लोकतंत्र का कदमताल

Last Updated 03 Jul 2021 09:31:12 AM IST

इतिहास को अक्सर भविष्य का दर्पण कहा जाता है। दुनिया का इतिहास इस बात को सच साबित करने वाली कई मिसालों से भरा पड़ा है। कश्मीर के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है।


लोकतंत्र का कदमताल

जब हम अपने देश में बात करते हैं, तो जम्मू के बिना कश्मीर कुछ अधूरा सा लगता है, इसलिए अगर जम्मू-कश्मीर की बात करें, तो पिछले करीब बीस महीनों से केंद्र-शासित प्रदेश बने इस पूर्ववर्ती सरहदी राज्य से जुड़ी एक तारीख बड़ी चर्चा में है। 5 अगस्त, 2019। तारीख भले ही एक हो, लेकिन इसे देखने के कई नजरिए हैं। कहीं यह भारत और उसके करोड़ों देशवासियों की वर्षो पुरानी कसक के निदान की सुखद अभिव्यक्ति है, तो कहीं यह कश्मीरियत के ‘अपहरण’ का छलावा है। बहरहाल, इस विषय पर बहस फिर कभी, फिलहाल उस मंतव्य पर लौटते हैं, जिसका जिक्र मैंने शुरु आत में किया है।
 
दरअसल, 5 अगस्त, 2019 को भविष्य की जिस उम्मीद के साथ जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक रीति-नीति से अनुच्छेद 370 समाप्त किया गया, इतिहास में उसका प्रतिबिंब 73 साल पुरानी एक और तारीख में मिलता है। 8 अगस्त, 1947। यह वो तारीख थी, जब श्रीनगर में एक बड़ी जनसभा के बीच शेख अब्दुल्ला ने खम ठोक कर कहा था कि जब तक उनके शरीर में खून का एक भी कतरा बाकी है, तब तक वो देश में ही बैठे कुछ चुनिंदा लोगों का पाकिस्तान बनाने का मंसूबा पूरा नहीं होने देंगे। बीते सात दशकों से अलगाववाद से अभिशप्त जम्मू-कश्मीर में आज फिर देश से वफादारी की वही हवा बह रही है और इतिहास हमें भविष्य के उस मोड़ पर ले आया है, जब हम शेख अब्दुल्ला के बेटे फारु क अब्दुल्ला और उनके पोते उमर अब्दुल्ला को भी दिल्ली से दूरी और दिल की दूरी खत्म करने के नारे में अपनी आवाज मिलाते देख रहे हैं। पिछले सप्ताह जम्मू-कश्मीर को लेकर हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह नारा देकर मानो इतिहास के उसी पन्ने को पलट कर भविष्य के रोडमैप का संकेत दिया है।

बदलाव का बड़ा संकेत
बेशक, इस बैठक में कई मुद्दे अनसुलझे रहे, कई चर्चा में ही नहीं आए और कुछ को लेकर मुखर विरोध भी दिखा, लेकिन कोई यह भी बताए कि केवल एक गोली से बरसों पुराने मर्ज का इलाज आखिर पहले कब हुआ है? अव्वल तो प्रधानमंत्री के बुलावे पर सभी नेताओं का बैठक में पहुंचना ही बदलाव का बड़ा संकेत है। फिर एक महबूबा मुफ्ती को छोड़ दिया जाए, तो किसी भी दूसरे नेता का पाकिस्तान राग नहीं अलापना साफ इशारा है कि वो दिल्ली से साथ जुड़ाव रखना चाहते हैं।
 

भरोसा बहाली की दिशा में यह सदिच्छा जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पुनर्स्थापना में मील का पत्थर साबित हो सकती है। लेकिन केवल दिल्ली की पहल से बात नहीं बनेगी, हालात सामान्य बनाने में स्थानीय नेतृत्व की भी बराबर की भूमिका रहेगी। खासकर गुपकार समूह की, जिसकी बहुचर्चित घोषणा में कई ऐसी बातें हैं, जो या तो अब अप्रासंगिक हो गई हैं, या उनका पूरा होना असंभव है। अनुच्छेद 370 और 35 ए के साथ ही राज्य में पुरानी स्थिति बहाल करने की मांग पर गुपकार जितना लचीला रु ख अपनाएगा, केंद्र का शांति प्रस्ताव उतना ही निखर कर सामने आएगा। सर्वदलीय बैठक में जिस तरह अनुच्छेद 370 कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया, उससे लगता तो यही है कि इसका विरोध करने वालों ने भी मान लिया है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा अब इतिहास की बात हो गई है।

