रोजगार, राजनीति और विरोध का ‘अग्निपथ’
सशस्त्र बलों में सुधार के मकसद से लाई जा रही अग्निपथ योजना के ऐलान के बाद से ही शुरू हुआ हिंसक विरोध अब कुछ थमता सा नजर आ रहा है। इसकी बड़ी वजह योजना को लेकर छाए भ्रम का काफी हद तक दूर हो जाना है। सरकार ने पहले अपने स्तर पर और फिर भारतीय सेना के तीनों प्रमुखों की मदद से युवाओं को समझाने का प्रयास किया है कि यह योजना उनके हक में है और इसका विरोध नहीं, बल्कि इसको समझने की जरूरत है।
रोजगार, राजनीति और विरोध का ‘अग्निपथ’ |
लगता है कि सरकार की यह पहल बेकार नहीं गई है। हालांकि इसके बावजूद अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि युवाओं का आक्रोश और विपक्षी राजनीतिक धारा का प्रतिरोध बिल्कुल खत्म ही हो गया है। प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस ने 27 जून को एक बार फिर देश भर में सड़कों पर उतरकर इस योजना को वापस लेने की युवाओं की आवाज में अपनी आवाज मिलाने का निर्णय किया है।
अग्निपथ योजना को लेकर मोटे तौर पर यह समझ बनी है कि इसके तहत सशस्त्र बल चार साल के लिए जवानों का चयन करेंगे और उसके बाद पूर्ण सेवा के लिए ऐसी भर्ती में से 25 फीसद को बनाए रखेंगे। नई नीति से प्रमुखतया दो लक्ष्य साधे जाएंगे-पहला, सैन्य बलों की औसत आयु को कम करना और दूसरा, पेंशन व्यय के ग्राफ को नीचे लाकर उसका उपयोग सशस्त्र बल का आधुनिकीकरण कर उसे मजबूत और आधुनिक चुनौती के लिए सक्षम बनाना।
इन दोनों लक्ष्यों को लेकर देश में कमोबेश आम सहमति है। सारा झगड़ा उन बचे हुए 75 फीसद जवानों के भविष्य पर है, जो चार साल बाद सशस्त्र बलों से वापस कर दिए जाएंगे। बेशक, इसके लिए पिछले कुछ दिनों में कई ऐलान हुए हैं लेकिन मानना पड़ेगा कि इनमें से न तो किसी विकल्प की तुलना सेना के जरिए देश सेवा से मिलने वाले गौरव से की जा सकती है, न ही कोई विकल्प सेना की नौकरी के बाद तमाम सुविधाओं के साथ आजीवन मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा जितना आकषर्क है। बेशक, सरकार भी इस मोर्चे पर विचार कर रही होगी। नहीं कर रही होती तो अधिकतम उम्र की समय सीमा भी नहीं बढ़ाती, न ही ऐलान के बाद योजना में दूसरे कुछ और संशोधन किए गए होते।
विरोध को पूरी तरह नहीं किया जा सकता खारिज
इसके बावजूद योजना पर हो रहे विरोध को पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। कुछ तर्क हैं जो वाकई गौर करने लायक हैं। जैसे अग्निपथ योजना का लक्ष्य है कर्मचारियों पर निर्भरता कम कर तकनीक की तरफ बढ़ना। तकनीक जमीन पर सैनिकों की जगह ले सकती है और ले भी रही है। अफगानिस्तान से लेकर यूक्रेन तक हर हालिया युद्ध इसका उदाहरण हैं। लेकिन एक सवाल यह भी है कि कहीं अग्निपथ के जरिए सेना अनुभवहीन सैनिकों की फौज तो नहीं हो जाएगी। चार साल बाद जब जवान तकनीकी युद्ध कौशल से बेहतर तालमेल बैठाने की स्थिति में होंगे, तो उनमें से ज्यादातर को आगे जाने के बजाय नये रंगरूटों के लिए पीछे हटना होगा।
