कश्मीर को फिर स्वर्ग बनाने का हो ’टारगेट‘

Last Updated 05 Jun 2022 12:17:48 AM IST

कश्मीर में क्या वक्त आगे बढ़ने के बजाय वापस पीछे लौट रहा है?


घाटी में टारगेट किलिंग की लगातार बढ़ती घटनाओं के बाद वहां के अल्पसंख्यक हिंदू और सिख समुदाय के बड़े पैमाने पर शुरू हुए पलायन को लेकर ये सवाल उठा है। हालांकि सरकार न तो पलायन की पुष्टि कर रही है, न उसका खंडन लेकिन पलायन की प्रवृत्ति अब कश्मीर की ऐसी सच्चाई बनती जा रही है जिसे झुठलाना आसान नहीं रह गया है। दावा तो यहां तक है कि अल्पसंख्यकों के कई रहवासी इलाकों में बड़ी संख्या में लोगों के घरों पर एक बार फिर साल 1990 की तरह अनिश्चितकाल के लिए ताले लटक गए हैं।

हालांकि टारगेट किलिंग के इस ताजा दौर की तुलना 90 के दशक से करना शायद जल्दबाजी भी हो सकती है, लेकिन ये भी तथ्य है कि उस समय भी काला दौर अचानक नहीं आया था। तब भी आतंकियों ने कुछ इसी तरह चुन-चुनकर कश्मीरी हिंदुओं की हत्याएं की थी। फिर अचानक तेजी से हालात बिगड़े और 19 जनवरी, 1990 की वो मनहूस रात भी आई जब स्थानीय मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से कश्मीरी पंडितों को ‘घाटी छोड़ो या फिर मरो’ वाला फरमान सुनाया गया, जिसके बाद हजारों कश्मीरी पंडितों को जान बचाने के लिए अपना सब कुछ पीछे छोड़कर सामूहिक पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। आज के हालात बेशक उतने खौफनाक न हों, लेकिन डरावने अतीत की यादों को हवा देने के लिए काफी हैं। जीवन की अनिश्चितता से आशंकित पलायन कर रहे अल्पसंख्यकों में बड़ी संख्या नौकरीपेशा में लगे उन कश्मीरी पंडितों की है जो मांग कर रहे हैं कि अगर उनका सुरक्षित जगह पर तबादला नहीं किया गया तो वे अपनी नौकरी तक से इस्तीफा दे देंगे। ये नौकरियां घाटी में उनकी बसाहट बढ़ाने के लिए शुरू किए गए पीएम विशेष पैकेज के तहत दी गई है। सरकार फिलहाल इस मांग को पूरा करने के लिए तैयार नहीं दिख रही है। शुक्रवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में हुई उच्चस्तरीय बैठक में तय हुआ है कि कश्मीरी पंडितों के कथित पलायन को हर कीमत पर रोका जाएगा और उन्हें घाटी में ही पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करवाई जाएगी। साथ ही आतंकवाद पर सख्त केंद्रीय गृह मंत्री ने संकेत दिए हैं कि सरकार टारगेट किलिंग कर रहे आतंकी समूहों और ओवर ग्राउंड वर्कर्स के खिलाफ कड़े कदम उठाएगी।

ऐसे में एक और सवाल यह उठता है कि सरकार जो कह रही है, उसे जमीन पर उतारना कितना आसान या मुश्किल रहने वाला है? आखिर सरकार ऐसा क्या करने जा रही है जो उसने अभी तक नहीं किया? और अगर सरकार के पास ऐसा कोई प्लान है तो उसे अभी तक अमल में क्यों नहीं लाया गया? टारगेट किलिंग की घटनाओं में भले ही अभी तेजी आई हो, लेकिन ये कोई कल की घटना भी नहीं है। कश्मीरी पंडितों और गैर-कश्मीरियों को चुन-चुनकर मारने की घटनाएं तो साल 2021 की शुरु आत से ही शुरू हो गई थीं जब श्रीनगर में कृष्णा ढाबा के मालिक आकाश मेहरा को उनके रेस्त्रां में ही गोली मार दी गई। आगे चलकर इस ‘खूनी लिस्ट’ में मशहूर दवा कारोबारी माखनलाल बिंदरू, स्कूल की प्रिंसिपल सुपिंदर कौर, शिक्षक दीपक भी जुड़े, जिन्हें महज हिंदू नाम होने के कारण मौत के घाट उतार दिया गया। बीते साल आतंकियों ने घाटी में कम-से-कम 35 सिविलियन की हत्या की। ये सिलसिला इस साल भी जारी है और अब तक 17 टारगेटेड किलिंग हो चुकी है। अकेले मई के महीने में ही मुस्लिम महिला टीवी कलाकार अमरीन भट, राहुल भट, रजनीबाला और विजय कुमार समेत नौ लोग आतंकियों के निशाने पर आकर अपनी जान गंवा चुके हैं। यह महज संयोग नहीं है कि घाटी में एक बार स्थितियां ऐसे समय में बदतर हुई है, जब केंद्र ने देश के साथ कश्मीर के संबंधों को बदलने की एक नई शुरुआत की है। साल 2019 में जम्मू-कश्मीर के राज्य और विशेष संवैधानिक दर्जे की समाप्ति के साथ ही घाटी में कुछ समय की शांति के बाद आतंकी हिंसा का एक नया दौर शुरू हो गया। जाहरि तौर पर टेरर फंडिंग के खिलाफ एजेंसियों की कार्रवाई से आतंकियों और पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं में बौखलाहट है। कश्मीरी पंडितों के लिए चलाए गए सरकार के घर वापसी अभियान ने उनकी इस बौखलाहट को और बढ़ाया है।

