महानता
मानवीय विकास का वास्तविक स्वरूप निर्धारित करना हो, तो यह मानकर नहीं चला जा सकता कि मनुष्य शरीर पाने तक ही उसकी अंतिम परिधि है.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
उसे विकासोन्मुख होने के लिए शरीरगत जीवन यापन को भी सब कुछ न मानकर अपनी सत्ता चेतना के साथ जोड़नी पड़ेगी, जो इस ब्रrांड पर अनुशासन करती और अंतराल को सुविकसित, स्वच्छ बना लेने वालों पर अपनी उच्च स्तरीय अनुकंपा बरसाती है.
साथ ही मनुष्य को इस प्रकार का चिंतन अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करती है कि उसके अंतराल में अति महत्त्वपूर्ण क्षमताओं का भी भंडार भरा पड़ा है, जिसे थोड़ा विकसित कर लेने पर वह काया की दृष्टि से यथावत रहते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से महानतम बन सकता है. इस अध्यात्म विकास के तत्वज्ञान के अनुरूप चेतना को विकसित, परिष्कृत, समर्थ, विलक्षण बनाने का द्वार मनुष्य शरीर मिलने के उपरांत खुलता है.
इससे पूर्व तो वह मात्र जीवधारी ही बनकर रहता है. उसे प्रकृति पर अनुशासन करने, उसे अपने अनुकूल बनाने की विद्या का ज्ञान तक नहीं होता. प्रकृति पर परमात्मा का स्वामित्व है. दूसरा हस्तांतरण उसके युवराज मनुष्य को उसकी परिपक्वता विकसित होते ही उपलब्ध होने लगता है.
यह दूसरी बात है कि वह उस अनुदान का कितनी बुद्धिमत्ता के साथ किन प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करता है. विकास की मानवीय परत में उभरते ही उसे आत्मबोध की एक नई उपलब्धि हस्तगत होती है.मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदाता है. मनुष्य अपने भाग्य निर्माता आप है. वह प्रकृति की कठपुतली मात्र नहीं है. अन्य प्राणियों की तरह मात्र निर्वाह ही उसकी एक मात्र आवश्यकता नहीं है.
वरन व्यक्तित्व का स्तर उठाकर जीवन सज्जा को, अनेक उपलब्धियों-विभूतियों से अलंकृत करना भी एक विशिष्ट उद्देश्य है. जब तक यह विचारणा नहीं उठती, तब तक वस्तुत: मनुष्य नर-पशु ही रहता है और मानसिक तृष्णाओं तक ही उसकी गतिविधियां सीमित रहती हैं. विकास की दृष्टि से पेड़ की ऊंचाई एक सीमा तक बढ़ती जाती है. यह सीमा पूरी होने पर उसका फैलाव एवं मोटाई की अभिवृद्धि होती है और फल-फूल लगने लगते हैं.
योनियों की दृष्टि से हाथी, सिंह, व्हेल आदि का विस्तार तथा प्रभाव बढ़ा-चढ़ा है पर शारीरकि संरचना और मानसिक स्तर की दृष्टि से मनुष्य ही मूर्धन्य है. इसीलिए उसे सृष्टि का शिरोमणि कहा जाता है.
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