आजादी का अमृत महोत्सव और 1857 की क्रांति

Last Updated 07 May 2022 01:07:23 AM IST

आजादी किसे प्यारी नहीं होती? श्रीरामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’ यानी दूसरे के अधीन, परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा व्यक्ति तो सपने में भी सुखी नहीं रह सकता। हमारा अतीत भी उस दर्द का साक्षी रहा है, जब इतिहास के एक लंबे कालखंड तक देश को गुलामी का दंश झेलना पड़ा। लेकिन यही अतीत ऐसी अनेकों गौरवगाथाओं का सुनहरा दस्तावेज भी है, जिन्हें आज के दौर में भी याद करके हर देशवासी का सीना चौड़ा होता है, और सिर गर्व से उठ जाता है।


आजादी का अमृत महोत्सव और 1857 की क्रांति

देश की आजादी के महान अनुष्ठान में अंतिम आहुति तो 1947 में डाली गई, लेकिन इसकी तैयारियां दशकों पहले शुरू हो गई थीं। सन 1857 इस लंबे सफर में मील का वो पत्थर है, जिस पर पहली बार संगठित रूप में संघर्ष और बलिदानों की रक्तिम स्याही से स्वतंत्रता के लिए समर्पित प्रयासों की सुनहरी इबारत लिखी गई। देशभक्ति की प्रेरणा देने वाली यह क्रांति तीन दिन बाद 10 मई को 165 वर्ष पूरे कर रही है।

1857 की इस तारीख और दिन रविवार की सुस्त शाम को मेरठ से सुलगी चिंगारी देखते ही देखते देश भर में आग की तरह फैली। तत्कालीन भारत का कोना-कोना ‘आजाद’ आग की तपिश में कुंदन की तरह निखर कर सामने आया। अंग्रेज जितनी बेरहमी से इसे दबाने की कोशिश करते रहे, यह आग किसी दावानल की तरह अलग-अलग हिस्सों में उसी तेजी से भड़कती रही। यह इस बात का प्रमाण है कि देशभक्त सेनानियों ने गोरों की सरकार के सामने अपने विद्रोह की चुनौती बहुत बड़े और संगठित स्तर पर खड़ी की थी। इसके बावजूद लंबे समय तक इतिहास में इसे चर्बी वाले कारतूस के खिलाफ सिपाहियों का उत्तर भारत तक सीमित विद्रोह या राज छिन जाने से चंद राजा-रजवाड़ों के असंतोष की अभिव्यक्ति या मुस्लिम समाज की फिर से भारत में अपना शासन हासिल करने का असफल प्रयास बताए जाने की कोशिश हुई।

स्वतंत्रता संग्राम की विरासत
इसकी वजह शायद यह भी है कि स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत को उसकी विराट संपूर्णता और व्यापक सफलता के रूप में सामने लाने में हमारे प्रयासों में भी कहीं कमी रह गई। जब हम कहते हैं  कि 1857 स्वाधीनता की दिशा में पहला संगठित प्रयास था, तो इसमें यह तथ्य स्वयंमेव निहित होता है कि देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करवाने के व्यक्तिगत या असंगठित प्रयास उससे भी पहले से किए जाते रहे होंगे। ऐसे कई आंदोलन, अनगिनत संघर्ष हैं, जिनसे देश अनजान ही बना रहा जबकि ये हर एक संग्राम, हर एक संघर्ष स्वतंत्रता की हमारी लड़ाई को लेकर फैलाए गए असत्य के खिलाफ सत्य का सशक्त प्रमाण है। वैसे भी राम और कृष्ण की जिस धरा के मूल में ही स्वाधीनता की चेतना रही हो, महाराणा प्रताप और शिवाजी की जो मातृभूमि अदम्य शौर्य के असंख्य प्रमाणों की साक्षी रही हो, उस धरती के वंशजों में अन्याय, शोषण और हिंसा के खिलाफ खड़े होने के साहस का अभाव रहा हो, यह बात गले नहीं उतरती। 1857 का घटनाक्रम तो दरअसल, इस सच का प्राकट्य है कि देश के हर क्षेत्र, हर वर्ग और हर समाज ने उस शात चेतना और अदम्य शौर्य की आग को अपने अंतर्मन में प्रज्ज्वलित कर रखा था।

अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ संघर्ष
देखा जाए तो देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे-बड़े स्वरूप में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ भारतीयों का सशस्त्र संघर्ष तो 1757 से ही जारी था, लेकिन राजाओं के इतर हुई प्रतिरोध की घटनाएं इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हो सकीं। 1776-77 में बंगाल का फकीर विद्रोह एक प्रमुख विद्रोह था जिसके नेता मजनू शाह थे। बंगाल में ही 1770-80 के बीच संन्यासी विद्रोह हुआ जिसका उल्लेख बंकिम दा की अमर कृति आनंद मठ में है। पंजाब में कूका आंदोलन की शुरु आत भगत जवाहर मल ने की। इसी आंदोलन से जुड़े एक क्रांतिकारी राम सिंह कूका को काला पानी की सजा के लिए रंगून निर्वासित किया गया था। इसी तरह महाराष्ट्र में रामोसी विद्रोह, सतारा विद्रोह, केरल में वेलुथम्पी विद्रोह, कित्तूर में चेन्नम्मा विद्रोह, तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोह, भील, चुआड़, पहाड़िया, संथाल, खासी, अहोम विद्रोह जैसे कई विद्रोहों ने देश के हर भू-भाग में आजादी की ज्योति को प्रज्ज्वलित किया।

हमारी साझा संस्कृति की विरासत
1857 केवल आजादी की ही नहीं, हमारी साझा संस्कृति की भी विरासत है। हकीकत में यह हमारे समूचे स्वाधीनता संग्राम का वो महत्त्वपूर्ण पड़ाव है, जहां राष्ट्रीयता की भावना का सूत्रपात हुआ। हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के बड़े वर्ग ने मिलकर उस दौर की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति, ब्रिटेन को चुनौती दी। लाखों हिंदू सिपाहियों ने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को अपना नेता माना, और नाना साहब, मौलवी अहमद शाह, तात्या टोपे, खान बहादुर खान और हजरत महल ने साथ आकर इस क्रांति को मजबूती दी। वीरांगना लक्ष्मीबाई की सेना में तोपखाने और पैदल सेना के दोनों प्रमुखों के साथ ही रानी की निजी अंगरक्षक भी मुसलमान थीं, जिन्होंने झांसी के किले और रानी की शान के लिए अपनी
प्राण तक कुर्बान कर दी।
 

बिना शक यह एक मुक्ति संग्राम था जिसमें अवध से मालवा तक और कोटा से हांसी तक मौलवी, पंडित, ग्रंथी, जमींदार, किसान, व्यापारी, वकील, महिलाएं, छात्र और विभिन्न जातियों, पंथों और क्षेत्रों के लोगों ने मिलकर अंग्रेजी सेना से लोहा लिया। इसी एकता से घबराए अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का आसरा लिया। आगे चलकर इसी नीति की परिणति टू-नेशन थ्यरी में दिखती है, जो आखिरकार देश के बंटवारे का आधार बनी। 1857 के गुमनाम नायकों के योगदान को यथोचित सम्मान देने के साथ ही हमारा प्रयास यह भी रहना चाहिए कि इस लड़ाई से मिले कौमी एकता और सांप्रदायिक सौहार्द के सबक को भी हम याद रखें।

अमर महोत्सव और इतिहास के गौरव
राष्ट्र के गौरव को जागृत करने के लिहाज से भी यह जरूरी है कि स्वाभिमान और बलिदान की परंपराओं को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने और संस्कारित करने के प्रयास जारी रखे जाएं। सौभाग्य से देश का नेतृत्व भी इस सोच का प्रतिनिधित्व करता है कि अतीत के अनुभवों और विरासत के गर्व से हर पल जुड़े रहकर ही राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल रह सकता है। आजादी के अमृत महोत्सव के तहत देश के हर राज्य, हर क्षेत्र में इतिहास के गौरव को सहेजने के प्रयास किए जा रहे हैं। दांडी यात्रा से जुड़े स्थल का पुनरु द्धार, सरदार पटेल की वि की सबसे ऊंची प्रतिमा की स्थापना, अंडमान में नेताजी से जुड़ी स्मृतियों को भव्य आकार, बाबा साहेब से जुड़े स्थलों का पंचतीर्थ की तरह विकास, आदिवासी स्वाधीनता सेनानियों का संग्रहालय, जालियांवाला बाग, पाइका आंदोलन की याद में स्मारक-सभी पर काफी काम हुआ है।

स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आजादी के अमृत महोत्सव को आत्मनिर्भरता के साथ ही राष्ट्र के जागरण का महोत्सव कहा है। पिछले साल महोत्सव की शुरु आत करते हुए उन्होंने कहा था कि जब 130 करोड़ देशवासी लाखों स्वाधीनता सेनानियों से प्रेरणा लेकर देश सेवा और राष्ट्र निर्माण के इस महोत्सव से जुड़ेंगे, तो बड़े से बड़ा लक्ष्य भी भारत की पहुंच से बाहर नहीं रह पाएगा। देश के जिस उज्ज्वल भविष्य के लिए हमारे वीर पुरखे अपने प्राणों की आहुति देने से पीछे नहीं हटे, उसे साकार करने के मार्ग में इस मंत्र को राष्ट्र प्रेरणा बना लेना ही हमारे अमर बलिदानियों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।

उपेन्द्र राय


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