र में दिव्य सत्ता का दर्शन करने का संकेत किया है, पर वह प्रतीक सब में प्रतिष्ठित न हो सकी.
देवी-देवताओं के वाहनों के रूप में पशु-पक्षियों का चितण्रकिया गया और समझाने का प्रयत्न हुआ कि प्राणी मात्र में भी देवसत्ता का आभार टिका हुआ माना जा सकता है. पर वह भी सम्मानास्पद नहीं बन सका, इष्टदेव का स्थान न पा सका. चित्रों, प्रतिमाओं में देवी-देवताओं के वाहन पशु-पक्षी हैं पर उन्हें सेवक भर की मान्यता मिल सकी. यद्यपि निर्धारणकर्ताओं का अभिप्राय यही था कि प्राणीमात्र में ईश्वर की झांकी की जाए और उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाए जैसा कि दिव्य संरचना के हर घटक के साथ किया जाना उचित है.
शिव का नंदी, सरस्वती का हंस, लक्ष्मी का हाथी, दुर्गा का सिंह तो प्राय: चितण्रमें आते हैं. ईश्वर का दर्शन लाभ, जो वास्तविक रूप में प्राप्त करना चाहता है उन्हें अपने अंत:करण में संवदेना व उत्कृष्ट आदर्शवादिता का उभार करना चाहिए. जब उच्चस्तरीय संवेदना उभरती है, तो अपने ही अंतराल से भगवान का आंशिक अवतरण हुआ समझा जा सकता है.
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