समाधि
अस्तित्व दो चीजों से मिलकर बना है ‘वह जो है’ और ‘वह जो नहीं है’. ‘वह जो है’ में आकार-प्रकार, रूप, गुण, सुंदरता है जबकि ‘वह जो नहीं है’ में ये चीजें नहीं होती.
धर्माचार्य जग्गी वासुदेव |
मगर वह मुक्त होता है. ‘वह जो नहीं है’ कहीं-कहीं ‘वह जो है’ में फूट पड़ता है. जैसे-जैसे ‘वह जो है’ अधिक चेतन होता जाता है, वह ‘वह जो नहीं है’ बनने के लिए लालायित हो जाता है.
हालांकि हमें उसके रूप-गुण, विशेषताएं और सुंदरता अच्छी लगती है, मगर अस्तित्व की पूर्ण आजादी की अवस्था को पाने की लालसा से हम बच नहीं सकते. यह सिर्फ समय की बात है और समय और स्थान का बंधन भी ‘वह जो है’ का एक छलावा है. ‘वह जो नहीं है’ को समय या स्थान का बोध नहीं होता क्योंकि वह असीम और शात है.
वह समय और स्थान की सीमाओं की बेड़ियों से मुक्त है. जब अस्तित्व की मूल प्रक्रिया से आजाद होने की यह लालसा पैदा होती है, तो मन और भावना की आशंकापूर्ण प्रकृति इसे आत्म-विनाश के रूप में देखने लगती है. एक विचारशील मन के लिए आध्यात्मिक प्रक्रिया जानते-बूझते हुए आत्महत्या करने जैसा है. मगर यह आत्महत्या नहीं है, उससे कहीं आगे की चीज है.
आत्महत्या अपना अंत करने की चाह का एक खराब तरीका है. खराब से मेरा मतलब है कि यह तरीका असफल होता है. यह कारगर नहीं होता. मगर इस संस्कृति में कुछ लोग इसे कारगर तरीके से करने में निपुण होते हैं, यही आध्यात्मिक प्रक्रिया है. भारत में ‘समाधि’ शब्द आम तौर पर कब्र या स्मारक के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
जब किसी स्थान पर किसी व्यक्ति को दफनाया जाता है और उसके ऊपर किसी तरह का स्मारक बनाया जाता है, तो उसे समाधि कहा जाता है. मगर ‘समाधि’ मानव चेतना की उस सबसे ऊंची अवस्था को भी कहते हैं, जिसे व्यक्ति प्राप्त कर सकता है. जब किसी व्यक्ति के मरने पर उसे दफनाया जाता है, तो उस स्थान को उस व्यक्ति का नाम दिया जाता है. लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी खास जगह पर एक खास अवस्था को हासिल कर लेता है, तो उस व्यक्ति को उस स्थान का नाम दे दिया जाता है.
इसी वजह से कई योगियों का नाम किसी खास जगह के नाम से मिलता है. श्री पलानी स्वामी को यह नाम ऐसे ही मिला क्योंकि वह पलानी नामक जगह पर समाधि में बैठे. लोगों ने उन्हें पलानी स्वामी कहना शुरू कर दिया क्योंकि उन्होंने कभी किसी को अपना परिचय नहीं दिया. उन्होंने कभी लोगों को अपना नाम नहीं बताया.
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