सबके साथ से होगा पर्यावरण संरक्षण

Last Updated 04 Jun 2022 06:45:18 AM IST

देश में मानसून की दस्तक पर पसरे असमंजस के बीच गर्मी अभी भी लोगों के पसीने छुड़ा रही है। दक्षिण के कुछ हिस्से को छोड़ दिया जाए तो शेष भारत में भले ही तापमान में कुछ गिरावट दर्ज हुई हो, लेकिन कई राज्यों में गर्म हवाओं के तेवर अब भी तीखे बने हुए हैं।


सबके साथ से होगा पर्यावरण संरक्षण

गर्मी के मौसम में सूरज की तपिश का यह अंदाज भारत के लिए नया नहीं है, लेकिन इस बार रिकॉर्डतोड़ तापमान के बीच लोगों को जिस बड़ी तादाद में लू और गर्म हवाओं के थपेड़े
झेलने पड़े, वो वाकई अस्वाभाविक है। केवल भारत ही नहीं, मौसम की इस मार से दुनिया के अधिसंख्य देश परेशान हैं। विश्व पर्यावरण दिवस के मुहाने पर खड़ी दुनिया के सामने
मौसम के इस बदले मिजाज ने अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है।

भारत की बात करें, तो इस साल देश में 280 बार लू चली जो पिछले 12 साल का रिकॉर्ड है। आम तौर पर गर्मी के मौसम में तापमान की बढ़त धीरे-धीरे दर्ज होती है, लेकिन इस
बार मौसम की शुरु आत में ही पारा रिकॉर्डतोड़ ऊंचाई पर पहुंच गया। मार्च महीने का अधिकतम तापमान 122 साल में सबसे ज्यादा रहा। शुरु आती लू का दायरा 15 राज्यों तक
फैला जिससे हिमाचल प्रदेश जैसा राज्य भी नहीं बच पाया, जो पीढ़ियों से इस मौसम में गर्मी से राहत देने के लिए देशवासियों की पसंदीदा जगहों में शामिल रहा है। 15 मई को
भारत मौसम विज्ञान विभाग के कई ऑब्जर्वेटरी केंद्रों पर तापमान 45 से 50 डिग्री सेल्सियस के बीच दर्ज हुआ। ग्लोबल वार्मिग और मौसमी बदलाव

हालांकि मौसम विशेषज्ञ अब तक इस बदलाव में ग्लोबल वार्मिग की भूमिका का कोई सटीक विवरण नहीं दे पाए हैं, लेकिन आपसी संबंध काफी स्पष्ट हैं। भारत समेत दक्षिण एशिया
में प्रचंड गर्मी का यह दौर अब दशकों में एक बार आने वाली घटना नहीं रही, बल्कि साल-दर-साल की नियमित पहचान बनती जा रही है। निश्चित रूप से ग्लोबल वार्मिग की इसमें
प्रमुख भूमिका है, लेकिन यह अकेली वजह भी नहीं है। बढ़ती जनसंख्या और इसके कारण संसाधनों पर बढ़ते दबाव का अपना रोल है। वनों की कटाई और परिवहन को चलाने के
लिए ईधन का बेतरतीब उपयोग स्थिति को और खराब कर रहा है।

गर्मी बढ़ाने में कंक्रीट की बनी सड़कें और इमारतों का भी बड़ा हाथ है जिसके कारण सतह पर उठे बिना गर्मी अंदर फंस जाती है, जो हवा को और गर्म करती है। अंतर्राष्ट्रीय सांचे में
फिट होने की होड़ में आज देश की ज्यादातर इमारतों में आधुनिक शैली के लिए स्थानीय जलवायु और देसी संसाधनों को नजरअंदाज किया जा रहा है। मोटी दीवारों और आंगनों के
लिए पारंपरिक मिट्टी के ब्लॉक के उपयोग की तुलना में स्टील और कंक्रीट का उपयोग कर गगनचुंबी इमारतें बनाना वैसे भी तेज और आसान होता है। विभिन्न क्षेत्रों के मौसम के
अनुकूल आवास के लिए हजारों वर्षो में विकसित की गई स्थानीय परंपराओं को त्यागने का नतीजा यह हुआ है कि बेंगलूरु हो या गुरु ग्राम, मैनचेस्टर हो या न्यूयॉर्क, सभी जगह की
इमारतें एक जैसी दिखती हैं, और गर्मी से निजात पाने के लिए एसी को ही सर्वमान्य हल मान लिया गया है।

जलवायु परिवर्तन में एकरूपता चिंताजनक
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में यह एकरूपता दरअसल, एक बहुत बड़ी चूक बनती जा रही है। एक अमेरिकी स्टडी के अनुसार दफ्तरों और घरों में धड़ल्ले से चल रहे एसी स्थानीय
तापमान को लगभग दो डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ा सकते हैं। यह आने वाले वर्षो में भारत के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में केवल 8 फीसद
भारतीयों के घरों में एयर कंडीशनर थे। सरकार के नेशनल कूलिंग प्लान के मुताबिक यह आंकड़ा 2038 तक 40 फीसद तक बढ़ने की उम्मीद है।

