थर्मल बनाम अक्षय ऊर्जा, कुदरत ही देगी संकट से राहत

Last Updated 14 May 2022 01:09:52 AM IST

इन दिनों देश हाल के वर्षो के सबसे गंभीर बिजली संकट का सामना कर रहा है। दावा तो यहां तक है कि पिछले छह साल में देश ने बिजली की ऐसी किल्लत का सामना नहीं किया है।


थर्मल बनाम अक्षय ऊर्जा, कुदरत ही देगी संकट से राहत

बढ़ता तापमान बेशक, चिंता की एक बढ़ती वजह है, लेकिन यह समस्या का मूल आधार नहीं है। असली परेशानी है हमारे विद्युत संयंत्रों में आई कोयले की कमी। हालांकि यह कोई नई घटना नहीं है। यह कमी हर साल होती है, और सरकार थोड़ा जोर लगाकर इसकी भरपाई कर लेती है। पिछले साल अक्टूबर में भी कोयले की कमी की वजह से बिजली संकट पैदा हुआ था। उससे भी पीछे जाएं, तो पिछली गर्मिंयों में भी बिजलीघरों के पास कोयले का कुल भंडार, निर्धारित मानक के साठ से सत्तर प्रतिशत के बराबर ही था। लेकिन इस बार हालात कुछ अलग हैं क्योंकि कोयले का भंडार निर्धारित मानक के 30-33 प्रतिशत के बराबर ही रह गया है। इस समय देश भर में कोयले से चलने वाले बिजलीघरों में केवल 2.12 मिलियन टन कोयला उपलब्ध है, जो सामान्य स्तर 6.63 करोड़ टन से काफी कम है। इसका और बुरा पक्ष यह है कि देश के 173 कोयला-आधारित बिजलीघरों में से 105 में कोयले का भंडार निर्धारित मानक के 25 प्रतिशत से भी नीचे गिरकर नाजुक स्थिति में चला गया है।

बिजली के लिए कोयले पर निर्भरता
इसे नाजुक क्यों माना जा रहा है, यह समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि हम बिजली के लिए कोयले पर कितने निर्भर हैं? कोयले से उत्पन्न ऊर्जा को थर्मल पावर कहा जाता है। बिजली की कुल 396 गीगावाट की हमारी राष्ट्रीय मांग में से लगभग 210 गीगावाट यानी करीब-करीब 53 फीसद हिस्से की आपूर्ति कोयला आधारित बिजली से होती है। असामान्य परिस्थितियों में यह आंकड़ा बढ़ भी जाता है। जैसे पिछले साल सितम्बर महीने में देश के सामने जब बिजली संकट आया था तो हमारे थर्मल पावर प्लांट कुल बिजली उत्पादन में 60 फीसद तक योगदान दे रहे थे। कुछ दिनों पहले 29 मार्च से 24 अप्रैल के बीच बने असामान्य हालात के दौरान तो यह हिस्सेदारी बढ़कर 77 फीसद तक भी पहुंच गई थी। इसके बावजूद मांग के मुकाबले बिजली की सप्लाई 1.6 फीसद कम पड़ गई। यह पिछले छह वर्षो में किसी एक महीने में बिजली की कमी का सबसे बड़ा आंकड़ा है।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोयले की कमी के कारण बिजलीघर मांग के मुताबिक बिजली पैदा नहीं कर पा रहे हैं। कोयले की कमी क्यों हुई, इसकी कई वजहें सामने आई हैं। एक वजह तो यह है कि भीषण गर्मी के कारण खनन में कमी आई है। दूसरा यह कि खदानों से बिजलीघरों तक कोयला ढुलाई के लिए रेलवे जरूरी रैक नहीं दे पा रहा है। एक और वजह यह है कि राज्य सरकारें डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों (डिस्कॉम) को उनका बकाया नहीं चुका रही हैं। ये सब ऐसी बातें हैं, जो बताती हैं कि सरकारी स्तर पर आपसी समन्वय का क्या हाल है? क्या यह समस्या इतनी बड़ी है कि ऊर्जा विभाग, रेलवे, राज्य सरकारें आपस में मिल-बैठकर इसका हल नहीं ढूंढ सकती थीं?

