उदारीकरण आपदा में अवसर

Last Updated 24 Jul 2021 09:35:16 AM IST

कहते हैं, दरवाजा खुला हो, तो हवाएं आती हैं, समृद्धि आती है। 24 जुलाई तीस साल पहले की वही तारीख है जब भारत ने दुनिया के लिए अपने बाजार का दरवाजा खोला था।


उदारीकरण आपदा में अवसर

ये वो दौर था जब कर्ज का बढ़ता बोझ, बढ़ता राजकोषीय घाटा, विदेशी मुद्रा का सिमटता भंडार, खाड़ी संकट के कारण बुरी तरह से प्रभावित आयात के कारण देश के सामने विषम हालात बने हुए थे। नौबत यह आ गई थी कि भारत दिवालिएपन की कगार पर खड़ा था ओर कर्ज चुकाने के लिए देश को अपना सोना तक बेचना पड़ा था। और फिर आया नब्बे के दशक का वो पहला साल जिसने सब कुछ बदल कर रख दिया। 1991 में लोक सभा चुनावों के बाद देश की सरकार बदली। कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने। उन्होंने पूर्ववर्ती सरकार में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार की भूमिका निभा रहे डॉ. मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री बनाया। दोनों ने देश की अर्थव्यवस्था पर आई आपदा को अवसर में बदलने के लिए उसे वि  बाजार से जोड़ने का रामबाण तलाशा। चौबीस जुलाई, 1991 को देश ने ‘आजादी’ का एक और मंजर देखा। इस तारीख को डॉ. मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री कई आर्थिक सुधारों वाला वो बजट पेश किया, जिसने देश में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्विकरण की नींव रखी। 1947 में 15 अगस्त की तारीख परतंत्रता की समाप्ति का पर्व है, तो 1991 की 24 जुलाई की तारीख आर्थिक आजादी की शुरु आत का अवसर है।

आज की पीढ़ी को हैरानी होगी जानकर
आज की पीढ़ी को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि जिस दौर में यह बदलाव शुरू हुआ, तब देश में केवल एक टेलीविजन चैनल और एक ही हवाई सेवा होती थी, वो भी सरकारी। लाइसेंस-परमिट राज में सब कुछ सरकार के हाथ में होता था। बंद अर्थव्यवस्था के तहत सरकार ही उत्पादन की सीमा बताती थी, सरकार ही उत्पाद की कीमत भी तय करती थी। लेकिन नये बजट ने इस बंद अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोल कर रख दी। सरकार के साथ-साथ लोगों को भी अपनी कमाई बढ़ाने के नये अवसर मिले। मनोरंजन से लेकर बैंकिंग सेक्टर, दूरसंचार, हवाई सेवा कमोबेश कोई भी क्षेत्र क्रांति से अछूता नहीं रहा। इस क्रांति के दो नायकों में से एक थे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री भी बने और दूसरे थे तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव जिन्हें भारत की राजनीति का चाणक्य भी कहा जाता है। यह उनकी काबिलियत का ही प्रमाण है कि आर्थिक सुधारों का यह कमाल उन्होंने उस समय किया था, जब न तो उनकी सरकार बहुमत में थी और न ही विपक्ष आर्थिक सुधारों को लेकर उनके साथ खड़ा था। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि सरकार में आने के बाद इतना बड़ा फैसला लेने के लिए उन्हें केवल एक महीने का समय मिला था। एक सक्षम नेता की तरह नरसिंह राव ने उद्योग मंत्रालय अपने पास रखा क्योंकि सबसे ज्यादा बदलाव की जरूरत उसी क्षेत्र को थी। नरसिंह राव ने उद्योग क्षेत्र में कई सुधार किए, विपक्ष असहयोग पर उतर आया कि विदेशी कंपनियों के आने से देश के उद्योग का भट्ठा बैठ जाएगा, लेकिन ऐसी हर आशंका गलत साबित हुई। एक तरफ विदेशी निवेश, दूसरी तरफ सरकारी विनिवेश, पैसे से पैसा बना और भारतीय कंपनियां खूब फली-फूलीं। बाजार में रोजगार के करोड़ों अवसर निकले और आय बढ़ने से देश का बड़ा वर्ग गरीबी रेखा से ऊपर आया। संयोग से यह साल उनकी जन्मशती का साल भी है, और डॉ. मनमोहन सिंह के साथ मिलकर उन्होंने उदारीकरण की जो अलख जगाई, आज उसके तीस साल भी पूरे हो रहे हैं।
 

लेकिन तीन दशक पूर्व रचे गए इस आर्थिक इतिहास पर आज भी सवाल उठते हैं। वि बैंक की रिपोर्ट भले ही कहे कि उन आर्थिक सुधारों से भारत में गरीबी घटी और एक मायने में यह हकीकत भी है, इसके बावजूद यह भी तथ्य है कि सुधारों के कारण समाज में असमानता भी बढ़ी। साल 1991 में उदारीकरण के साल तक भारत में एक भी धन्ना सेठ ऐसा नहीं था, जिसकी डॉलर में संपत्ति एक अरब से ज्यादा हो, आज ऐसे डॉलर अरबपतियों की संख्या 120 से ज्यादा हो जाने का अनुमान है। ऑक्सफेम और ग्लोबल वेल्थ की रिपोर्ट बताती है कि किस तरह आबादी का केवल एक फीसद हिस्सा बाकी 99 फीसद का भाग्य विधाता बना हुआ है। अमीरी और गरीबी के बीच असंतुलन के मामले में केवल अमेरिका और इंडोनेशिया ही हमसे आगे हैं। इन सुधारों ने भारत को बदला तो सही, लेकिन क्या इसका असर नीचे तक नहीं पहुंच पाया? शायद हां और इसके लिए अक्सर इन सुधारों की गति और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को जवाबदेह ठहराया जाता है। यह विमर्श का विषय हो सकता है कि क्या उदारीकरण को समावेशी बनाने के लिए सामाजिक न्याय के जिस चाबुक को चलाने की जरूरत थी, वो साहस दिखाने में नरसिंह राव सरकार चूक गई? क्योंकि आगे चलकर प्रधानमंत्री बनने पर जब पहले डॉ. मनमोहन सिंह और अब मोदी वो इच्छाशक्ति दिखा रहे हैं, तो उसका असर भी दिखाई पड़ रहा है।

सुधारों के प्रयास रहते ही हैं सवालों के घेरे में
इसके बावजूद क्षेत्र कोई भी हो, सुधार के प्रयास कभी सवालों के परे नहीं जा पाते। व्यावहारिक आधार होने के बावजूद वैचारिक और राजनीतिक सहूलियत विरोध की वजह बनती रहती हैं। मोदी सरकार भी इससे अछूती नहीं है। नोटबंदी, जीएसटी, इंसोल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड, नई मौद्रिक नीति के समर्थक और आलोचकों के अपने-अपने तर्क हैं। विचारों के इस फर्क का आधार सुधारों के समय अंतराल से भी प्रभावित होता है, जबकि हकीकत में ज्यादातर सुधारों के पीछे का मकसद तात्कालिक चुनौतियों को साधना होता है। सरकारी संपत्तियों के विनिवेश और निजीकरण की समीक्षा के लिए इसी चश्मे का प्रयोग विसंगति की वजह भी बन जाता है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी की साफगोई व्यावहारिक और तर्कसंगत लगती है। उनका साफ मानना है कि सरकारी कंपनियों को केवल इसलिए नहीं चलाया जाना चाहिए कि वे विरासत में मिली हैं। लाइसेंस राज की तरह आज के युग में न तो यह आवश्यक है, और न ही संभव कि सरकार खुद व्यापार की मालिक बनी रहे। इस सोच का सकारात्मक पहलू यह है कि सरकारी संपत्तियां निजी हाथों में जाएंगी तो एक तरफ सरकार का भार कम होगा, वहीं इन संपत्तियों के बेहतर इस्तेमाल से देश को भी लाभ होगा। यही दरअसल विनिवेश और निजीकरण के पीछे सरकार का मकसद भी है।

क्षेत्रीय असंतुलन व उदारीकरण
इसका एक दीर्घकालिक संबंध देश के विकास में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने से भी है। आजादी के 70 साल से ज्यादा का समय बीतने के बाद भी उत्तर-दक्षिण विभेद बरकरार है। सामाजिक स्तर पर इस भेद को नापने के कई पैमाने हैं। अगर अवसरों की तलाश में उत्तर का एक बड़ा तबका आज भी दक्षिण का रु ख करने के लिए मजबूर है, तो राजनीतिक शिखर की खोज में उत्तर भारत, दक्षिण की तुलना में ज्यादा मजबूती से आगे बढ़ने के अवसर देता है। देश के प्रधानमंत्रियों की संख्या का पलड़ा इस विरोधाभास की एक मिसाल हो सकता है। आर्थिक लिहाज से प्रति व्यक्ति औसत आय इस फर्क को और स्पष्ट करती है। बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश-जिन्हें आज भी ‘बीमारू’ राज्य कह कर संबोधित कर दिया जाता है, जहां की प्रति व्यक्ति औसत आय दक्षिण के राज्यों की तुलना में 250 फीसद तक कम है।

दिलचस्प तुलना
इसे लेकर सैमुअल पॉल और कला सीताराम श्रीधर की लिखी पुस्तक ‘द पैराडॉक्स ऑफ इंडिया’ज नॉर्थ-साउथ डिवाइड’ में एक दिलचस्प तुलना मिलती है। इस किताब का मत है कि उत्तर और दक्षिण में उदारवाद के परिणामों में अंतर की एक वजह मानव संसाधन में निवेश का फर्क भी है। 1991 में जब भारत की बंद अर्थव्यवस्था को खोलने की नीतिगत प्रक्रिया शुरू हुई, तो दक्षिण पहले से उसका लाभ उठाने के लिए तैयार था क्योंकि उसके पास एक कुशल श्रम बल मौजूद था। आगे चलकर इसीलिए दक्षिण में उद्योगों से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज, सॉफ्टवेयर पार्क और दवा उद्योग ने खूब प्रगति की। दुर्भाग्य से इसी समय में उत्तर भारत का मानव संसाधन जातिगत और सांप्रदायिक संघर्ष में अपनी ऊर्जा खर्च कर रहा था। वर्षो तक वामपंथ के साए में रहे पश्चिम बंगाल में पूंजी के जरिए विकास में निवेश की व्यावहारिक आवश्यकता नजरअंदाज होती रही। सत्ता के लिए जरूरी बना दी गई इस राजनीतिक सोच से बाद की सरकार भी खुद को अलग नहीं कर पाई। लेकिन आज वहां भी नजरिए में बदलाव स्पष्ट दिखता है। सिंगूर और नंदीग्राम के संग्राम की पटकथा लिखने वाले आज उद्योगपतियों के स्वागत में पलक-पावड़े बिछा रहे हैं। यह भी विडंबना है कि कोरोना महामारी ने देश के सामने आज कमोबेश तीस साल पुराने जैसे ही हालात खड़े कर दिए हैं, जिनसे निकलने के लिए देश को साहसी और आउट ऑफ द बॉक्स विकल्पों की जरूरत है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार ने इस चुनौती के समावेशी समाधान के लिए कई पहल की है। तीस साल पहले उदारीकरण का केंद्र बने मध्यम वर्ग के साथ ही आज गरीब परिवारों की आर्थिक गतिशीलता को बढ़ाने के उपाय भी किए जा रहे हैं। इन सुधारों को देखकर कहा जा सकता है कि 1991 में बतौर पीएम नरसिंह राव ने जो लकीर खींची, 2021 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसका सफल विस्तार कर रहे हैं।

उपेन्द्र राय


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