कश्मीरी पंडितों को घाटी में दोबारा बसाने के लिए सरकार ने प्रधानमंत्री पैकेज के जरिए उन्हें नौकरियां देने की मुहिम शुरू की। इसका मकसद उनके पुनर्वास के साथ ही कश्मीर घाटी को एक बार फिर देश की मुख्यधारा में वापसी सुनिश्चित करना है। पीएम पैकेज जॉब्स के अंतर्गत बड़ी संख्या में महिलाओं और पुरु षों ने घर वापसी भी की। सरकार के अनुसार इस योजना के तहत कुल 6,000 पोस्ट में से 5,928 पोस्ट भरी जा चुकी हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर अब खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं और वापस लौट जाना चाहते हैं। एक तरह से आतंकी अल्पसंख्यकों को यह संदेश देने में कामयाब होते दिख रहे हैं कि घाटी में उनका स्वागत नहीं है। हिंसा की हर हरकत, हर नागरिक की मौत इस बात को पुख्ता करती है कि पुलिस का कश्मीर में हालात सामान्य करने का दावा हकीकत के करीब नहीं है। प्रत्यक्ष तौर पर जम्मू-कश्मीर प्रशासन पीड़ितों के परिवारों को आश्वासन या उन लोगों को सुरक्षा की भावना प्रदान करने में सक्षम नहीं दिख रहा जिन्हें डर है कि उन्हें अगला निशाना बनाया जा सकता है। जिस तरह से आतंकी चुन-चुनकर मौत बांट रहे हैं, वो किसी लोकल मॉड्यूल की मदद के बिना संभव नहीं हो सकता। इसका मतलब यह है कि उग्रवाद में स्थानीय लोगों के घटते रुझान की बात में संशय बना हुआ है। ऐसे में अब यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि घाटी में पर्यटकों की आमद वहां की सुरक्षा स्थिति का कोई संकेतक नहीं है, न ही यह उग्रवाद के खिलाफ तैयार हो रहे किसी लोकप्रिय जनमानस का प्रतीक है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने सख्ती नहीं दिखाई या इस ओर कोई प्रयास नहीं किया है, लेकिन कश्मीर की असली समस्या को समझ कर ही घाटी में हो रही हत्याओं को रोका जा सकता है। जैसे खुफिया और लोकल नेटवर्क को सक्रिय और मजबूत करना, सेना के साथ अन्य सुरक्षा बलों की मौजूदगी दिखानी, अनुच्छेद 370 हटने के बाद पुलिस के घटे महत्व को फिर से बहाल करना, अल्पसंख्यकों के इलाकों में पेट्रोलिंग मुस्तैद करने जैसी प्रक्रियाओं को तो गति देने की जरूरत है ही, लेकिन इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर विश्वास बहाली के कुछ पुख्ता कदम भी उठाने होंगे। ये कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी युवाओं दोनों के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हो सकता है।

बदले हालात में कश्मीरी युवा फिर मुख्यधारा से दूर हटता दिख रहा है जिससे उनका आतंकियों के पाले में जाने का खतरा बना हुआ है। इसका एक पक्ष जम्मू-कश्मीर में जमीन और सरकारी नौकरियों के संबंध में केंद्र द्वारा लागू की गई नीतियों से भी जुड़ता है जिसे स्थानीय लोग अपने लिए नुकसानदेह मानते हैं। इससे बढ़ रही अलगाव की भावना का अलगाववादी और पाकिस्तान समर्थित आतंकी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को अपनी कश्मीर नीति पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत पड़ सकती है। सरकार को कश्मीर में जिहादी मानसिकता से निपटने के लिए प्रशासन के साथ स्थानीय तंत्र का भी बेहतर तरीके से इस्तेमाल करना होगा, जबकि ऐसा इस वक्त नहीं हो रहा है। एक महत्त्वपूर्ण पहल दोबारा राजनीतिक संवाद शुरू करने की भी हो सकती है। कश्मीर की मुख्यधारा के राजनीतिक नेतृत्व की घाटी में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों समुदायों में राजनीतिक पैठ और विसनीयता है और यह ऐसी हकीकत है जिसे लंबे समय तक नकारना घाटी में लोकतंत्र और लोक-जीवन तंत्र दोनों नजरिए से नुकसानदेह हो सकता है।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment