निरंकुश अतिक्रमण या..

Last Updated 27 Feb 2022 12:02:59 AM IST

अमेरिका और रूस के बीच छत्तीस के आंकड़े वाले संबंधों में अंकों का खेल भी गजब है।


निरंकुश अतिक्रमण या..

एक तरफ अमेरिका की तमाम ‘बयानवीरता’ के बावजूद यूक्रेन के खिलाफ रूस का युद्ध महज 72 घंटों में ही अपने अंत की ओर बढ़ता दिख रहा हो, तो दूसरी ओर 72 साल बाद दुनिया में एक नई गठबंधन वाली व्यवस्था की शुरुआत होती भी दिख रही है। ताजा घटनाक्रम जिस पुरानी व्यवस्था को चुनौती दे रहा है उसकी बुनियाद दूसरे विश्व युद्ध के बाद पड़ी थी, जब पश्चिम यूरोप में रूस का विस्तार रोकने और पश्चिमी देशों को उसकी कथित अतिक्रमणकारी मानसिकता से सुरक्षा देने के लिए अमेरिका की अगुवाई में नाटो का गठन किया गया था। जंग का मैदान बने यूक्रेन में आज रूस, अमेरिका और नाटो तीनों की मौजूदगी है, लेकिन सात दशक पुरानी गठबंधन वाली व्यवस्था का जमीन पर कोई जोर नहीं चल रहा है, जो हो रहा है वो केवल जुबानी शोर है।

नाटो को धता बताते हुए पुतिन यूक्रेन पर कब्जा जमाने के बेहद करीब हैं और एक संप्रभु राज्य में सेना भेजने से पैदा हुई तीखी आलोचनाओं के केंद्र में होने के बावजूद अपने लक्ष्य को पूरा कर सकने की तमाम स्थितियां पूरी तरह से उनके नियंत्रण में दिख रहीं हैं। अधिकांश समीक्षक इसे पुतिन का दुस्साहस बता रहे हैं, लेकिन पुतिन इससे भी कुछ बड़ा करने की फिराक में हैं शायद पूर्व सोवियत संघ वाली स्थिति की बहाली। कुछ दिनों पहले जब पुतिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने रूसी राष्ट्रपति की निरंकुश घरेलू और विदेशी नीतियों को महज एक शुरुआत बताया था, तब दुनिया ने उनकी चेतावनी को कोई खास तवज्जो नहीं दी थी, लेकिन आज वो चेतावनी अचानक एक सच बनती दिख रही है। पेसकोव की चेतावनी का दूसरा हिस्सा और डरावना है, जो दरअसल इस बात का संकेत देता है कि पुतिन के दिमाग में क्या चल रहा हो सकता है?

पुतिन की सरपरस्ती में रूस की विदेश नीति को लेकर पेसकोव ने कहा था कि आज के दौर में दुनिया में खास किस्म के संप्रभु और निर्णय लेने की हिम्मत दिखाने वाले नायकों की मांग है। बेशक इसका सकारात्मक अर्थ भी लगाया जा सकता है, लेकिन मौजूदा समय में उसकी संभावनाएं शून्य दिखती हैं। यह इस बात का इशारा ज्यादा लगता है कि पुतिन वैश्विक नेताओं के उस वर्ग का आदर्श बनना चाहते हैं, जो कानून के शासन की रस्म अदायगी के लिए भी इच्छुक नहीं हैं। इस वर्ग के नेताओं के लिए अपनी सीमाओं के विस्तार के साथ दूसरे देश की जमीन हथियाना, सैन्य धमकियां देना और विरोधियों को रास्ते से हटा देने का जुनून शासन का एक अपरिहार्य अंग बन गया है। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इन दिनों रूस का सबसे करीबी दोस्त चीन ऐसे तमाम पैमानों पर पूरी तरह खरा उतरता है।

दुनिया और खासकर पश्चिमी देश आज नाटो के बरक्स जिस नई व्यवस्था के सिर उठाने के खतरे से आशंकित हैं, उसमें चीन को रूस के विस्त साझेदार के रूप में देखा जा रहा है। मौजूदा परिस्थितियों में चीन और रूस जिस तरह आर्थिक, उत्पादन और सैन्य क्षमताओं का दमदार संयोजन बनाते हैं, उसका सानी फिलहाल अमेरिका समेत पूरी दुनिया में कहीं नहीं दिखता। युद्ध रोक पाने में नाकाम रहने पर अमेरिका की रूस और चीन पर निकली झल्लाहट एक तरह से इस तथ्य की स्वीकारोक्ति भी है। अमेरिका ने दोनों देशों पर एक नई ‘गहन रूप से अनुदार’ विश्व व्यवस्था बनाने के लिए मिलकर काम करने का आरोप लगाया है।

