न काहू से दोस्ती, न काहू की खैर

Last Updated 18 Jul 2021 12:03:27 AM IST

एक विद्यार्थी के जीवन में गुरु के मार्गदर्शन का अक्स होता है। इसलिए जब विद्यार्थी प्रगति करता है, तो मान गुरु का बढ़ता है।


न काहू से दोस्ती, न काहू की खैर

हालांकि यह सकारात्मक पहलू है, इसका नकारात्मक पहलू गुरु  के दामन को कालिख से भी भर सकता है, और अगर एक नालायक विद्यार्थी का सामना गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले गुरुओं से हुआ हो, तो फिर भविष्य जहालत के अंधकार में समा जाता है। अफगानिस्तान में कुछ ऐसा ही हुआ है, जहां तालिबान (विद्यार्थी) के जीवन में प्रारंभ से मध्य तक गुरु  की भूमिका अमेरिका ने निभाई, लेकिन सिवाय मतलबपरस्ती के तालिबान ने कुछ नहीं सीखा। फिर मध्य से उत्तर उच्च स्तर तक पाकिस्तान ने इस्लाम के नाम पर ढोंग करना सिखाया, और अब यही ढोंग और मतलबपरस्ती तालिबान का चेहरा है जिसे महीन स्थायित्व के लबादे से ढंका गया है, मगर सच्चाई इसके ठीक विपरीत है।

सच्चाई यह है कि दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है। अफगानिस्तान में 20 साल से गड़ा अमेरिकी सेना का तंबू भी आखिरकार उखड़ ही गया। अपने सैनिकों की वापसी पर अमेरिका भले ही तर्क दे रहा हो कि काबुल जाने का उसका मकसद अल कायदा को 9/11 का सबक सिखाना था और वह मकसद सफलतापूर्वक पूरा हो गया है, लेकिन हकीकत यही है कि अमेरिका का हाल भी सोवियत सेना और नाटो की ही तरह ‘बड़े बेआबरू होकर, तेरे कूचे से हम निकले’ वाला ही रहा है। दो दशक का समय और अरबों डॉलर खर्च करने के बाद भी अमेरिका इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान को खत्म नहीं कर पाया, उल्टे उसे अपने कई हजार जवानों की बलि देनी पड़ गई। अमेरिका ने एग्जिट प्लान के लिए तालिबान के सामने अपनी जमीन पर अलकायदा को नहीं पनपने देने की शर्त रखी है, जिसे तालिबान ने बिना वक्त लगाए मान लिया है। जिस बात पर कोई गौर नहीं कर रहा है, वह यह है कि इस समझौते में अमेरिका ने भी अनौपचारिक रूप से एक बात मानी है। अफगानिस्तान में अभी अशरफ गनी की सरकार सत्ता से बाहर नहीं हुई है, लेकिन तालिबान से डील करके अमेरिका ने भी जैसे मान लिया है कि अफगानिस्तान में आने वाला वक्त तालिबान का ही है। अफगानिस्तान में हालत यह हैं कि अमेरिकी सैनिक और तालिबानी आतंकी एक साथ लौट रहे हैं। यह और बात है कि दोनों की मंजिलें अलग-अलग हैं। नौबत यहां तक आ गई है कि अब भी आधी अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में मौजूद है और अफगान तालिबान आधे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा चुके हैं। ईरान, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान सीमा की ज्यादातर चौकियां अब तालिबान के नियंत्रण में हैं। अब जो तालिबान सत्ता हथियाने के लिए इतना बेकरार दिख रहा है, वह अमेरिका से किए गए करार को कितनी अहमियत देगा, यह फिलहाल कहा नहीं जा सकता। अफगानिस्तान कल को आतंक का अड्डा नहीं बनेगा या अमेरिका में दूसरा ‘9/11’ नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता।

खतरा अमेरिका पर ही नहीं, तालिबान के ‘दोस्त’ चीन और पाकिस्तान पर भी मंडराने लगा है। भारत के लिए तो खैर तालिबान का आना चेतावनी है ही। पहले चीन की बात करें, तो उसके शिनिजयांग प्रांत की सीमा अफगानिस्तान से लगती है। चीन ने यहां उइगर मुसलमानों को यातना कैम्पों में कैद कर रखा है। इस लिहाज से यह इलाका चीन के लिए रणनीतिक तौर पर काफी संवेदनशील है। यहां अलकायदा समर्थित आतंकी समूह ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट यानी ईटीआईएम लंबे समय से उइगर मुस्लिम के समर्थन में विद्रोह भड़काने की कोशिशों में लगा है। अगर अफगानिस्तान में गृह युद्ध के हालात बने, तो वहां इस्लामिक स्टेट की पकड़ मजबूत हो सकती है। देर-सबेर इस्लामिक स्टेट भी उइगर मुसलमानों की मदद के लिए शिनिजयांग का रुख कर सकता है। ऐसा होता है तो चीन को आईएस और ईटीआईएम की दोहरी चुनौती से जूझना होगा। यह चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर यानी सीपेक के भविष्य के लिए भी अच्छी खबर नहीं होगी। सीपेक चीन के जिस कशगर शहर से शुरू होता है, वह शिनिजयांग का दक्षिणी इलाका है। आगे चलकर यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से होकर गुजरता है, जहां कुछ दिन पहले ही तालिबानी कमांडर के खुली अदालत लगाने की खबर है। अगर यह सच है तो यह सीपेक ही नहीं, चीन की इकोनॉमी के लिए भी खतरे की घंटी है। सीपेक के जरिए चीन गिलगित-बाल्टिस्तान से होते हुए ग्वादर पोर्ट तक अपनी पहुंच तो बना चुका है। इसके आगे वह वन बेल्ट, वन रोड योजना के जरिए मध्य एशियाई देशों तक पहुंचना चाहता है। लेकिन उसका यह सपना अफगानिस्तान को साधे बिना पूरा नहीं हो सकता जहां फिलहाल हालात यह हैं कि चीन को अफगानिस्तान की आग में अपना सारा निवेश खाक होता दिख रहा है।