रूस-यूक्रेन युद्ध से कोयला आयात महंगा
एक और वजह जिसे प्रमुखता के साथ कोयले की सप्लाई में आई कमी का जिम्मेदार बताया जा रहा है, वो है आयात में आई कमी। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कोयले का आयात महंगा पड़ रहा है। युद्ध की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले के दाम 50 डॉलर प्रति टन बढ़कर 400 डॉलर यानी 30 हजार रु पये प्रति टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गए हैं। भारत अपनी घरेलू जरूरत पूरी करने के लिए प्रमुख रूप से इंडोनेशिया, चीन और ऑस्ट्रेलिया से कोयला मंगवाता है। पिछले साल अक्टूबर में आए बिजली संकट के बाद से ही इन देशों से जो आयात प्रभावित होना शुरू  हुआ था वो अब तक सामान्य नहीं हो पाया है। लेकिन इस हकीकत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि भारत अपनी घरेलू जरूरत के लिए कोयले के आयात पर उस तरह निर्भर नहीं है जैसा कि मौजूदा परिस्थितियों को उससे जोड़ कर देखा जा रहा है। देश में कोयले से होने वाले बिजली उत्पादन में से सिर्फ  आठ प्रतिशत आयातित कोयले के भरोसे है। इसलिए महंगा आयात बिजली उत्पादन में मामूली गिरावट के लिए तो जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन देश भर में हो रही बिजली कटौती का ठीकरा उसके सिर नहीं फोड़ा जा सकता। आज भी हमारी जरूरत के 80 फीसद कोयले का उत्पादन कोल इंडिया ही कर रहा है। मुश्किल इसलिए पैदा हुई है क्योंकि कोयले की प्रति दिन की 22 लाख टन की मांग के मुकाबले कोल इंडिया केवल 16.4 लाख टन की सप्लाई कर पा रहा है। प्रति दिन का करीब 8 फीसद का यह  अंतर इसलिए पैदा हुआ क्योंकि मांग बढ़ने के बावजूद कोल इंडिया ने अपना उत्पादन नहीं बढ़ाया। उत्पादन नहीं बढ़ाने के पीछे भी समन्वय की कमी दिख रही है। कई राज्यों ने समय रहते कोल इंडिया को अपनी जरूरत नहीं बताई, तो कुछ ऐसे निकले जो समय पर अपनी जरूरत का उठाव नहीं कर पाए। कोयला कम पड़ा तो बिजली संकट पैदा हुआ और अब कम-से-कम अगले दो महीने तक हालात ऐसे ही रहने वाले हैं।

मसला एक-दो महीने या कुछेक साल का नहीं है। जरूरत एक टिकाऊ समाधान की है, और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बीच दुनिया अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए जिस ओर बढ़ रही है, उसे देखते हुए देर-सबेर हमें भी कोयले पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी। यह इसलिए भी जरूरी है कि देश की इकोन्ॉमी और रोजगार सेक्टर में महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद कोयला और उस पर आधारित बिजली व्यवस्था हमारे लिए सफेद हाथी साबित होने वाली है। जलवायु परिवर्तन को लेकर चल रही तमाम कवायद का लक्ष्य साल 2030 तक दुनिया के तापमान को 1.5 डिग्री तक कम करना है, जिसके लिए लगभग सारी बिजली कम या शून्य जीवाश्म ईधन स्रेतों से आनी चाहिए। इसका मतलब यह है कि सभी कोयला आधारित बिजली संयंत्र 2030 आते-आते राष्ट्रीय संपत्ति न रहकर राष्ट्रीय बोझ में बदल जाएंगे।

