होली पर कोरोना दहन, सावधानी फिर भी अहम

Last Updated 26 Feb 2022 01:05:42 AM IST

बीते चंद दिनों में दुनिया अचानक एक ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई है, जहां से एक तरफ जाने पर एक नये युद्ध की शुरुआत उसे डरा रही है, तो दूसरी तरफ एक पुराने चले आ रहे युद्ध के अंत की शुरुआत भी हो रही है। एक ओर रूस-यूक्रेन विवाद से भड़की युद्ध की आग है, जो अभी पूरी तरह से दो दिन पुरानी भी नहीं पड़ी है, और दूसरी ओर दो साल पुरानी हो चली कोरोना महामारी है, जो अब अपने अंतिम दिन गिन रही है।


होली पर कोरोना दहन, सावधानी फिर भी अहम

रूस-यूक्रेन विवाद से उपजी परिस्थितियों का फौरी तौर पर देश पर कोई असामान्य प्रभाव तो नहीं दिख रहा है, लेकिन हां, कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर के बीच जनजीवन अब धीरे-धीरे सामान्य जरूर हो रहा है। जिस तेजी से यह लहर परवान चढ़ी थी, उसी तेजी से नीचे भी आई है। आधिकारिक तौर पर 27 दिसम्बर से शुरू हुई तीसरी लहर फरवरी के आखिरी सप्ताह आते-आते अपने शिखर से सिमट कर पांच फीसद से भी कम रह गई है। इसका प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि तीसरी लहर में न तो रोजी-रोटी के संकट से आशंकित प्रवासी मजदूर परिवारों का देश की सड़कों पर महापलायन दिखाई दिया, न ऑक्सीजन या जीवन रक्षक दवाइयों और इंजेक्शन की किल्लत को लेकर अस्पतालों में त्राहिमाम दिखा और न ही मुक्ति धामों या नदी किनारे मौत का डरावना तांडव देखने को मिला। अभी स्थिति यह है कि धीरे-धीरे पाबंदियां हटती जा रही हैं, ज्यादातर शहरों से नाइट कर्फ्यू की विदाई हो गई है, शिक्षण-संस्थानों को फिर पूरी क्षमता के साथ संचालन की अनुमति मिल गई है, शादी-विवाह, राजनीतिक सभाएं एवं अन्य सार्वजनिक आयोजनों में ‘रौनक’ फिर लौट आई है, और बाजार खुलने से व्यावसायिक गतिविधियां भी तेजी से पटरी पर लौट रही हैं।

मास्क की आवश्यकता को लेकर सवाल
हालांकि सरकार की ओर से लगातार कोरोना प्रोटोकॉल के पालन की अपील हो रही है, लेकिन एक बड़ा सवाल मास्क की आवश्यकता को लेकर उठ रहा है। न्यूयॉर्क और कैलिफोर्निया जैसे अमेरिकी राज्यों समेत ब्रिटेन, डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे जैसे देशों ने खुद को मास्क-फ्री घोषित कर दिया है, वहीं इटली और स्पेन ने फिलहाल अस्पतालों और कुछ इंडोर जगहों पर ही इसकी अनिवार्यता को बरकरार रखा है। भारत समेत विकासशील देशों के लिए विशेषज्ञों की ‘एडवाइजरी’ फिलहाल यही है कि आवश्यक वैक्सीनेशन के न्यूनतम स्तर को हासिल करने से पहले मास्क से छुटकारे की कोशिश आत्मघाती हो सकती है। बहुत सारे लोगों को लग रहा है कि आधी से ज्यादा दुनिया को वैक्सीन मुहैया करवाने और सबसे बड़े वैक्सीनेशन अभियान का नेतृत्व करने के बावजूद भारत पर यह एक तरह से बंदिश थोपने का प्रयास है, लेकिन यहां यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि बेशक, टीके लगाने का भारत का आंकड़ा विशाल से विशालतम होता गया है, लेकिन आबादी के तुलनात्मक पैमाने पर यह अभी भी संतोषजनक स्तर के आस-पास ही है। देश की एक-चौथाई आबादी अभी भी ऐसी है जिसे या तो एक भी टीका नहीं लगा है, और अगर लग गया है तो दूसरी डोज लेना अभी बाकी है।

इसलिए निश्चित रूप से समस्याएं अभी भी दूर नहीं हुई हैं, लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि कोरोना-काल का यह ‘न्यू नॉर्मल’ महामारी से निपटने के लिए वैक्सीनेशन और इकोनॉमी के अनुकूल इको-सिस्टम तैयार करने की सरकार की रणनीति के कारण ही संभव हुआ है। वित्त मंत्रालय की ताजा मासिक आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट (एमआईआर) बताती है कि कोरोना की पहली दो लहरों के मुकाबले इस तीसरी लहर में देश की आर्थिक गतिविधियां काफी कम प्रभावित हुई हैं। एमआईआर का अनुमान है कि इसके कारण अगले वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था नौ फीसद की विकास दर हासिल कर सकती है, जो अभी भी कई देशों के लिए दूर की कौड़ी है। पहली दोनों लहरों में अर्थव्यवस्था को कृषि क्षेत्र से जो मजबूती मिली थी, वो इस लहर में भी जारी है। एमआईआर का आकलन है कि रबी की बुआई साल-दर-साल की गणना में डेढ़ फीसद तक बढ़ी है, और पांच साल के औसत रकबे में भी 15 फीसद से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। इसी तरह रेल और हवाई माल यातायात में भी फिर से बढ़त दिख रही है, जो व्यावसायिक गतिविधियों के सामान्य होने की सूचक है। राहत का तीसरा बड़ा संकेत सेंटर फॉर मॉनिटिरंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट से मिलता है, जिसके अनुसार बेरोजगारी दर में अब गिरावट शुरू हो गई है। यह दिसम्बर, 2021 के 7.9 फीसद से घटकर जनवरी, 2022 में 6.6 फीसद पर आ गई है।

आर्थिक मोर्चे पर सकारात्मक संकेत
सरकार दावा कर रही है कि इस बार का सालाना बजट आर्थिक मोर्चे से मिल रहे इन सकारात्मक संकेतों के लिए उत्प्रेरक का काम करेगा। सरकार के इस भरोसे की बड़ी वजह प्रधानमंत्री गतिशक्ति योजना है, जिसके सात इंजनों से उम्मीद लगाई जा रही है कि वे बुनियादी ढांचे के अंतर को कम करने में सफल रहेंगे। एमआईआर का अनुमान है कि प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव योजनाओं और बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक पूंजीगत निवेश मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए बूस्टर डोज साबित होने के साथ ही निर्यात और निवेश, दोनों ही क्षेत्रों को बढ़ावा देगा। पिछले दो साल से उपलब्धियों और विवादों के केंद्र रहे कृषि सेक्टर की गति को सरकार प्रधानमंत्री किसान योजना के जरिए एमएसपी और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की मदद से और शक्ति देती रहेगी।

रूस-यूक्रेन युद्ध : भारत की असल चिंता
रूस-यूक्रेन के बीच छिड़ा युद्ध सरकार की योजनाओं को कितना प्रभावित करेगा, यह देखने वाली बात होगी। वैसे तो भारत का रूस और यूक्रेन, दोनों देशों से एक दो चीजों को छोड़कर न तो कोई खास निर्यात और न ही आयात होता है, लेकिन भारत की असल चिंता हथियार और पेट्रोलियम सप्लाई से जुड़ी है। इसमें भी ज्यादा फोकस कच्चे तेल को लेकर है क्योंकि यह आम जनमानस से सीधा जुड़ा हुआ मामला है। प्राकृतिक गैस के अलावा रूस कच्चे तेल का भी बड़ा उत्पादक है, और वैश्विक सप्लाई के हर 10 बैरल में उसका एक बैरल का योगदान होता है। यूक्रेन पर उसके हमले का असर यह हुआ है कि सप्लाई चेन बाधित होने की आशंका में ही कच्चा तेल 105 डॉलर के स्तर पर पहुंच गया। आठ साल में ऐसा पहली बार हुआ है। भारत की मुश्किल यह है कि देश अपनी पेट्रोलियम जरूरत का 85 फीसद आयात करता है, और इसका भी बड़ा हिस्सा रूस से ही आता है। एक अनुमान है कि बदली परिस्थितियों में भारत का आयात बिल 15 फीसद तक बढ़ सकता है, जो निश्चित रूप से हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी खबर नहीं है।