दूसरे देशों के मुकाबले पाकिस्तान फिलहाल भले ही खुद को बेहतर स्थिति में दिखाने में लगा हो, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उसके हाथ कोई लॉटरी लग गई हो। अफगानिस्तान पर तालिबान के पूर्ण कब्जे के बाद पासा पलट भी सकता है। तालिबान पहले ही पाकिस्तान को बता चुका है कि वह अपने विचार उस पर थोपने की कोशिश न करे, यानी इस बार तालिबान सब कुछ अपनी शतरे पर करना चाहता है। अफगान-तालिबान ने कंधार में स्पिन बोल्डक नाम की जिस महत्वपूर्ण सीमा पर कब्जा कर लिया है, वह बलूचिस्तान में क्वेटा के पास चमन नामक जगह में मिलती है। अफगान शरणार्थियों की भारी घुसपैठ के डर से पाकिस्तान को मजबूरी में इस बॉर्डर को सील करना पड़ा है। इसके अलावा पाकिस्तान को घर के अंदर से भी खतरा है। पाकिस्तान के तहरीक-ए-तालिबान और अफगान-तालिबान में नजदीकी की पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। अफगान तालिबान का उभार तहरीक-ए-तालिबान को ताकत देगा, जो पाकिस्तान में आतंकी समूहों को और सक्रिय करेगा। इसका एक नमूना इसी हफ्ते दिख भी गया जब तहरीक-ए-तालिबान ने पाकिस्तान सेना को ही अपने निशाने पर ले लिया। इस हमले में पाकिस्तान के 15 सैनिकों की मौत हो गई, वहीं 60 जवान अगवा कर लिए गए। इसके अलावा कंस्ट्रक्शन के काम में लगे चीनी इंजीनियरों पर भी आतंकी हमला हुआ था, जो बताता है कि तालिबान की आग से पाकिस्तान भी महफूज नहीं है।

भारत के नजरिए से तो तालिबान का उभार किसी लिहाज से अच्छी खबर नहीं है। देश की उत्तरी सीमा पर चीन, पाकिस्तान के साथ ही भारत को अब एक और चुनौती से दो-चार होना पड़ सकता है। खासकर कश्मीर में तालिबान के पुराने अनुभवों को देखते हुए भारत को और चौकन्ना रहने की जरूरत पड़ेगी। तालिबान-पाकिस्तान की मिलीभगत ने कश्मीर में आतंक की फसल तैयार करने में खाद-पानी का काम किया है। आईएसआई ने जिस जैश-ए-मोहम्मद को जन्म दिया, उसे पालने-पोसने का काम तालिबान ने ही किया। कंधार विमान अपहरण को सीढ़ी बनाकर रिहा हुआ जैश का मुखिया मसूद अजहर लंबे समय तक तालिबान की खुराक पर पलता रहा। लश्कर के मुखिया हाफिज सईद का भी तालिबान से याराना पुराना है। तालिबान से जुड़े ऐसे करीब 20 आतंकी संगठन हैं, जिनके तार भारत से रूस तक फैले हुए हैं। इसलिए अनुच्छेद 370 हटने पर तालिबान ने भले ही कश्मीर को भारत का आंतरिक मसला बताया हो, लेकिन पिछले अनुभवों को देखते हुए कश्मीर पर उसकी राय में तब्दीली न आए, ये कहना थोड़ा मुश्किल होगा।

साल 1996 से साल 2001 के बीच के उन पांच साल को लेकर अफगानी जनता के जेहन में भी कभी न भूलने वाली कई डरावनी यादों ने जगह बना ली थी। तालिबान के सत्ता से हटने के बाद जब देश में लोकतंत्र की बयार बहनी शुरू हुई, तो लोग भी उस वक्त को भूलने लगे। महिलाओं को घर से बाहर निकलने और यहां तक कि चुनाव लड़ने की आजादी मिली। धर्म से जुड़ी पाबंदियों में ढील आई और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के साथ ही देश के पुनर्निर्माण को आधुनिक नजरिया मिला, तो अफगानिस्तान ने भी दुनिया के साथ कदमताल के लिए अपने कदम बढ़ाए। अफसोस कि यह सुनहरा वक्त ठहर गया दिखता है और पुरानी डरावनी यादें फिर ताजा होने लगी हैं। तालिबान अपने कब्जे वाले इलाकों में अपने बनाए हुए इस्लामी कानून लागू करते जा रहे हैं। इन इलाकों के स्थानीय धार्मिंक नेताओं से 15 साल से ज्यादा उम्र की लड़िकयों और 45 साल से कम उम्र की विधवाओं की सूची मांगी गई है। तालिबान का कहना है कि इनके अलावा वह गैर मुस्लिम लड़कियों को भी पहले इस्लाम में परिवर्तित करेगा और फिर अपने लड़ाकों से इनकी शादी करवाएगा। बड़े-बुजुगरे को डर है कि यह उनकी बेटियों को गुलाम बनाने की साजिश है। कई कैंपों में असहाय जिंदगी बिता रही लड़कियों-महिलाओं को अपने यौन शोषण और देह व्यापार में धकेले जाने का डर सताने लगा है। भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हत्या भी इसी तालिबानी सोच की एक नुमाइश है। दुर्भाग्य से अफगानिस्तान में जो सूरत-ए-हाल बन रहे हैं, उनमें आने वाले दिनों में इस नुमाइश के कई और रूप दिखने का अंदेशा है।

उपेन्द्र राय


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