शायद यही वजह है कि कुछ पूर्व सैन्यकर्मिंयों ने भी कहा है कि महज चार साल की ड्यूटी से हमें महाभारत जीतने वाले अर्जुन नहीं मिलेंगे, बल्कि यह योजना ऐसे अभिमन्यु तैयार करेगी जो जीवन के चक्रव्यूह में उलझ सकते हैं। तर्क यह है कि समाज को हर साल हथियारों की आधी-अधूरी ट्रेनिंग लिए सेना से खारिज किए गए और बिना नौकरी से निराश करीब 40 हजार (75 प्रतिशत) युवाओं को समाहित करना होगा जो किसी दृष्टि से अच्छा विचार नहीं है। यह आशंका गलत भी साबित हो सकती है, लेकिन अभी तक ऐसी कोई ठोस दलील भी सामने नहीं आई है, जो समाज के इस तरह हो सकने वाले सैन्यीकरण के खतरे को दूर करे।
विरोध की एक वजह यह भी है कि इस सुधार में बड़ी भूमिका किसकी है-सैन्य बलों की आवश्यकता या राजनीतिक अर्थव्यवस्था की विफलता? आरोप है कि मौजूदा सत्तारूढ़ सरकार ने ही लोक सभा चुनाव में सशस्त्र बलों के पेंशन के मुद्दे का राजनीतिकरण किया था जिसके बाद वन रैंक वन पेंशन योजना लागू हुई जो सुधार के बजाय देश पर एक बड़ा वित्तीय बोझ बन गई। विपक्ष अब सवाल उठा रहा है जब अग्निपथ योजना पर दशकों से काम चल रहा था और पेंशन का व्यय सेना के आधुनिकीकरण की राह का रोड़ा बन रहा था, तो सरकार अब देश को बताए कि वन रैंक, वन पेंशन पर आगे बढ़ने के पीछे उसकी असल योजना क्या थी?
राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर नहीं होनी चाहिए राजनीति
बहरहाल, पुराना वक्त हो या वर्तमान दौर, राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन ऐसा हो रहा है, और दोनों तरह से देखा जाए तो यह राजनीतिक तंत्र की विफलता ही कही जाएगी कि स्थिति साफ करने के लिए सशस्त्र बलों के अधिकारियों को आगे आना पड़ा है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह चुके हैं कि बड़े सुधार की शुरु आत खराब लग सकती है, लेकिन सुधारों का रास्ता ही हमें नये लक्ष्यों की ओर ले जा सकता है। बेशक, प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर अग्निपथ योजना का जिक्र नहीं किया है, लेकिन उनका इशारा बहुत स्पष्ट है। और ऐसा प्रधानमंत्री ने पहली बार नहीं कहा है। दिसम्बर, 2015 में संयुक्त कमांडरों के सम्मेलन में दिया गया उनका संबोधन याद कीजिए-‘ऐसे समय में जब प्रमुख शक्तियां अपने बलों को कम कर रही हैं, और प्रौद्योगिकी पर अधिक भरोसा कर रही हैं, हम अभी भी अपनी सेना के आकार का विस्तार करने की लगातार मांग कर रहे हैं। एक ही समय में बलों का आधुनिकीकरण और विस्तार एक कठिन और अनावश्यक लक्ष्य है। हमें ऐसी सेना की जरूरत है जो चुस्त, गतिशील और प्रौद्योगिकी से प्रेरित हो, न कि केवल मानवीय वीरता दिखाने वाली हो।’ यानी जो आज हो रहा है प्रधानमंत्री ने उसका इशारा सात साल पहले कर दिया था। इसलिए एक बात तो कम-से-कम नहीं कही जा सकती कि यह योजना आनन-फानन में लाई गई है।
एक और बात जो सरकार के आलोचक भी मानेंगे कि पिछले कुछ वर्षो में रक्षा क्षेत्र में एक बदलाव आया है, और कई सुधार लाए गए हैं। आजाद भारत में भारतीय रक्षा बलों में सुधार के लिए ऐसी प्रतिबद्धता दुर्लभ है। सरकार ने भारत के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति और सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) बनाने सहित कई सुधारों की नींव रखी है। 101 रक्षा उपकरणों पर आयात प्रतिबंध लगाकर जहां सरकार ने रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की मुहिम को बड़ी ताकत दी है, वहीं देश भर में 41 आयुध कारखानों के बेहतर प्रबंधन के लिए आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण भी किया गया है। सरकार ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास को सक्रिय करने से लेकर सीमा के बुनियादी ढांचे में तेज वृद्धि और महिलाओं के लिए भी सशस्त्र बलों के द्वार खोल दिए हैं। निजी क्षेत्र को अधिक भागीदारी का प्रोत्साहन मिलने से दुनिया में भारत की छवि रक्षा आयातक के बजाय अब रक्षा निर्यातक देश की बन रही है। सरकार की सोच यही है कि रक्षा क्षेत्र को मजबूत किए जाने की जो मुहिम शुरू की गई है, उसे अग्निपथ योजना एक नया आयाम देगी।
