ईर्ष्या का शमन
ईर्ष्या मनुष्य के चरित्र के पराभव का छठा द्वार है. यह ऐसा मनोविकार है, जिससे मनुष्य का मौलिक व्यक्तित्व बुरी तरह आहत हो जाता है.
![]() आचार्य सुदर्शन जी महाराज (फाइल फोटो) |
ईर्ष्या एक भयानक मनोरोग है, जो अकारण मनुष्य को दंडित करती रहती है. इसके कारण मनुष्य का सारा व्यक्तित्व विकृत हो जाता है, उसकी अपनी क्रियात्मक शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे उसके अपने व्यक्तित्व को कुछ लेना-देना नहीं रहता है. ईर्ष्या हमेशा दूसरों के कारण होती है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति खुद से ईर्ष्या नहीं करता, उसके लिए दूसरे का होना आवश्यक है.
अकेला व्यक्ति कभी भी ईर्ष्या का शिकार नहीं बनता, उसके सामने जब दूसरा आ जाता है तब उसकी जलन बढ़ जाती है. समाज में, घर या मोहल्ले में जब आदमी रहता है तो उसके मन में न ईर्ष्या होती है, न कोई जलन होती है. आदमी अकेले वर्षो रह सकता है, लेकिन कभी भी वह ईर्ष्या का पात्र नहीं बनता, लेकिन ज्योंही दूसरा उसके बगल में बैठ जाता है तो ईष्या शुरू हो जाती है.
दरअसल, कोई भी व्यक्ति दूसरे को सहन नहीं कर सकता. वह चाहे राजनीति का क्षेत्र हो, धर्म का क्षेत्र हो, समाज या परिवार का हो, कहीं भी हम दूसरे को स्वीकार करके लिए तैयार नहीं हैं. सारा गड़बड़ तब शुरू होता है, जब कोई दूसरा बगल में खड़ा हो जाता है. केवल दूसरे के होने से हम ईर्ष्या के दंश को झेलने लगते हैं. साधक कभी ईर्ष्या नहीं करता, क्योंकि वह साधना के क्षेत्र में अकेला होता है. कभी-कभी तो हम ऐसे लोगों से ईर्ष्या करने लगते हैं, जिन्हें हम पहचानते तक नहीं हैं.
कई बार तो हम अपने बगल के मकान से ईर्ष्या करने लगते हैं, दूसरे के शानो-शौकत से ईर्ष्या करने लगते हैं, दूसरे की पत्नी और बेटा से ईर्ष्या करने लगते हैं और सबसे बुरी बात तो यह है कि हम दूसरे की उन्नति देखकर ईर्ष्या करने लगते हैं. ईर्ष्या करने वाला व्यक्ति अध्यवसायी नहीं होता, परिश्रम नहीं करता, हमेशा आग में जलता रहता है. दूसरे की उन्नित और प्रगति देखकर जलने वाला कभी जीवन में यशस्वी नहीं हो सकता.
यश, मान, मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा आदि मनुष्य को अपने कर्मों से मिलता है. ईष्यालु व्यक्ति बिना परिश्रम के फल खाना चाहता है. इसलिए भक्त कभी दूसरे की ओर नहीं देखता, हमेशा अपनी ओर देखता है. हमेशा दूसरे के बारे में सोचने वाला कभी आत्मचेतना को विकसित कर बुद्ध, महावीर व ईसा मसीह नहीं बन सकता. इसलिए बाहर भागने की बजाय भीतर जाओ.
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