बेशक इसके संकेत भी मिल रहे हैं, लेकिन अमेरिका को यह भी ध्यान रखना होगा कि जहां भी गलती करने वाला एक पक्ष होता है, वहां एक दूसरा पक्ष भी अवश्य होता है जो उस गलती को रोक पाने में सक्षम नहीं होता। अमेरिका और नाटो इस पूरे घटनाक्रम में वही दूसरे लाचार पक्ष हैं। बहरहाल अब दुनिया यहां से किस ओर बढ़ती दिख रही है? दुनिया के लिए रूस और चीन का गठजोड़ ‘दो और दो मिलकर चार’ बनाने वाला योगात्मक गठजोड़ नहीं दिखता, बल्कि इसमें ‘दो में से दो गए तो बचा शून्य’ वाली विनाशात्मक ऋणात्मकता ज्यादा दिखती है। यूक्रेन जीत लेने के बाद अगर पुतिन अनियंत्रित हो जाते हैं, तो यह चीन और ईरान जैसे तमाम देशों को अपने आसपास की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अतिक्रमण का हौसला देगा।

एक खतरा यह भी है कि रूस की इस उकसावे वाली कार्रवाई का असर पहले से ही संकटग्रस्त उन क्षेत्रों में भी दिख सकता है जहां कामचलाऊ समझौतों से तनाव की स्थितियां टाली जा रही हैं जैसे ताइवान। रूस ने जो यूक्रेन  के साथ किया, चीन लंबे समय से ताइवान के साथ भी वैसा ही करने की ताक में है। हो सकता है चीन के लिए यह सपना सच करना उतना आसान न हो क्योंकि यह जरूरी नहीं कि ताइवान को लेकर भी अमेरिका सैन्य हस्तक्षेप नहीं करने का वही रु ख अपनाए, जो उसने यूक्रेन के मामले में किया है, लेकिन इस घटना ने दीर्घकालीन राजनीति में चीन को कम-से-कम अमेरिका की प्रतिबद्धता आंकने का एक अवसर और प्रोत्साहन दोनों दे दिया है।

हो सकता है कि आने वाले दिनों में सऊदी अरब और मिस्र को लेकर यही रवैया तुर्की का भी देखने को मिल जाए। एक दूसरी आशंका हथियारों की नई क्षेत्रीय होड़ शुरू होने की भी है। ये तमाम परिस्थितियां एक बार फिर दुनिया के एक बड़े धड़े का अमेरिका की छतछ्राया में शरणागत होने का इशारा कर रही हैं। हम देख रहे हैं कि बदली परिस्थितियों से भारत की विदेश नीति के लिए नया सिरदर्द खड़ा हो गया है। रूस हमारा दशकों पुराना मित्र रहा है और नये जमाने में हमारी दोस्ती अमेरिका से परवान चढ़ी है। कारोबार से लेकर हथियार खरीद में गहरी साझेदारी इन संबंधों का आधार है। इसी वजह से विवाद की चिंगारी के युद्ध की आग में बदल जाने पर भी भारत निरपेक्ष ही बना हुआ है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पर भी वोटिंग के बजाय भारत ने इस मसले को दोबारा कूटनीति की टेबल पर लाने का अपना स्टैंड बरकरार रखा है, लेकिन यूक्रेन में रूस की सफलता के बाद अगर ताइवान में चीन भी उसी राह पर चलता है, तो भारत को एशिया में चीन के प्रभुत्व वाली एक असहज वास्तविकता का सामना करना पड़ सकता है।

यह एशिया-प्रशांत में अमेरिका की विसनीयता और क्वाड जैसे संगठनों की प्रासंगिकता पर भी गंभीर चोट होगी। इससे भी दुर्भाग्यजनक स्थिति यह होगी चीन के संदर्भ में भारत और रूस के सामने अपनी दोस्ती को नये सिरे से परिभाषित करने की मजबूरी खड़ी हो जाएगी क्योंकि यह एक ऐसी सापेक्ष स्थिति का निर्माण करेगा, जिसमें भारत और रूस दोनों के सामने निरपेक्ष रहने का विकल्प नहीं होगा। जाहिर है जिस तरह पुतिन के एक फैसले ने बाकी दुनिया की सुरक्षा को कम किया है, उसी तरह हमारे पड़ोस में भी खतरे को बढ़ा दिया है। यहां से हम शायद अब एक ऐसी दुनिया में रहने के लिए मजबूर होते जाएं जहां देशों के आपसी संबंधों का निर्धारण उनकी सैन्य ताकतों से हो। सरल शब्दों में यह ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली स्थिति है। कई पाठकों के लिए यह तुलना दिलचस्प हो सकती है कि पहले विश्व युद्ध के बाद दुनिया लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए साथ आई थी और आज निरंकुश शक्तियों को सुरक्षित रखने के लिए एक-दूसरे से दूर होती जा रही है।

उपेन्द्र राय


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