युद्ध लंबा खिंचा तो
अगर युद्ध लंबा खिंचा तो अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव दूसरे सेक्टरों में भी दिखाई पड़ सकता है। खासकर स्वास्थ्य का क्षेत्र जिसे प्राथमिकता देना महामारी के दौर का सबसे बड़ा सबक बन कर सामने आया है। छत्तीसगढ़ सरकार ने स्वास्थ्य सेवा को उद्योग का दर्जा देने का फैसला लेकर एक अच्छी पहल की है। इससे दूर-दराज के गांव भी स्वास्थ्य सेवाओं की मुख्यधारा का लाभ उठाने में सक्षम हो पाएंगे। नीति आयोग भी काफी लंबे समय से इसकी पैरवी करता रहा है। अब यह बात साफ हो गई है कि निवेश-चाहे वो सरकारी हो या निजी-बढ़ाए बिना स्वास्थ्य क्षेत्र का कायाकल्प संभव नहीं। इस नजरिए से इस बार के बजट में स्वास्थ्य मद के लिए किया गया आवंटन थोड़ा निराशाजनक भी लगता है। पिछले साल स्वास्थ्य बजट की देश की जीडीपी में 0.34 फीसद की हिस्सेदारी थी। इस बार वो बढ़ी जरूर है, लेकिन 86,606 करोड़ रुपये के आवंटन से 0.40 के स्तर तक ही पहुंची है। महंगाई और जीडीपी के प्रभाव का समायोजन करने पर यह दरअसल वृद्धि नहीं, बल्कि कमी ही है। टीकाकरण मद में भी भारी कटौती हुई है, जो इस क्षेत्र में निजी सेक्टर के प्रवेश के संकेत के तौर पर देखी जा रही है।

वैसे पिछले दो साल में काफी-कुछ बदला है, और बदलाव का यह दौर अब तक जारी है। जिन क्षेत्रों में सेवाएं सुचारू होने लगी हैं, वहां भी यह ‘संक्रांति काल’ कई तरह की चुनौतियां प्रस्तुत कर रहा है। शायद यही वजह है कि वि स्वास्थ्य संगठन ने भी इस वक्त किसी तरह की लापरवाही से बचने की चेतावनी दी है। उसका आकलन है कि कोरोना भले ही कमजोर पड़ा हो, लेकिन अभी भी दुनिया में उसकी मौजूदगी है। कहीं तीसरी, तो कहीं चौथी और कहीं-कहीं पर पांचवीं लहर के रूप में। वैसे भी डब्ल्यूएचओ को आशंका है कि मौजूदा समय कोरोना वायरस के नये वैरिएंट में म्यूटेट होने का सबसे उपयुक्त समय है, जो एक बार फिर देखते-देखते पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले सकता है। हम देख चुके हैं कि किस तरह ओमीक्रोन को पूरी दुनिया में फैलने में केवल 21 दिन लगे थे। ऐसे में कोरोना को खत्म मान लेना जल्दीबाजी होगी। इसलिए बेशक, इस बार हम होली पर कोरोना दहन का प्रण जरूर पूरा करें, लेकिन इसके साथ सावधानी बरतने का संकल्प निभाना भी जरूर याद रखें।

उपेन्द्र राय


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