इस साल के शुरुआती पांच महीनों में देश ने और भी दूसरी असामान्य स्थितियों का अनुभव किया है। अरब सागर के किनारे बसे होने के बावजूद मुंबई ने भी इस बार असामान्य
गर्मी झेली जिसकी बड़ी वजह अरब सागर में जनवरी-फरवरी में अफगानिस्तान और पाकिस्तान से चली धूल भरी आंधी रही। मार्च में भारत के आसपास के महासागरों में दो
उष्णकटिबंधीय कम दबाव के क्षेत्र भी बने, जो कि साल की शुरुआत में दुर्लभ हैं।

सवाल केवल गर्मी का ही नहीं है, देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण दखल रखने वाले मानसून की चाल भी लगातार टेढ़ी होती गई है। हाल के वर्षो में दक्षिण-पश्चिम मानसून के रु
झानों से पता चला है कि अनिश्चित होती जा रही बारिश का दरअसल, अब सामान्यीकरण हो चुका है। मानसून 2021 इसकी सबसे ताजा मिसाल है। पिछले साल जून में जब
पश्चिमी हिमालय अत्यधिक वष्रा से हलकान था, तब मध्य और दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से में सूखे के हालात बन रहे थे। अगस्त, 2021 ने तो 1901 के बाद से छठा सबसे सूखा
महीना बनकर इतिहास रच दिया। 24 फीसद कम बारिश के साथ मानसून अगस्त में ही एक तरह से ‘गायब’ हो गया और देश को साल 2009 के बाद पहली बार व्यापक सूखे का
सामना करना पड़ा। पिछले 126 वर्षो में पहाड़ी राज्यों में बादल फटने की संख्या में भी तेज वृद्धि हुई है। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल का विश्लेषण बताता है कि
पिछले साल ऐसे कई मौके आए जब उत्तराखंड में जून से सितम्बर के दौरान बादल फटे।

भारत संवेदनशील देश
इन बदलावों ने भारत को वैिक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के लिए 5वां सबसे संवेदनशील देश बना दिया है। आज 80 फीसद से ज्यादा भारतीय आबादी अत्यंत जलवायु-संवेदनशील
जिलों में रह रही है। 1901-2018 के दौरान भारत का औसत तापमान लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। तापमान में वृद्धि से गंभीर नुकसान के बीच कार्य उत्पादकता में भी
कमी आई है, जिसने जीवन और आजीविका दोनों को बुरी तरह प्रभावित किया है।

इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई भी दे रहे हैं। किसानों का कहना है कि तापमान में अप्रत्याशित उछाल ने उनकी गेहूं की फसल को प्रभावित किया है। यूक्रेन युद्ध के कारण आपूर्ति
में व्यवधान होने से इसके संभावित वैिक परिणाम भी हो सकते हैं। गर्मी ने बिजली की मांग में भी वृद्धि की है, जिससे कई राज्यों में तो बिजली ही गुल हो गई है, और इस संकट
के बीच कोयले की कमी की आशंका भी खड़ी हो गई है। बढ़ते तापमान के कारण आग का जोखिम भी कम नहीं हो पा रहा है।

नवीकरणीय ऊर्जा के लिए प्रतिबद्धता
बेशक, पिछले एक दशक में सरकार की ओर से जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना और पेरिस समझौते जैसी महत्त्वाकांक्षी पहल हुई है, जिसके नतीजे में देश ने क्षअय
ऊर्जा क्षेत्र में काफी प्रगति की है। भारत ने सार्वजनिक रूप से 2030 तक अपनी आधी ऊर्जा नवीकरणीय संसाधनों से उत्पन्न करने की प्रतिबद्धता दिखाई है, और तब तक 500
गीगावाट नवीकरणीय क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य है। यह एक बहुत बड़ा उपक्रम है, जो आज लगभग मौजूदा 150 गीगावाट की क्षमता को देखते हुए एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य दिखता
है। भारत ने पिछले पांच वर्षो में सौर-उत्पादन क्षमता में 11 गुना वृद्धि की है। दुनिया के अन्य बड़े देशों की तुलना में यह काफी तेज तरक्की है, लेकिन देश के अपने तय किए लक्ष्य
से यह फिलहाल काफी कम है।

स्पष्ट है कि हम इस समय अभूतपूर्व पर्यावरणीय चुनौतियों के दौर में हैं, जहां जलवायु व्यवधान, जैव विविधता को पहुंच रहा नुकसान और कई स्तर पर फैला प्रदूषण न सिर्फ  सतत
विकास की प्रकिया को बाधित कर रहा है, बल्कि मानवता के जीने के अधिकारों को भी प्रभावित कर रहा है। पर्यावरण बचाने के लिए जल्द ही कुछ करने को लेकर दुनिया में
जागरूकता तो बढ़ी है, लेकिन दुनिया की उम्र बढ़ाने वाली समावेशी पहल अभी भी दूर की कौड़ी जान पड़ती है। पांच दशक से पर्यावरण को बचाने की चुनौती पर चल रहे मंथन के
बाद दुनिया के तमाम देश एक बार फिर किसी हल की उम्मीद में स्टॉकहोम में जुटे हैं। एक अरब से अधिक जनसंख्या, विशाल प्राकृतिक संसाधन, नवाचार क्रांति और लंबे अनुभव के
कारण जाहिर तौर पर भारत न केवल इस कवायद का नेतृत्व कर सकता है, वरन इसकी सफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकता है।

उपेन्द्र राय


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