अभिव्यक्ति का अधिकार, मंथन की दरकार

Last Updated 12 Jun 2022 12:03:50 AM IST

पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ तत्कालीन बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल की विवादित टिप्पणी को लेकर पिछले कुछ दिनों से देश के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन किए जा रहे हैं।


अभिव्यक्ति का अधिकार, मंथन की दरकार

इसकी शुरुआत पिछले शुक्रवार को देश के एक शहर (कानपुर) में हिंसक प्रदर्शन से हुई और वही आग इस शुक्रवार तक आते-आते 12 राज्यों में फैल गई। जहां दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और गुजरात में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे, वहीं झारखंड के रांची, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, पश्चिम बंगाल के हावड़ा और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से कम-ज्यादा हिंसा हुई। हावड़ा में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय को फूंक दिया गया जबकि रांची में गोलियां चलीं और प्रयागराज में पथराव हुआ।

पहली नजर में तो यह प्रदर्शन विरोध की स्वाभाविक अभिव्यक्तिदिखाई पड़ते हैं। पैगंबर मुहम्मद को अपमान पहुंचने से किसी भी मुस्लिम धर्मावलंबी का आहत होना किसी भी नजरिए से गलत नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन विरोध में हिंसा पर जरूर सवाल उठते हैं। थोड़ा और गहराई में जाने पर यह सवाल भी उठता है कि वाकये के करीब दो हफ्ते बाद ऐसा कौन सा कारक है जिसने आग को भड़काने का काम किया है। कानपुर की घटना का संबंध तो पीएफआई से जुड़ रहा है, क्या देश भर में हुए प्रदर्शन के पीछे भी ऐसी ही किसी साजिश का हाथ सामने आएगा? हालांकि इस संभावना को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि संभवत: इस प्रदर्शन के पीछे घटना की वैश्विक  निंदा ने भी प्रदर्शनकारियों को हौसला देने का काम किया हो।

खासकर खाड़ी देशों, कुवैत और कतर की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली रही। कतर ने तो भारत सरकार से सार्वजनिक माफी की मांग तक कर डाली। कतर की देखा-देखी कुवैत ने भी भारतीय राजदूत को तलब कर लिया। इस तरह की तत्काल एवं तीखी प्रतिक्रियाओं और बाद में हंगामे के पीछे धार्मिंक दबाव के अलावा एक कारण अरब जगत के भीतर शक्ति समीकरण और भारत के साथ उनके संबंध भी हो सकते हैं। कतर लगातार इस्लामिक सहयोग संगठन के नेता के रूप में उभरने की कोशिश में है और इसके लिए वो भारत से अधिक तवज्जो चाहता है, जबकि हाल के वर्षो में भारत की संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ नजदीकियां ज्यादा गहरी हुई हैं। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के आंकड़े भी बताते हैं कि कतर के साथ भारत का व्यापार सऊदी की तुलना में 185 प्रतिशत कम है, जो वर्तमान में इस्लामी दुनिया में मुसलमानों की आवाज है।

बहरहाल, इस विवाद में कारोबार की ज्यादा बात विषयांतर होगी, लेकिन यह जानना महत्त्व का विषय जरूर है कि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं का सामना कैसे कर रही है? यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है कि एक राजनीतिक नेता, भले ही वो सत्ताधारी पार्टी से संबंधित हो, की टिप्पणी पर देश की सरकार कैसे जवाबदेह हो सकती है? इन सबके बीच विदेश मंत्रालय ने साफ कर दिया है कि पैगंबर मोहम्मद के बारे में विवादास्पद टिप्पणी सरकार के विचारों को नहीं दशर्ती है, और टिप्पणी करने वालों के खिलाफ संबंधित सक्षम संस्थाओं की ओर से कठोरतम कार्रवाई कर दी गई है।

यह प्रतिक्रिया पिछले आठ वर्षो से ‘सबका साथ, सबका विकास’ के मूलमंत्र पर काम कर रही सरकार की सोच से मेल भी खाती है। अब तो यह सोच ‘सबका प्रयास और सबका विश्वास’ की भावना से भी समृद्ध हो रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं भारतीय समाज में सभी धर्मो और परंपराओं के सम्मान और स्वीकृति की विरासत के पैरोकार हैं। कई अवसरों पर तो वो मुखरता के साथ इस पर अपना पक्ष भी रख चुके हैं। धार्मिंक बहुलवाद की धारणा से उपजी सर्वधर्म समभाव की यह चेतना हमारे संविधान की भी पहचान है। धार्मिंक बहुलवाद अनिवार्य रूप से कहता है कि सबसे पहले, सभी धर्मो को यह स्वीकार करना चाहिए कि कुछ सत्य अन्य धर्मो में भी मौजूद हैं, जिससे यह घोषित होता है कि यह केवल उनका अपना धर्म नहीं है, जो ‘एकमात्र सत्य’ है।

