’अग्निपथ‘ पर विवाद नहीं, संवाद की जरूरत
बदलते वक्त के साथ देश का कदमताल सुनिश्चित करने के लिए साहसिक फैसले लेने के मामले में वाकई मोदी सरकार का कोई जवाब नहीं है।
’अग्निपथ‘ पर विवाद नहीं, संवाद की जरूरत |
जहां तक मेरी स्मृतियां जाती हैं, मुझे देश की कोई ऐसी पूर्ववर्ती सरकार या उसका शीर्ष नेता दिखाई नहीं पड़ता, जिसकी इस सरकार या इसके मुखिया प्रधानमंत्री मोदी से तुलना की जा सके। सेना में नियुक्ति की अग्निपथ योजना को भी मैं ऐसा ही नवाचार मानता हूं। बेशक, इसके गुण-दोष में संवाद की काफी गुंजाइश हो सकती है, इसे जमीन पर उतारने की व्यावहारिकता को लेकर पक्ष-विपक्ष में कई दलीलें दी जा सकती हैं, वक्त बीतने के साथ नफे-नुकसान पर नई बहस भी शुरू हो सकती है लेकिन मौजूदा वक्त में मुझे यह वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप और देश की जरूरत के हिसाब से लिया गया फैसला दिखता है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बदलती दुनिया के साथ बहुत कुछ तेजी से बदला है और जंग का रंग भी इस बदलाव से अछूता नहीं रहा है। आज जंग इंसानों से नहीं हथियारों से लड़ी जाती है और तकनीक की तरक्की का आलम यह है कि हो सकता है भविष्य में जंग लड़ने के लिए मैदान में सैनिक उतारने की जरूरत ही खत्म हो जाए। जिसके पास जितने आधुनिक हथियार होंगे, पलड़ा उसका ही भारी होगा। इस लिहाज से पारंपरिक तौर-तरीकों पर आधारित हमारी सैन्य व्यवस्था को बड़े बदलाव की आवश्यकता है। चीन के बाद हमारे पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है। लेकिन दुनिया भर की सेनाएं इस समय अपने सैनिकों की संख्या में कटौती कर उसे अधिक आधुनिक बनाने पर जोर दे रही हैं। चीन ने तो यह काम साल 1980 में ही शुरू कर दिया था और पिछले 42 साल में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जवानों की संख्या 45 लाख से घटकर 20 लाख रह गई है।
अब तक हम सैनिकों की बड़ी संख्या को ही सेना की ताकत का आधार मानते रहे हैं। इसका नतीजा निकला है कि आज एक बड़ी सेना और चीन एवं अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा रक्षा बजट भी हमारे देश की समुचित सुरक्षा के लिए अपर्याप्त लगने लगा है। वजह यह है कि हम इस बजट का 35 फीसद से भी कम हिस्सा आधुनिक तकनीक और हथियार खरीदने पर खर्च कर रहे हैं क्योंकि बजट का 65 फीसद हिस्सा तो वेतन, पेंशन और स्थापना चलाने में ही खर्च हो जाता है। 2013-14 में पेंशन पर सेना का खर्च वेतन का 82.5 फीसद था, लेकिन 2020-21 तक आते-आते यह 125 फीसद से ज्यादा हो गया। इस आंकड़े को यहां प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य यह सवाल खड़ा करना नहीं है कि सेवानिवृत्त सैनिकों को पेंशन क्यों दी जा रही है, बल्कि यह समझ बनाना है कि हम दरअसल, देशसेवा में योगदान दे चुके अपने सैनिकों पर उन सेनानियों से ज्यादा खर्च कर रहे हैं, जो इस समय देशसेवा के प्रणके साथ सीमाओं पर डटे हैं। ऐसी व्यवस्था बिल्कुल व्यावहारिक नहीं है।
अग्निपथ योजना ऐसी तमाम दिक्कतों का व्यावहारिक निदान प्रस्तुत करती है। चार साल की सीमित अवधि के लिए युवाओं को सेना में भर्ती करने से वेतन और पेंशन के खर्च में कमी आएगी। इससे जो पैसा बचेगा वो सेना के आधुनिकीकरण में काम आएगा। अग्निपथ योजना में हर साल नियमित रूप से 46 हजार नए सैनिकों की भर्ती की जाएगी जो भारी बेरोजगारी के आज के दौर में सरकार और देश, दोनों के लिए राहत की बात होगी। चार साल बाद एक तरफ 25 फीसद अग्निवीरों का तो सेना में कॅरियर का सपना सच हो जाएगा, जो 75 फीसद समाज में वापस लौटेंगे उनके पास मानसिक दृढ़ता, अनुशासन और तकनीकी ज्ञान की ऐसी पूंजी होगी जो