विदेश नीति की ’जय‘ कार

Last Updated 08 May 2022 10:08:58 PM IST

पुरानी लकीर से हटकर अपनी नई लकीर खींचना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ऐसी खूबी रही है, जो उनके समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों को भी उनका कायल बनाती है।


विदेश नीति की ’जय‘ कार

प्रधानमंत्री के रूप में पिछले आठ साल के कार्यकाल में वो इसके कई प्रमाण भी दे चुके हैं। करीब तीन साल पहले प्रधानमंत्री ने ऐसा ही एक फैसला लिया था जिसे खालिस तौर पर ‘नई लकीर खींचने वाली श्रेणी’ में रखना शायद तर्कसंगत नहीं होगा, लेकिन उसी फैसले के परिणाम आज ‘नई लकीर’ खींचने वाले जरूर साबित हो रहे हैं।

बात मई, 2019 की है, जब अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने नौकरशाह सुब्रह्मण्यम जयशंकर को विदेश मंत्री के रूप में नियुक्त कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। बेशक, जयशंकर चार साल से विदेश सचिव जैसा अहम ओहदा संभाल रहे थे, चीन और अमेरिका में राजदूत जैसे प्रतिष्ठित पदों का अनुभव भी ले चुके थे और विदेश मंत्रालय का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे, लेकिन मंत्री पद शायद उनके लिए भी आश्चर्य की बात रही होगी। बतौर नौकरशाह अपना कॅरियर पूरा करने की ओर बढ़ रहे जयशंकर ने तो एक किताब लिखने की तैयारी शुरू कर दी थी जो बाद में साल 2020 में ‘द इंडिया वे: स्ट्रैटेजीज फॉर एन अनसर्टेन र्वल्ड’ नाम से दुनिया के सामने आई। आम तौर पर विदेश मंत्री जैसे अहम ओहदे पर बैठे व्यक्ति के मन की थाह लेना आसान नहीं होता। ऐसे व्यक्ति का पूर्व में नौकरशाह होना, इस चुनौती को और टेढ़ी खीर बना देता है, लेकिन जयशंकर की लिखी यह किताब हमें यह समझने में मदद करती है कि वो किस मिट्टी के बने हैं, और कैसे उच्चतम कार्यशैली वाले मापदंड के प्रतीक बन चुके प्रधानमंत्री की अपेक्षाओं पर भी खरे उतरकर आज वैश्विक मंच पर भारतीय कूटनीति के दृढ़ और सशक्त प्रतिनिधि बन गए हैं। उनकी किताब में लिखी एक खास बात यह है कि विश्व व्यवस्था में भारत का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है, और इसलिए हमें न केवल अपने हितों को लेकर स्पष्टता रखनी चाहिए, बल्कि उन्हें प्रभावी ढंग से संप्रेषित भी करना चाहिए। विदेश मंत्री के रूप में एस जयशंकर ने पिछले तीन साल में इसी सोच को भरपूर सफलता के साथ सच बनाकर दिखाया है। भले ही आज भी हम यह कहने की स्थिति में न हों कि हमारी कूटनीति ने वैश्विक मंच पर अपना सिक्का जमा लिया है, लेकिन यह दावा जरूर किया जा सकता है कि 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद भारत पहली बार दुनिया को यह संदेश देने में कामयाब हुआ है कि उसकी भी राष्ट्रीय हितों से प्रेरित एक स्वतंत्र विदेश नीति है, और पश्चिमी देश उसे अपनी कठपुतली समझने का भ्रम न पालें।

विदेश मंत्री के रूप में एस जयशंकर ने हाल के हफ्तों में विदेशी नेताओं से बातचीत में अन्य मुद्दों के साथ ही खास तौर पर रूस-यूक्रेन युद्ध पर जिस साफगोई के साथ महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं, शायद भारत के पक्ष को इससे बेहतर तरीके से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। रूस से सस्ता ईधन खरीदने और यूक्रेन पर आक्रमण के लिए उसकी निंदा करने को लेकर भारत पर बने दो-तरफा दबाव को तथ्यों और तकरे पर आधारित उनकी साहसिक प्रतिक्रिया ने दूर करने का काम किया है। न तो यूरोपीय संघ के देश प्रतिबंधों के बावजूद रूस से ऊर्जा संसाधनों की खरीद जारी रखने पर कोई वाजिब सफाई दे पाए, न ही समस्या के हल के रूप में रूस की निंदा या उसके राजनीतिक-आर्थिक अलगाव की सार्थकता पर नाटो के देश भारतीय सवालों की कोई काट ढूंढ पाए। रूस से दोस्ती पर झल्लाए अमेरिका ने जब कथित मानवाधिकार उल्लंघन का मुद्दा उठाकर भारत को असहज करने की कोशिश की, तब भी जयशंकर ने निजी हित, लॉबी और वोटबैंक का हवाला देते हुए अमेरिका में मानवाधिकारों पर राय बनाने की भारत की स्वतंत्रता की बात कहकर उसे ईट का जवाब पत्थर से दिया। रायसीना डायलॉग में भी जब बार-बार ‘नियम आधारित आदेश’ की आड़ लेकर उन्हें रूस-यूक्रेन युद्ध पर रुख स्पष्ट करने को कहा गया तो उन्होंने पिछले 10 वर्षो से एशिया में अफगानिस्तान के हालात, एलएसी पर चीनी घुसपैठ और आतंकवाद के प्रायोजक पाकिस्तान पर अनिश्चित स्टैंड से भारत की बढ़ रहीं चुनौतियों का हवाला देकर एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह पश्चिम के पाखंड की पोल खोल कर रख दी। जटिल मामलों के सफल और कारगर समाधान तलाशने की एस जयशंकर की खूबी ने हाल के दिनों में भारत को परेशानी का सबब बन रहे अपने पड़ोसियों पर भी बढ़त बनाने में मदद की है। जयशंकर चीन में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले भारतीय राजदूत रहे हैं, और इस अनुभव का असर है कि राजनियक मोर्चे पर इस चालबाज पड़ोसी को ढेर करने के लिए उनके पास हमेशा कोई-न-कोई सटीक रणनीति तैयार मिलती है। यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूभि में चीनी विदेश मंत्री वांग यी के भारत दौरे पर जयशंकर की स्पष्टवादिता ने चीन की रंगत को और फीका कर दिया है।

