कश्मीरियत का इम्तिहान

Last Updated 11 Jun 2022 01:24:56 AM IST

कश्मीर एक बार फिर गलत वजहों से सुर्खियों में है। अनुच्छेद 370 निष्क्रिय किए जाने के बाद जिस तेजी से स्थितियां सामान्य हुई थीं, उसी तेजी से बीते कुछ समय में हालात बिगड़े भी हैं। टारगेटेड किलिंग का नया दौर शुरू कर आतंकी जैसे संदेश दे रहे हैं कि कश्मीर में पंडितों, डोगरा हिंदुओं और प्रवासी मजदूरों की वापसी स्वागतयोग्य नहीं है।


कश्मीरियत का इम्तिहान

बीते महीनों की ज्यादातर टारगेट किलिंग में यही लोग आतंकियों के निशाने पर भी आए हैं। बेशक, केंद्र सरकार की ओर से कश्मीर में माहौल सामान्य करने की प्रक्रिया में कोई
कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है, लेकिन लगातार हो रही हत्याओं से अल्पसंख्यकों खासकर कश्मीरी पंडितों में जिस तरह की दहशत का माहौल बना है, वो जल्द दूर होता नहीं दिख
रहा है।

कश्मीर के हालात पर जितनी भी बातें हो रही हैं, उसमें ज्यादातर यही निष्कर्ष निकाला जा रहा है जैसे सब कुछ अचानक हो रहा है जबकि ऐसा नहीं है। कश्मीर में अल्पसंख्यकों की
टारगेट किलिंग तो जून, 2020 में ही शुरू हो गई थी जब अनंतनाग जिले में सरपंच अजय पंडिता की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसके बाद 2022 तक आते-आते पंजाबी
हिंदू जौहरी सतपाल निश्चय, आकाश मेहरा, राकेश पंडित, बंटू शर्मा, माखन लाल बिन्द्रू, सुपिन्दर कौर जैसे कई नाम जुड़ने से ये फेहरिस्त लगातार लंबी होती गई। बेशक इन हत्याओं
को इक्का-दुक्का बताकर माहौल को सामान्य रखने की कोशिश की गई, लेकिन 12 मई को राहुल भट को जब उनके दफ्तर में गोली मार दी गई तब से सब कुछ अचानक बदल गया।
राहुल के बाद अकेले मई महीने में ही बैंक मैनेजर विजय कुमार, शिक्षिका रजनी बाला और बिहार के प्रवासी मजदूर दिलखुश कुमार की आतंकी हत्या कर चुके हैं।
 

राहुल भट की हत्या ने एक तरह से टर्निग प्वाइंट का काम किया। इस हादसे को लेकर कई पहलुओं पर चर्चा भी हुई है, लेकिन इस चर्चा में एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पर कम या शायद
बिल्कुल भी बात नहीं हुई है। दरअसल, राहुल की हत्या के बाद आतंकियों ने उस वारदात पर एक ‘चार्जशीट’ दायर की थी जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में पीएम रोजगार पैकेज के
तहत काम करने वाले कश्मीरी पंडितों को या तो राजस्व या फिर शैक्षिक विभागों में ही नियुक्त किया जा रहा है क्योंकि भारत सरकार कश्मीर में सब कुछ बदलना चाहती है।

समस्या की जड़ है डर
दरअसल, कश्मीर में सब कुछ बदल जाने का अलगाववादियों का यही डर कश्मीर की मौजूदा समस्या की जड़ है। अनुच्छेद 370 निष्क्रिय होने के बाद घाटी की सड़कों पर रोजमर्रा की
हिंसा पर लगाम लग गई, जम्मू और कश्मीर में प्रशासन की लोगों तक पहुंच बढ़ी, विभिन्न क्षेत्रों में प्रशासन बेहतर हुआ और ढाई साल से भी ज्यादा समय में सुरक्षा बलों की कार्रवाई
के कारण किसी कश्मीरी की मौत नहीं हुई। जाहिर तौर पर हिंसा का चक्र टूटने से आतंकवादियों के मंसूबों पर पानी फिर रहा है, जिसकी बौखलाहट टारगेट किलिंग के रूप में
अभिव्यक्त हो रही है।

इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही खीर भवानी मेले में कश्मीरी मुस्लिमों और पंडितों के बीच मिलनसारिता की कसमें खाई गई हों, आए-दिन मारे जा रहे
कश्मीरी पंडितों की मातम-पुर्सी में कश्मीरी मुसलमान संख्या में सबसे ज्यादा और सबसे आगे खड़े दिखते हों, लेकिन हकीकत यह भी है कि कश्मीर का नागरिक समाज टारगेट
किलिंग की घटनाओं को लेकर शिथिल बना हुआ है। वो आज भी उसी तरह मूक दशर्क बना हुआ है, जैसा वो 1990 में था। कश्मीर में अल्पसंख्यकों के साथ जो होता है, उसके लिए
समाज के एक बड़े हिस्से के मौन समर्थन को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यह सब अकारण भी नहीं है, इसकी वजहें हैं, और कई तो वाजिब भी हैं। जो कश्मीरी पंडित
बरसों से कश्मीर में रह रहे हैं, और जिन्होंने नब्बे के दौर में भी घाटी नहीं छोड़ी, उनकी शिकायत यह है कि सरकार ने दोबारा कश्मीर में लौटे पंडितों के लिए तो सुविधाओं और
रियायतों का पिटारा जरूर खोला है, लेकिन इस तरह कभी उनकी सुध नहीं ली गई।