उन्हें अपने हमउम्र कई उम्मीदवारों से हर परीक्षा में आगे रखकर सरकारी, निजी या फिर कॉरपोरेट जगत में रोजगार की उनकी दावेदारी को मजबूत करेगी। वैसे भी सीआरपीएफ, असम राइफल्स और कई प्रदेशों में पुलिस और अन्य सेवाओं में उन्हें वरीयता मिलनी ही है। सेवा पूरी करने के बाद मिलने वाले करीब 12 लाख रु पये के फंड की बहुत चर्चा हो रही है, लेकिन मैं जानबूझकर इस पर बात नहीं कर रहा हूं क्योंकि यह कोई पुरस्कार राशि नहीं, बल्कि सैनिकों का अधिकार है, और जिसका आधा हिस्सा सेवाकाल के दौरान बहाए उनके पसीने की कमाई का होगा।
इस योजना की सबसे बड़ी तारीफ तो यह है कि यह हमारे सशस्त्र बल को पहले से कहीं अधिक जवान और ताजादम कर देगी। 23 साल या उससे कम आयु के जवानों की नियमित भर्ती अगले छह वर्षो में सेना की औसत आयु को 32 से घटाकर 26 कर देगी। इस योजना को लेकर कई वगरे में हुई बातचीत से इस धारणा का भी आभास मिलता है कि सीमित अवधि के लिए शामिल होने वाले व्यक्ति प्रभावी सैनिक नहीं हो सकते, पर यह पूरी तरह से गलत हो सकता है। चीन या रूस और किसी अन्य देश के समर्पित सैनिक इसका प्रमाण हैं। अग्निवीर के रूप में शामिल होने वाले भी प्रतिनियुक्त सैनिक न होकर स्वयंसेवक होंगे जो पहले से सेवारत सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेंगे।
लेकिन जैसे सरकार की किसी भी नई योजना की अपनी खूबियां और खामियां होती हैं, वैसे ही टूर ऑफ द ड्यूटी या अग्निपथ योजना भी इसका अपवाद नहीं है। सेना में आम तौर पर जवान एक लंबे और सुरक्षित कॅरियर के लिए भर्ती होते हैं। ऐसे में चार साल के लिए कितने लोग आगे आएंगे, इस पर कोई दावा करने से पहले इंतजार कर लेना ठीक होगा। यह बात भी गले से उतारना थोड़ा मुश्किल लगता है कि जिस वक्त जवान उपकरणों की बारीकियों को ठीक से समझ रहे होंगे, लगभग वही वक्त सेवा से उनकी विदाई का भी होगा। उपकरणों की युद्ध क्षमता के लिहाज से यह सेना के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। तमाम दावों के बावजूद इस मानवीय तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जिन जवानों का चयन हो जाएगा, उनमें से एक बड़ा-छोटा हिस्सा निश्चित रूप से अनिश्चित भविष्य की असुरक्षा का शिकार होगा जो उसके सेवाकार्य को प्रभावित कर सकता है। यहां सवाल प्राथमिकता और गारंटी के फर्क का है क्योंकि हर जगह सेना से बाहर होने वाले अग्निवीरों को रोजगार में प्राथमिकता की ही बात हो रही है, गारंटी वाली सुरक्षा कोई नहीं दे रहा है। इससे जुड़ा एक और सवाल सेना से समाज में लौटने वाले अग्निवीरों के गलत हाथों में पड़कर देश के लिए खतरा बन जाने का है।
बेशक, इस आशंका को खारिज करने के लिए दलील दी जा रही है कि अब तक ऐसा कोई भी वाकया सामने नहीं आया है जिसमें सेवानिवृत सैनिक अपनी राह से भटका हो लेकिन साथ में एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की अनदेखी की जा रही है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि ये वो सैनिक हैं, जिनका भविष्य पेंशन मिलने के कारण सुरक्षित है। सरकार को देर-सबेर अग्निवीरों को भी प्राथमिकता के आश्वासन की जगह रोजगार की गारंटी का कवच देने के बारे में सोचना पड़ सकता है। बड़ा सवाल यह भी है कि अगर आर्थिक वजहों से देश को अपनी सैन्य सेवा में कटौती की जरूरत आन पड़ी है, तो यह कितना जायज है कि सांसद या विधायक अलग-अलग पेंशन का सुख भोगते रहें? लेकिन इन तमाम किंतु-परंतु के बीच फिलहाल का बड़ा सवाल तो यही है कि इस योजना को लेकर देश के युवा जिस ‘अग्निपथ’ पर बढ़ चले हैं, वहां से उनकी वापसी की राह कब और कैसे तैयार होगी?
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