जलवायु लक्ष्यों के लिए भारत की घोषणा
ग्लासगो में पिछले जलवायु शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के लिए जलवायु लक्ष्यों को बढ़ाने की घोषणा की, जिसमें इसकी गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक बढ़ाना और 2030 तक अक्षय ऊर्जा के माध्यम से अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के 50 प्रतिशत को पूरा करना शामिल है। इस क्षमता को हासिल करने के लिए, भारत को हर साल 42 गीगावाट अक्षय ऊर्जा स्थापित करने की आवश्यकता है। फिलहाल जो तैयारी है, उसमें बहुत आशंका है कि भारत अपने गैर-जीवाश्म ईधन ऊर्जा लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएगा। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी की 2019-20 की सालाना रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में अक्षय और थर्मल ऊर्जा के उपयोग का अनुपात 9:78 है। इसकी बड़ी वजह यह है कि सौर, पवन और पनबिजली ऊर्जा के लक्ष्य के लिए राज्यों की प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक नहीं दिखी है। जैसे सौर ऊर्जा के लिए 100 गीगावाट लक्ष्य में से अभी केवल 54 गीगावाट हासिल हुआ है। पवन ऊर्जा के क्षेत्र में भी रफ्तार धीमी ही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में विद्युत वितरण कंपनियों ने बकाए को लेकर कई बिजली खरीद समझौते रद्द किए हैं। पनबिजली ऊर्जा का विकल्प अच्छा हो सकता है, लेकिन उसके लिए बड़ी तादाद में डैम बनाना और घनी आबादी पर बाढ़ का खतरा थोप देने के कारण भारत जैसे देश में इसकी उपयोगिता बहस का विषय है। बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन करने वाले पदार्थ थोरियम की भारत में प्रचुर मात्रा में उपलब्धता परमाणु ऊर्जा को भी अक्षय ऊर्जा का एक प्रभावी विकल्प बनाती है, लेकिन इसमें रेडिएशन का खतरा है।

सौर ऊर्जा के मामले में नवाचार
फिलहाल की स्थिति को देखें तो दक्षिणी क्षेत्र में तेलंगाना और उत्तर में केवल राजस्थान ने साल 2022 के अपने नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को प्राप्त किया है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य अपने लक्ष्य का 30 फीसद भी हासिल नहीं कर पाए हैं। उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा की भी यही कहानी है। मध्य प्रदेश में सौर ऊर्जा के मामले में कई नवाचार हुए हैं। ओंकारेर में फ्लोटिंग सोलर प्लांट और रीवा में एशिया का सबसे बड़ा सोलर पावर प्लांट प्रस्तावित है, लेकिन उत्पादन अभी भी दूर की कौड़ी है।

सरकार से इतर आमजन भी इस मामले में अपनी नागरिक जिम्मेदारी निभा सकते हैं। बेहद सामान्य कदम उठाकर भी महत्त्वपूर्ण योगदान संभव है। जहां तक संभव हो हम बिजली की बर्बादी पर अंकुश लगाएं। इसकी शुरु आत बिजली की कम खपत वाले उपकरणों के इस्तेमाल से हो सकती है। प्रति दिन ऐसे कई उपाय आजमाए जा सकते हैं। यह इसलिए भी जरूरी है कि सरकार के फौरी उपायों से चुनौती गंभीर होने के बावजूद देश फिलहाल किसी गंभीर बिजली संकट में फंसता तो नहीं दिख रहा है, मगर वास्तविकता यह भी है कि अगर अर्थव्यवस्था बढ़ती है, तो बिजली की मांग भी बढ़ती रहेगी। इसलिए भविष्य में किसी बड़े संकट से बचने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा पर मिशन मोड से काम किए जाने की जरूरत है। इसके लिए सरकारी स्तर पर गंभीर चिंतन जितना आवश्यक है, उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका देश की जनता की सहभागिता की भी रहेगी।

उपेन्द्र राय


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