बहुसंख्यकों के बीच धारणा
जो बहुसंख्यक तबका है, उसके बीच बड़े पैमाने पर यह धारणा बनाई गई है कि 2019 के बाद उनका रक्षा कवच खो गया है और कश्मीरी पंडितों को मिल रही तमाम तरह की
वरीयता आने वाले समय में उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत के लिए नकारात्मक साबित होगी। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद मूल निवास प्रमाणपत्र जारी होने, भूमि
स्वामित्व अधिकारों में संशोधन, कश्मीर पंडितों के लिए संपत्ति से संबंधित मुद्दों के लिए एक ऑनलाइन पोर्टल और विशेष रूप से परिसीमन को जनसंख्यागत बदलाव लाकर कश्मीरी
पहचान को खत्म करने की लंबी योजना के रूप में देखा गया है। हालांकि ये सब नीतिगत कदम सुधारात्मक थे और असंतुलन को ठीक करने के उद्देश्य से उठाए गए थे, लेकिन
अलगाववादी समूहों के साथ-साथ कश्मीरी मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने भी इसे बाहरी ताकतों के कश्मीरी मामलों में अनावश्यक दखल के रूप में ही प्रस्तुत किया।
बहरहाल, आगे का रास्ता क्या होना चाहिए? दुनिया जानती है कि इस हिंसा के सूत्रधार पाकिस्तान में हैं, लेकिन पाकिस्तान को इसके लिए केवल लानतें भेजने से कुछ नहीं होगा।

कश्मीर में पंडित विरोधी नफरत धीरे-धीरे ही सही, एक सच्चाई बनती जा रही है और सबसे पहले हमें इसे स्वीकारना होगा। फिर हमें यह भी स्वीकारना होगा कि हर आतंकी
गतिविधि इस्लामाबाद या मुरीदके या बहावलपुर से निर्देशित नहीं होती है। उनके कई ‘हमदर्द’ हमारे कश्मीर समाज में इस तरह घुले-मिले हैं कि उनकी तलाश आसान नहीं, लेकिन
मकसद शीशे की तरह साफ है। मौजूदा हिंसा का लक्ष्य जम्मू-कश्मीर की अवाम और खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों के लोगों में अलगाव की भावना पैदा करना है। यह भावना ज्यादा
जोर पकड़ने पर बड़े पैमाने पर हिंसा भड़का सकती है। ऐसे में सुरक्षा बलों के जरिए ताकत का इस्तेमाल इसका वाजिब जवाब नहीं दिखता। जवाब राजनीतिक जमीन में तलाशने की
जरूरत है, जहां से ज्यादातर सवाल उठ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को बहाल करना इसकी शुरु आत हो सकती है। पिछले तीन साल से कश्मीरियों की शिकायत रही है कि
राज्य को तोड़ने से पहले उन्हें भरोसे में नहीं लिया गया। चुनाव करवाकर उनकी यह शिकायत दूर की जा सकती है। लोकतंत्र में उनका भरोसा लौटेगा तो अलगाववाद की भावना
लौटने की आशंका खत्म होती जाएगी।

कश्मीरी पंडितों को दिखानी होगी दृढ़ता
मौजूदा हालात में यह बात कहने में थोड़ी अटपटी लगती है लेकिन कश्मीरी पंडितों को भी अब दृढ़ता दिखानी होगी। 1990-1991 में पलायन के दौरान भी 800 से ज्यादा ऐसे कश्मीरी
पंडित परिवार थे जिन्होंने पलायन नहीं किया था। इन परिवारों ने पिछले 32 वर्षो में काफी कष्ट झेला है, लेकिन वो यह भी जानते हैं कि अपनी ‘जमीन’ छोड़ना कोई विकल्प नहीं है
क्योंकि उनके सभी दोस्त और शुभचिंतक उनके साथ वहीं पर हैं। सबके एक-दूसरे के साथ बहुत अच्छे संबंध हैं और अगर वे पलायन करते हैं तो वे सब खो देंगे। बेशक, डर का
माहौल है, लेकिन यह सबके लिए है, यहां तक कि मुस्लिम परिवारों के लिए भी। बल्कि उनके लिए तो ज्यादा है क्योंकि कई बार तो उन्हें तो आतंकवादियों और सुरक्षा बलों दोनों
तरफ से क्रोध का सामना करना पड़ता है। बेशक, इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर में सुरक्षा की स्थिति बीते कुछ समय में खराब हो गई है।

बहुतों का मानना है कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से, पंडितों और मुसलमानों को समान रूप से विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है। जिस तरह के हालात हैं
उसमें हर कश्मीरी को आतंकवादी के रूप में लेबल नहीं किया जा सकता। हां, आतंकवादी भी होते हैं, लेकिन इनके और आम लोगों के बीच तो फर्क करना होगा, जो शायद शांति के
अलावा कुछ नहीं चाहते। कश्मीर के बाहर भी, कई हिंदू मुसलमानों को उनके धर्म के लिए मार रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसके लिए पूरे धर्म को बदनाम किया
जाए। इसी तरह, अगर कश्मीर में आतंकवाद है, तो हर मुसलमान को निशाना नहीं बनाया जा सकता। यह केवल कश्मीरियत को पीछे धकेल कर अलगाववाद को ही बढ़ावा देगा जो
आतंकियों का मंसूबा भी है। इसलिए अब इम्तिहान कश्मीरियत का भी है। ‘मिशन कश्मीर’ के एक सिरे पर अलगाव है, तो दूसरे पर लोकतंत्र से लगाव।                     

उपेन्द्र राय


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