पाप और पुण्य
श्रेष्ठ कार्य वह है, जो श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए किया जाता है. उत्तम कार्यों की कार्यप्रणाली भी प्राय: उत्तम ही होती है.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
दूसरों की सेवा या सहायता करनी है, तो प्राय: उसके लिए मधुर भाषण, नम्रता, दान, उपहार आदि द्वारा ही उसे संतुष्ट किया जाता है. परन्तु कई बार इसके विपरीत स्थिति सामने आती है कि सदुद्देश्य होते हुए भी, भावनाएं उच्च, श्रेष्ठ, सात्विक होते हुए भी क्रिया-प्रणाली ऐसी कठोर, तीक्ष्ण एवं कटु बनानी पड़ती है, जिससे लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि कहीं यह सब दुर्भाव से प्रेरित होकर तो नहीं किया गया. ऐसे अवसरों पर वास्तविकता का निर्णय करने में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है. सीधे-सादे अवसरों पर सीधी-सादी प्रणाली से भली प्रकार काम चल जाता है. किसी भूखे, प्यासे की सहायता करनी है, तो वह कार्य अन्न-जल देने के सीधे-सादे तरीके से चल जाता है.
इसी प्रकार किसी दुखी या अभावग्रस्त को अभीष्ट वस्तुएं देकर उसकी सेवा की जा सकती है. धर्मशाला, कुआँ, पाठशाला, अनाथालय, औषधालय आदि के द्वारा लोकसेवा की जा सकती है. ऐसे कार्य निश्चय ही श्रेष्ठ हैं और उनकी आवश्यकताएं एवं उपयोगिता सर्वत्र स्वीकार की जा सकती है. लेकिन कई बार इस प्रकार की सेवा की भी बड़ी आवश्यकता होती है, जो प्रत्यक्ष में बुराई मालूम पड़ती है और उसके करने वाले को अपयश ओढ़ना पड़ता है. इस मार्ग को अपनाने का साहस हर किसी में नहीं होता. बिरले बहादुर ही इस प्रकार की दुस्साहसभरी सेवा करने को तैयार रहते हैं. दुष्ट और अज्ञानियों को उस मार्ग से छुड़ाना, जिस पर कि वे बड़ी ममता और अहंकार के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं, कोई साधारण काम नहीं है.
सीधे आदमी सीधे तरीके से मान जाते हैं. उनकी भूल ज्ञान से, तर्क से, समझाने से सुधर जाती है, पर जिनकी मनोभूमि अज्ञानान्धकार से कलुषित हो रही है और साथ ही जिनके पास कुछ शक्ति भी है, वे ऐसे मदान्ध हो जाते हैं कि सीधी-सादी क्रिया-प्रणाली का उन पर प्राय: कुछ भी असर नहीं होता. मनुष्य शरीर धारण करने पर भी जिनमें पशुत्व की प्रबलता और प्रधानता है, ऐसे प्राणियों की कमी नहीं है. ऐसे प्राणी सज्जनता, साधुता और सात्विकता का कुछ भी मूल्यांकन नहीं करते. ज्ञान, तर्क, नम्रता, सज्जनता, सहनशीलता से उन्हें अनीति के दु:खदाई मार्ग पर से पीछे नहीं हटाया जा सकता.
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