होली
होली के दिन कोई कपड़े पर रंग डाल जाता है तो दिल दुखता है जबकि दिल को खुश होना चाहिए कि किसी ने रंग डालने योग्य माना.
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
आज हम भारत के समाज को गरीब कह सकते हैं, हालांकि बिड़ला भी मिलेंगे. लेकिन बिड़ला के कारण भारत का समाज अमीर नहीं हो सकता. सुदामा के कारण उस दिन का समाज गरीब नहीं हो सकता. संपन्न समाज में उत्सव प्रवेश कर सकता है, गरीब समाज में नहीं. लेकिन गरीब समाज उत्सव भी मनाता है, दीवाली भी मनाता है, तो कर्ज लेकर मनाता है.
होली भी खेलता है तो पिछले वर्ष के पुराने कपड़े बचाकर रखता है. अब जब होली ही खेलनी है तो फटे-पुराने कपड़ों से खेली जा सकती है. तो मत ही खेलो. होली का मतलब ही यह है कि कपड़े इतने ज्यादा हैं कि रंग में भिगोए जा सकते हैं. लेकिन, गरीब आदमी भी होली तो खेलेगा, लेकिन वह पुराने ढांचे को ढो रहा है सिर्फ नहीं तो होली के दिन, जो सबसे अच्छे कपड़े थे, वही पहन कर निकलते थे लोग.
उसका मतलब ही था कि तुम रंग डालो! लेकिन जिससे हम रंग डलवाने जा रहे हैं, उसको भी धोखा दे रहे हैं. कपड़ा पुराना, सी-सी कर आ गए हैं, धुलवा कर आ गए हैं. रंग डालने वाले को धोखा दे रहे हैं. रंग डालने का मतलब ही क्या था? इसलिए दिल दुखता है. होली के दिन कोई कपड़े पर रंग डाल जाता है तो दिल दुखता है. दिल खुश होना चाहिए कि किसी ने रंग डालने योग्य माना, लेकिन दिल दुखता है. दुखेगा, क्योंकि कपड़े भारी महंगे पड़ गए हैं.
हां, पश्चिम में होली खेली जा सकती है. अभी कृष्ण का नृत्य चल रहा है, आज नहीं कल होली पश्चिम में प्रवेश करेगी, इसकी घोषणा की जा सकती है. पश्चिम होली खेलेगा. अब उनके पास कपड़े हैं, रंग है, समय है, फुर्सत भी. उनकी होली में आनंद होगा, उत्सव होगा, जो हमारी होली में नहीं हो सकता. संपन्नता से मेरा मतलब है, ऑन द होल, पश्चिम का समाज संपन्न हुआ है.
और जब पूरा समाज संपन्न होता है, तो जो उस समाज में दरिद्र होता है वह भी उस समाज के संपन्न से बेहतर होता है जो समाज दरिद्र होता है. यानी आज अमेरिका का दरिद्रतम आदमी भी पैसे पर उतना पकड़ वाला नहीं है, जितना हिंदुस्तान का संपन्नतम आदमी है. हिंदुस्तान के अमीर से अमीर-आदमी की पैसे पर पकड़ इतनी ज्यादा है, होगी ही क्योंकि चारों तरफ दीन-दरिद्र समाज है. जोर से न पकड़े तो कल वह भी दीन-दरिद्र हो जाएगा.
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