अग्निपथ योजना को लेकर सशस्त्र बलों में नौकरी की शत्रे, भत्ते और चार साल की नौकरी के बाद समाज में वापसी के तौर-तरीकों पर सरकार और सेना, दोनों तरफ से कई चीजें साफ की जा चुकी हैं। लेकिन इनसे इतर भी कुछ बातें हैं जिन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। योजना के विरोध में हिंसक प्रदशर्न के कारण सार्वजनिक संपत्तियों को हुए नुकसान पर योगी आदित्यनाथ के ‘बुलडोजर मॉडल’ के तहत सख्त कार्रवाई की चर्चा चल रही है। मेरा मानना है कि इस पर सावधानी से आगे बढ़ने की जरूरत है। माफियाओं या असामाजिक तत्वों और आक्रोशित युवाओं को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता, तौला भी नहीं जाना चाहिए। इसलिए उन पर कार्रवाई को लेकर नजरिया भी भिन्न होना चाहिए अन्यथा यह गेहूं के साथ घुन के भी पिस जाने जैसी बात हो जाएगी।
रोजगार के सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता
यह भी समझना महत्त्वपूर्ण है कि विरोध प्रदशर्नों को खारिज करके रोजगार से जुड़े सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। जनसांख्यिकीय क्षमता या अपनी बड़ी आबादी का लाभ उठाने के मामले में हम पिछले कुछ वर्षो से चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। देश में रोजगार के अवसरों पर दस्तक देने वाले काबिल युवाओं की संख्या तो लगातार बढ़ रही है, लेकिन इस दस्तक की समुचित सुनवाई नहीं हो पा रही है। स्किल इंडिया की पहल सही दिशा में उठाया गया कदम था, लेकिन इसके परिणाम आशाओं पर खरे नहीं उतर सके। कोविड महामारी के बाद के दौर में मैन्युफैक्चरिंग जैसे कई सेक्टर भी अपेक्षित उछाल दर्ज नहीं कर पाए हैं। ऐसे में बेरोजगारी लगातार बढ़ती गई है, और निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा सामाजिक और सांप्रदायिक अशांति फैलाने में उनके इस्तेमाल की आशंका भी बढ़ी है। ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर में लागू हो रही अग्निपथ योजना हर साल हाई स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त करने वाले 40 से 50 हजार युवाओं को एक सम्मानित रोजगार तो देगी, लेकिन जो नौजवान सेना से लौटेंगे उनका पुनर्वास एक संवेदनशील मसला बना रहेगा।
साफ तौर पर अग्निपथ योजना की सफलता देशभक्ति और देश और सशस्त्र बलों के प्रति कर्त्तव्य के स्तंभों पर टिकी है। इसके राजनीतिकरण का कोई भी प्रयास विनाशकारी और सशस्त्र बलों के भीतर ध्रुवीकरण की वजह बन सकता है। ऐसे में सरकार और सैन्य नेतृत्व की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे सैन्य बलों में बड़ी संख्या में युवाओं के लिए द्वार खोलने वाली इस महत्त्वाकांक्षी योजना की सफलता सुनिश्चित करने में कोई कोर-कसर न छोड़ें।
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