रूस पर कड़े पश्चिमी प्रतिबंध और अमेरिका से चल रहे चीन के आर्थिक शीत युद्ध के बीच वांग की यह यात्रा जाहिर तौर पर भारत से संबंध सुधारने के लिए थी, लेकिन जयशंकर ने वांग को बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट तौर पर जता दिया कि भारत-चीन संबंध ‘अब सामान्य नहीं हैं’ और इस बात को तो खास जोर देकर कहा कि जब तक एलएसी पर चीनी सैनिकों की बहुत बड़ी तैनाती रहेगी, तब तक न सीमा की स्थिति और न दोनों देशों के संबंध ‘सामान्य’ हो सकेंगे। बचा पाकिस्तान, तो विदेश मंत्री के रूप में जयशंकर ने सफलता का पहला झंडा तो उसी का शिकार कर गाड़ा था। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर नागरिकता अधिकार कानून पर भारतीय कूटनीति के कारण अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘विलाप’ करने के बावजूद पाकिस्तान को दुनिया भर में आंसू पोछने वाला कोई हमदर्द नहीं मिला। मुस्लिम देशों तक ने उससे किनारा कर लिया। ये वो समय था जब विदेश मंत्री के रूप में जयशंकर सुबह का नाश्ता एक देश में कर रहे थे, लंच दूसरे देश में और डिनर तीसरे देश में। इस मेहनत का नतीजा निकला कि एकाध देश को छोड़कर लगभग पूरी दुनिया ने इस मामले में भारत के ‘आंतरिक मुद्दे’ वाले स्टैंड का समर्थन किया। विरोध कर रहे तुर्की-मलयेशिया जैसे देश और प्रमिला जयपाल जैसे अमेरिकी सांसदों को जवाब में कड़ी प्रतिक्रिया देने में भी देर नहीं लगाई गई। ऐसे समय में जब कई भारतीय नेता या तो अपनी अज्ञानता या किसी मुद्दे का राजनीतिकरण कर भारत के विरोधियों को जाने-अनजाने लाभ पहुंचाते हैं, तब जयशंकर की स्पष्टवादिता भारत के काम आती है। सरकार की नीतियों को चीन और पाकिस्तान की बढ़ती करीबी के लिए जिम्मेदार ठहराने वाले राहुल गांधी के आरोप के जवाब में जयशंकर ने पूरी राजनीतिक शिष्टता के साथ सुझाव दिया कि राहुल गांधी को ‘इतिहास के पाठ’ की आवश्यकता है।

भारत और उसकी नीतियों को एक ठोस तरीके से समझाने की जयशंकर की इसी क्षमता ने अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कई अन्य देशों को यूक्रेनी मुद्दे पर भारत की नीतियों और स्थितियों के साथ-साथ वर्तमान वैश्विक व्यवस्था के अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम को समझने और उनकी सराहना करने के लिए प्रेरित किया है। इस स्थिति का एक आयाम यह भी है कि मोदी सरकार का उदय भारत के साहसिक पक्ष को सामने लाने की अहम वजह बना है। पीएम मोदी की व्यक्तिगत शैली मुखरता और आत्मविश्वास से खुद को अभिव्यक्त करने की रही है, लेकिन एक प्रधानमंत्री के रूप में खुद को व्यक्त करते हुए उन्हें कूटनीतिक सीमाओं का लिहाज भी करना होता है। जयशंकर अपनी स्पष्टवादिता से सफलतापूर्वक इसकी भरपाई करते हैं। यह उनकी समझ और साफगोई का ‘प्रताप’ है, जो उन्हें नरेन्द्र मोदी जैसे नेता की टीम में विदेश मंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण ओहदे का सबसे अच्छा विकल्प और भारतीय विदेश नीति की जय-जयकार के अधिकांश श्रेय का हकदार बनाती है।

उपेन्द्र राय


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