अपने प्रवक्ताओं को अपदस्थ करते हुए बीजेपी ने भी कमोबेश इसी तरह की सोच का समर्थन किया है। हालांकि ‘फ्रिंज एलिमेंट’ पर बखेड़े के साथ ही यह सवाल भी अनुत्तरित है कि कार्रवाई में इतना समय क्यों लग गया? दोनों नेताओं को उनकी अपमानजनक टिप्पणियों के तुरंत बाद हटा दिया जाता तो विवाद के नकारात्मक नतीजों से बचा जा सकता था। वैसे यही बात देश में रह-रहकर उठने वाले विवादित धार्मिंक मुद्दों और उनके बहाने पोषित हो रहे ‘हेट स्पीच’ के दौर को लेकर भी कही जा सकती है।

खैर, इस मामले में एक अच्छी बात यह हुई है कि देर से ही सही भड़काऊ बयानों पर लगाम लगाने की शुरु आत होती दिख रही है। दिल्ली पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज की हैं,  जिनमें नूपुर शर्मा से लेकर एआईएमआईएम चीफ असद्दुदीन ओवैसी और यति नरसिंहानंद समेत 33 लोगों का नाम शामिल किया गया है। पुलिस पर कुछ लोगों के खिलाफ दबाव में कार्रवाई के आरोप में सच्चाई हो भी सकती है और ऐसे लोगों के साथ न्याय होना चाहिए लेकिन इसका सकारात्मक पक्ष यह भी है नेता चाहे धार्मिंक हों या राजनीतिक, नफरती बयान देने से पहले अब कम-से-कम एक बार उसके संभावित खामियाजे के बारे में जरूर सोचेंगे।

वैसे सोचने की जरूरत उन मीडिया चैनलों को भी है जो परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इस आग को भड़काने का माध्यम बन रहे हैं। इन चैनलों पर रोज प्राइमटाइम के बहाने होने वाली सांप्रदायिक बहस देश, समाज, धर्म और संस्कृति का कोई भला नहीं कर रही है, बल्कि विभाजनकारी तत्वों को ही एक मंच दे रही है। बहस में आमंत्रित मेहमानों के विचारों को उनके निजी विचार बताकर भी मीडिया चैनल अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। एक दिन उनसे भी यह सवाल पूछा ही जाएगा कि जो मेहमान बार-बार भड़काऊ बयान देते हैं, उन्हें ही बार-बार आमंत्रित करने के पीछे चैनलों की आखिर, क्या मजबूरी है? इस दिशा में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने बाकायदा औपचारिक बयान जारी कर कुछ राष्ट्रीय न्यूज चैनलों को जान-बूझकर कमजोर समुदायों और उनकी मान्यताओं के प्रति नफरत फैलाने का जिम्मेदार ठहराया है। बेहद तीखी टिप्पणी करते हुए गिल्ड ने इन चैनलों को अपनी टीआरपी और मुनाफा बढ़ाने के लिए ‘रेडियो रवांडा’ के मूल्यों से प्रेरित बताया है। 1994 में रेडियो रवांडा का भड़काऊ प्रसारण इस अफ्रीकी राष्ट्र में महज 100 दिनों में 8 लाख से ज्यादा लोगों के संहार का कारण बना था।

बेशक, हमारे देश में ऐसी किसी स्थिति के सच होने का अंदेशा बिल्कुल भी न दिखाई देता हो, लेकिन हालिया घटनाओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नए सिरे से चर्चा की स्थिति अवश्य बना दी है। सार्वजनिक और राजनीतिक स्तर पर सुसंगत अभिव्यक्ति के लिए तीन बातें अनिवार्य हैं। पहली यह कि जो बात कही जानी है वो कानूनी दायरे में हो। दूसरी यह कि ऐसी राजनीतिक संस्कृति हो जो किसी भी तरह की सांप्रदायिक लामबंदी का विरोध करती हो। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि समाज में ऐसे मानदंड हों जिनमें विनम्रता की भावना के साथ ही यह जागरूकता भी हो कि यदि समाज के लिए कुछ विनाशकारी है, तो खुद पर बंदिश लगाने की स्वतंत्रता के लिए भी किसी दूसरे की अनुमति का इंतजार न करना पड़े। फिलहाल, हम इन तीनों पैमानों पर आदर्श स्थिति से काफी दूर हैं।

उपेन्द्र राय


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