Vat Savitri Vrat 2023: अखंड सौभाग्य का व्रत वट सावित्री, जानिए महिलाओं के लिए क्यों है खास...

Last Updated 19 May 2023 01:20:23 PM IST

वट सावित्री व्रत भारतीय नारी की प्रबल इच्छाशक्ति का परिचायक है जिसके बल पर सावित्री अपने पति को मृत्यु के मुख तक से छुड़ा लेती है।


भारतीय संस्कृति में प्रचलित यह व्रत पतिव्रता नारी के सर्वोत्कृष्ट आदर्श का पर्याय माना जाता है। कथानक पौराणिक कथानक के अनुसार मद्र देश के राजा अश्वपति की कोई संतान न थी। संतान की प्राप्ति के लिए उन्होंने अठारह वर्षों तक सावित्री देवी की कठोर साधना की। उनकी तपश्र्चया प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें कन्या प्राप्ति का वरदान दिया।

सावित्री देवी की कृपा से जन्म लेने के कारण राजा ने अपनी परम रूपवती और विदुषी पुत्री का नाम सावित्री रखा। विवाह योग्य होने पर उन्होंने कन्या को स्वयं अपना वर तलाशने का निर्देश दिया।

पिता की आज्ञानुसार सावित्री पति की तालश में निकल पड़ी। यात्रा के दौरान एक दिन उसकी भेंट साल्व देश के निर्वासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से हुई। औपचारिक भेंट के दौरान सावित्री सत्यवान के व्यक्तित्व और बौद्धिक ज्ञान से बेहद प्रभावित हुई और उसने मन ही मन सत्यवान का पति के रूप में वरण कर लिया और वापस घर लौट कर उसने पिता से अपना निर्णय बताया।
राजा अश्वपति ने जब नारद मुनि से इस विवाह ने लिए कुंडली मिलान का निवेदन किया तो उन्होंने ग्रहों की गणना कर सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी परंतु सावित्री अपने निर्णय पर अडिग रही और सत्यवान से विवाह कर पिता का महल छोड़ पति की झोपड़ी में आकर रहने लगी।

चूंकि उसे पूर्व से ही पति की अल्पायु का बोध था इसलिए वे पहले दिन से ही पति की दीर्घायु के लिए एकनिष्ठ मन से साधनारत हो गई। धीरे-धीरे मृत्यु का निर्धारित समय आ पहुंचा। निश्चित तिथि को पति एवं सास-ससुर की आज्ञा ले सावित्री भी उस दिन पति के साथ जंगल में फल-मूल और लकड़ी लेने को चल दी।

वृक्ष से लकड़ी काटते समय अचानक सत्यवान के सिर में भंयकर पीड़ा होने लगी तो वह पेड़ से उतर कर वटवृक्ष के नीचे लेट गये। सावित्री पति का सिर अपनी गोद में रख आंचल से पंखा झलने लगी। मगर कुछ ही पलों में पति के देह चेतना शून्य हो गयी।

तभी सावित्री ने लाल वस्त्र पहने भयंकर आकृति वाले भैंसे पर सवार यमराज को सामने देखा। उन्होंने सावित्री से कहा-तू महान पतिव्रता स्त्री है, इसलिए मैं स्वयं तेरे पति के प्राणों को लेने आया हूं। यह कहकर वे सत्यवान के प्राणों को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये।

सावित्री भी सत्यावान को वट वृक्ष के नीचे लिटाकर यमराज के पीछे चल दी। यमराज ने सावित्री से लौटने का आदेश दिया। प्रत्युत्तर में सावित्री की धर्मयुक्त बातों से प्रसन्न यमराज ने उसके सास-ससुर की नेत्रज्योति, दीर्घायु, खोये राज्य की प्राप्ति के साथ शतपुत्रवती होने का वरदान दिया। तब अपने वाक्चातुर्य से यमराज को निरुत्तर कर देने वाली सावित्री ने उनसे कहा-देव पति के बिना आपका अंतिम वरदान कैसे सफल होगा?

इस तरह सावित्री ने अपने ज्ञान, विवेक और पतिव्रत धर्म के बल पर पति के प्राणों को अपने मृत्युपाश से छुड़ा लिया। तात्विक दृष्टि से वट वृक्ष दीर्घायु और अमरत्व का प्रतीक माना जाता है।

भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। पाराशरमुनि ने ‘‘वट मूले तोपवासा’ कह कर वटवृक्ष की महत्ता बतायी है।

पुराणों में कहा गया है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत, कथा आदि कहने-सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। जब से वटवृक्ष के नीचे सत्यवान का पुनर्जीवन हुआ, तभी से सुहागिन स्त्रियों द्वारा अपने सुहाग की रक्षा के लिए वट सावित्री व्रत की परंपरा पड़ गयी।

पूजन विधान पौराणिक विवरण के अनुसार सुहागिन स्त्रियों को प्रात: काल स्नान कर पूजन स्थल के पवित्र जल का पूरे घर में छिड़काव करना चाहिए। इसके उपरान्त सोलह श्रृंगार कर बांस की टोकरी में सप्त धान्य भरकर ब्रह्मा और उनके बायीं ओर देवी सावित्री की और सत्यवान मूर्ति स्थापित कर इन टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे स्थापित किया जाता है।

तत्पश्चात सुहागिन स्त्रियां सर्वप्रथम पात्र में जल लेकर वट वृक्ष के नीचे खड़े होकर यह कहते हुए- ‘‘ज्येष्ठ मात्र कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को अमुक वार को मैं अपने पति की दीर्घायु और आरोग्यता के लिए वट-सावित्री व्रत का संकल्प लेती हूं’ कहते हुए जल से वटवृक्ष का अभिषेक करती हैं।

तत्पश्चात धूप-दीप, सिंदूर, रोली, अक्षत, फूल, भिगोया हुआ चना, मौसमी फलों और मिठाई आदि सामग्री से विधि-विधान से पूजा फिर जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार परिक्रमा की जाती है।

तदोपरान्त बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री व्रत की कथा सुनें। फिर भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, धन और वस्त्र देकर कर सास-ससुर के चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद लें। पूजा समाप्ति पर वस्त्र और फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर ब्राह्मणों को दान करें।
 

समय लाइव डेस्क
नई दिल्ली


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