सेनापति बन गया ’सेना‘ का दुश्मन

Last Updated 26 Jun 2022 06:47:00 AM IST

महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट में सियासत का एक बड़ा सबक है। राजनीति में संवाद की खिड़की बंद हो जाए, तो सियासी असंतोष का दरवाजा खुल जाता है।


सेनापति बन गया ’सेना‘ का दुश्मन

महाराष्ट्र में तो यह दरवाजा ऐसा खुला है कि सरकार के सिर से छत और पैरों के नीचे से जमीन तक खिसक गई है। राज्य की महाविकास अघाड़ी सरकार पर यह संकट गठबंधन के प्रमुख घटक शिवसेना में हुई बगावत की वजह से आया है। बगावत के सूत्रधार सरकार के प्रमुख मंत्री एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र से हजारों किलोमीटर दूर गुवाहाटी में डेरा डाले हुए हैं, जहां उनका साथ देने वाले बागी विधायकों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। हालांकि जिस संख्या का शिंदे दावा कर रहे हैं, उसके हिसाब से सरकार को अब तक गिर जाना चाहिए था। दूसरी तरफ अघाड़ी सरकार इस मामले को तकनीकी और कानूनी पहलुओं में उलझाकर लड़ाई को लंबा खींचने के मूड में है। बहरहाल, इस संकट का नतीजा जो भी निकले, जिस सबक को लेकर मैंने अपनी बात शुरू की थी वो अपनी जगह स्थापित रहेगा।

आखिर महाविकास अघाड़ी सरकार और शिवसेना को यह दिन देखने की नौबत क्यों आई? इसका जिम्मेदार खुद इस सरकार के मुखिया और सेना के सेनापति हैं, जो संयोग से एक ही व्यक्ति हैं उद्धव ठाकरे। उद्धव इन दोनों जिम्मेदारियों पर खरे नहीं उतर सके। मुख्यमंत्री के रूप में वो एक ऐसे गठबंधन का नेतृत्व कर रहे थे जो उनकी पार्टी के अधिकतर विधायक ही नहीं, शिवसेना के ज्यादातर समर्थकों की नजरों में भी एक बेमेल गठबंधन था। दूसरी तरफ शिवसेना के मुखिया होने के बावजूद वो शिवसैनिकों की तुलना में एनसीपी और कांग्रेस नेताओं के लिए ज्यादा सुलभ थे।

महाविकास अघाड़ी पर यह संकट आएगा, यह भी पहले से तय था। इसकी पटकथा तीन साल पहले तभी लिख दी गई थी जब महाराष्ट्र के लोगों ने शिवसेना और बीजेपी गठबंधन को सत्ता में लाने के लिए वोट दिया था। गठबंधन की सरकार तो बनी, लेकिन किरदार बदल गए। बीजेपी की जगह ले ली एनसीपी और कांग्रेस ने। बहुत लोग इसके लिए उद्धव ठाकरे की मुख्यमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा को जिम्मेदार मानते हैं, तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनका मानना है कि बीजेपी के ‘सियासी मंसूबों’ को लेकर उद्धव कभी पूरी तरह से आस्त नहीं रहे। 2014 में भी जब दोनों दलों ने मिलकर सरकार चलाई थी, तब साथ रहकर भी शिवसेना का उद्धव गुट बीजेपी का विरोध करता था। बहरहाल, 2019 में मौका मिलते ही उद्धव ने साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद बीजेपी से किनारा करते हुए एनसीपी और कांग्रेस की मदद से मुख्यमंत्री बनने का अपना सपना पूरा कर लिया। बहुतों ने इसे उद्धव का बीजेपी को धोखा देना करार दिया। हालांकि तथाकथित ‘धोखे वाली यह सरकार’ अपना कामकाज करती रही, लेकिन अधिकांश शिवसैनिकों को लगता रहा कि उनकी विचारधारा एनसीपी और कांग्रेस से मेल नहीं खाती है। मौके-बेमौके पर कई शिवसैनिकों ने खुलकर विरोध भी किया और यहां तक कहा कि अगर बाला साहेब जिंदा होते, तो ऐसे बेमेल गठबंधन को कभी अनुमति नहीं देते।
बात ठीक भी लगती है। जिन्होंने बाला साहेब की उग्र हिंदुत्व मार्के वाले राजनीति देखी है, वो यह देखकर ही हैरान थे कि कैसे शिवसेना की सरकार में उद्धव के मुख्यमंत्री रहते पालघर में साधुओं की लिंचिंग हुई, मुंबई पुलिस पर वसूली के आरोप लगे, बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत में ठाकरे परिवार के वंशज का नाम उछला और मस्जिद के लाउडस्पीकरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते हुए सार्वजनिक रूप से हनुमान चालीसा के पाठ पर रोक लगाने जैसे फैसले लिए गए।

दर्द इतना भर ही नहीं था। शिवसेना कैडर के बीच यह धारणा भी जड़ पकड़ रही थी कि मुख्यमंत्री भले ही उद्धव हों, लेकिन सत्ता का रिमोट शरद पवार के हाथों में है और उनके मंत्रियों की तुलना में एनसीपी-कांग्रेस के मंत्रियों को ज्यादा तवज्जो मिल रही है। बागी विधायकों ने अपने पत्र में आरोप भी लगाया कि मुख्यमंत्री उद्धव उनकी पहुंच के बाहर हो गए थे। सचिवालय वो जाते नहीं थे, मातोश्री में उनके चाटुकार उद्धव और उनके बीच दीवार बन जाते थे। एक तरह से कोटरी और कोठरी के बीच फंस कर रह गए थे उद्धव। अब वो फंसे थे या यह व्यवस्था उनकी खुद की पसंद थी, यह तो उद्धव से बेहतर कोई नहीं बता सकता।

