शिक्षा
हमने शिक्षा से भीतर अंतर्मन को बदलने के बजाय बाहर के आवरण को बदलना शुरू किया.
सुदर्शनजी महराज (फाइल फोटो) |
हमारे भीतर अविद्या, अहंकार, अज्ञान का घटाटोप अंधेरा छाया रहा और हमने शरीर के बाहर हीरे-मोती जड़कर अपने तन-मन को प्रकाशित करने का प्रयास किया. यही भूल हो गई हमसे. शिक्षा का बाहर से कुछ लेना-देना नहीं है. बाहर के लिए तो सूचनाएं हैं, सूचना से हम तन को सजा सकते हैं, लेकिन मन को नहीं सजा सकते हैं. मन के लिए आंतरिक शिक्षा चाहिए. आज जो शिक्षा की स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि चाहे हम जितनी भी शिक्षा प्राप्त कर लें, इस शिक्षा से हमारे अंर्तमन में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता.
इस शिक्षा से हम जीवन का रूपांतरण नहीं कर सकते हैं. तन को सजाने से मन को नहीं सजाया जा सकता. इसी मन की आंखों को खोलने की आवश्यकता है. भगवान महावीर भी यही कहते थे कि बाहर जो कुछ भी तुम्हें दिख रहा है, वह भ्रम है. क्योंकि संसार में सब कुछ केवल ऊर्जा है, ऊर्जा का ही घनीभूत रूप पदार्थ है, जो सदैव रूप बदलता रहता है.
सत्य का दर्शन करना हो तो भीतर चलो, बाहर की सभी यात्रा बंद करो. भीतर से बाहर की ओर यात्रा में तुम्हें सुख मिलेगा. शरीर की प्रकृति ही ऐसी है कि बाहर से जब भी तुम भीतर प्रवेश करना चाहोगे तो प्रकृति विरोध करेगी, शरीर विरोध करेगा. शरीर कभी भी किसी विजातीय वस्तु को स्वीकार नहीं करता. कोई कांटा शरीर में चुभ जाए तो शरीर उसे अस्वीकार कर देता है, बाहर धकेल देता है.
लेकिन शरीर के भीतर से जब कुछ निकलता है तो वह स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाता है, शरीर से पसीना तो निकलता है, लेकिन बाहर से पानी शरीर में जल्द नहीं घुस सकता. बाहर से कोई व्यक्ति सूट-बूट में हो, देखने में भला आदमी लगता हो, लेकिन आप गारंटीपूर्वक नहीं कह सकते कि वह भला आदमी है. किसी पशु को आते देखकर आप आसानी से कह सकते हैं कि यह पशु है, लेकिन किसी मनुष्य को आते देखकर कहना मुश्किल है कि वह मनुष्य है. यही अंतर आधुनिक और प्राचीन शिक्षा में है.
किसी शिक्षित दिखने वाले व्यक्ति को देखकर आप नहीं बता सकते कि यह शिक्षित होगा. क्योंकि बाहर के आवरण को देखकर बताना मुश्किल है कि भीतर क्या हो रहा है? सोने के कलश में अगर जहर भरा हो तो सोना का गुण उस जहर में नहीं आ जाता.
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