दरअसल उद्धव के पास राजनीतिक दूरदर्शिता का भी अभाव दिखता है। जिस राजनीतिक गठबंधन को वो अपनी ताकत मान रहे थे, वैसे गठबंधन विफल होने के लिए अभिशप्त होते हैं और जो दल या उसका नेतृत्व सियासी तौर पर ‘दूरदर्शी’ होता है, वो इसका फायदा उठा लेता है जैसा कि इस मामले में एनसीपी के साथ होता दिख रहा है। इसके कई उदाहरण हैं जैसे, 2013 में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के बाद से कांग्रेस का दिल्ली से सफाया ही हो गया, 2014 में जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी का साहसिक प्रयोग उलटा पड़ गया और मुस्लिम वोट बैंक छिटकने से पीडीपी कमजोर हुई, 2015 में बिहार में नीतीश-लालू, 1993 में कांशीराम-मुलायम यादव या फिर उससे भी पहले 1989 में केंद्र में वामपंथी और बीजेपी के बीच हुए बेमेल गठबंधन का हश्र सबने देखा है। अब उद्धव को यह समझ नहीं आया या बीजेपी से खुलकर जंग करने के कारण एनसीपी-कांग्रेस उनकी मजबूरी बन गए थे, इस पर भी उद्धव ही तस्वीर साफ कर सकते हैं।

कीमत भी उद्धव ही चुका रहे हैं। आज शिवसेना के लगभग सभी क्षत्रप शिंदे खेमे में जा चुके हैं। जो ठाकरे परिवार शिवसेना का ‘छत्रपति’ रहा है, उसका छत्र अब केवल कोंकण के रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग जिले में बचा दिख रहा है। कोंकण के अलावा पश्चिम महाराष्ट्र, विदर्भ और मराठवाड़ा में अब उद्धव के खेमे में गिने-चुने विधायक ही रह गए हैं। मुंबई में भी 13 में से पांच विधायकों ने शिंदे का हाथ थाम कर उद्धव की परेशानी बढ़ा दी है। आखिर शिवसेना में उद्धव से बड़े नेता कैसे बन गए शिंदे? जो काम राज ठाकरे और नारायण राणो जैसे नेता नहीं कर पाए, उसे शिंदे ने कैसे कर दिखाया? दरअसल बाला साहेब की विचारधारा पर पले-बढ़े शिंदे बहुत पहले ही जान गए कि शिवसेना के पैरों तले से जमीन खिसक रही है। पार्टी का कोर वोटर पहले हैरान था, अब नाराज भी हो रहा था। शिंदे जान रहे थे कि सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो मतदाताओं के पास दोबारा वापस जाना असंभव होगा। उद्धव से उलट शिंदे अपनी पार्टी के विधायकों और समर्थकों से लगातार मिलते थे और हिंदुत्व विचारधारा के बारे में खुलकर बोलते थे। विधायकों ही नहीं, शिवसेना कार्यकर्ताओं को भी लगातार अहसास हो रहा था कि जब वे बीजेपी के साथ गठबंधन में थे तो उन्हें अधिक सम्मान मिलता था।

ऐसा लगता है कि अपनी बेहतर राजनीतिक समझ के कारण देवेन्द्र फडणवीस ने शिवसैनिकों की इस मनोदशा को उद्धव से पहले ताड़ लिया। सरकार चलाने का जनादेश मिलने के बावजूद विपक्ष में बैठने की मजबूरी और एक बार सरकार बनाने की कोशिश में नाकाम होने के बावजूद फडणवीस ने उम्मीद नहीं हारी और हर मौके पर गठबंधन सरकार पर निशाना साधा है। फडणवीस कुछ बड़ा करने वाले हैं इसकी भनक राज्य सभा और विधान परिषद चुनाव के नतीजों से समझ आ रही थी। जिस गोपनीय तरीके से शिवसेना के बीसियों विधायक महाराष्ट्र में उद्धव की नाक के नीचे से निकल कर सूरत और गुवाहाटी पहुंचे हैं,  उससे साफ है कि यह काम अकेले शिंदे के बूते का नहीं हो सकता। भले ही एक बार की किरकिरी के बाद इस बार छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रही बीजेपी अपने पत्ते नहीं खोल रही हो, लेकिन यह तो कोई भी समझ सकता है कि इतना बड़ा ‘सियासी ऑपरेशन’ देवेन्द्र फडणवीस की भूमिका के बिना संभव नहीं हो सकता था।

बहरहाल, राजनीतिक कुहासे में घिरी महाराष्ट्र की सियासत में एक बात स्पष्ट हो गई है। तीर-कमान शिवसेना का चुनाव चिन्ह है और चुनावी लड़ाई के लिहाज से तीर अब कमान से निकल चुका है। उद्धव ने भले अभी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया हो, लेकिन वो अब विधानसभा में शिवसेना के सर्वमान्य नेता नहीं रह गए हैं। पार्टी पर वो अपना दावा बरकरार रख पाएंगे या नहीं, यह भी अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा। हालांकि इसके लिए वो पूरा जोर लगा रहे हैं, और जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें कर रहे हैं। संवाद की खिड़की खोलने वाला यह सबक उन्होंने पहले ही याद रखा होता तो आज शिवसेना के वजूद पर सबसे बड़ा खतरा ही नहीं मंडरा रहा होता।

उपेन्द्र राय


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