घाटी के अवाम ने किया सन्मति देने का काम
वैसे यह सब इतने सहज तरीके से हो जाएगा, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल था। वरना तो अनुच्छेद 370 को दोबारा लागू करने के लिए फारु क चीन तक से हाथ मिलाने को बेताब हुए जा रहे थे, और उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी महबूबा उनके सुर-में-सुर मिलाते हुए कश्मीर में तिरंगे को हाथ लगाने वाला नहीं मिलने का उद्घोष कर रही थीं। इस मुद्दे पर अब तक कन्फ्यूज्ड दिख रही कांग्रेस कभी इसे लागू करने के तरीके पर सवाल उठा रही थी, तो कभी मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने की हिमायत कर रही थी। लेकिन आखिरकार लगता है कि सबको सन्मति देने का काम कश्मीर घाटी की अवाम ने ही कर दिया। स्थानीय दलों के विरोध के बीच ग्राम पंचायतों के चुनाव में 51 फीसद से ज्यादा लोगों की हिस्सेदारी और किसी तरह की हिंसा के नहीं होने से यह बात उभर कर आई कि जम्मू-कश्मीर में एक नया जमीनी नेतृत्व तैयार हो रहा है, जो अपने मठाधीशों से छुटकारा पाना चाहता है और आतंक को पीछे छोड़कर अब विकास के मोर्चे पर बाकी देश से होड़ लगाना चाहता है। स्थानीय जनता के इस ‘संकल्प’ के सामने हुर्रियत जैसे अलगाववादी समूह तक चुनाव बहिष्कार की बात करने से पीछे हट गए। हुर्रियत का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि लंबे समय तक कश्मीर के सियासी दल यही ‘लाचारी’ दिखाते रहे कि हुर्रियत के बिना कश्मीर पर कोई फैसला नहीं किया जा सकता। कोई कसर बाकी भी रह गई थी, तो वो सुप्रीम कोर्ट के रु ख ने पूरी कर दी। इस बदलाव ने विपक्षी दलों को भी यह बात समझाई कि अब अनुच्छेद 370 के मुद्दे का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल उन्हें फायदा दिलाना तो दूर, कश्मीर की राजनीति में अप्रासंगिक तक बना सकता है।

विशेष दर्जा बहाली की मांग पड़ी मद्धम
इसका असर यह हुआ है कि अब जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल करने की मांग भी मद्धम पड़ गई है। ऐसी चर्चा थी कि घाटी में भरोसा बहाल करने के लिए केंद्र सरकार कुछ क्षेत्रों में अनुच्छेद 371 लागू कर सकती है, जिसमें कुछ क्षेत्रों में जमीन खरीदने से लेकर संसाधनों और रोजगार में स्थानीय लोगों के हितों को तरजीह देने के प्रावधान हैं। देश के 11 राज्यों में यह अनुच्छेद लागू भी है। लेकिन बैठक से जो बात निकल कर आई है, उसमें यही लगता हैं कि अब पूर्ण राज्य की मांग ही इकलौता मुद्दा रह गया है। हालांकि इसमें इस बात को लेकर पेंच फंस सकता है कि पहले परिसीमन हो या चुनाव। स्थानीय दल पहले चुनाव के पक्ष में हैं, जबकि केंद्र सरकार के निर्देश पर परिसीमन की प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है। परिसीमन को लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग माना गया है जिसका उद्देश्य भौगोलिक क्षेत्रों और जनसंख्या के समान क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व देना होता है। जम्मू-कश्मीर में आखिरी बार 1995 में परिसीमन हुआ था।
 

हर दस साल में परिसीमन की व्यवस्था के आधार पर इसे साल 2005 में होना था, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री फारु क अब्दुल्ला ने राज्य के संविधान में संशोधन कर इस पर 2026 तक रोक लगा दी। साल 2011 की जनगणना बताती है कि राज्य की विधानसभा के गणित में संतुलन लाने की जरूरत है। कुल 111 सीटों में 24 सीटें पीओके क्षेत्र से आती हैं, और इस उम्मीद में खाली रहती हैं कि एक-न-एक-दिन यह क्षेत्र भारत के कब्जे में आएगा। बची 87 सीटों में कश्मीर के हिस्से में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में चार सीटें आती हैं। यह न तो जनसंख्या और न ही क्षेत्रफल के हिसाब से जायज है। परिसीमन होगा तो सभी क्षेत्रों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व तय हो सकेगा, लेकिन कश्मीरी नेताओं को इसमें अपने दबदबे में कमी आने का अंदेशा है। यह देखते हुए जम्मू में एक अलग राज्य की मांग भी तेज हो गई है। हालांकि यह कितना व्यावहारिक होगा, इस पर स्पष्ट तौर पर अभी अनुमान लगाना संभव नहीं है, लेकिन स्थानीय लोगों के विकास के लिए फंड, पर्यटन, रोजगार के अवसर जैसी मांगों को पूरा करना भी जरूरी है।

जनता को हुआ अपनी ताकत का अहसास
यह इसलिए भी जरूरी है कि अगर इसे लंबे समय तक नजरअंदाज किया गया तो क्षेत्र में एक अलग तरह का अलगाववाद भी सिर उठा सकता है, और कश्मीर और जम्मू के लोगों को आमने-सामने लाकर खड़ा कर सकता है। यह पाकिस्तान और चीन जैसे हमारे पड़ोसियों को इन क्षेत्रों में फिर से सिर उठाने का मौका दे सकता है, जो अनुच्छेद 370 लगने के बाद से ही बौखलाए हुए हैं, और ज्यादा कुछ कर नहीं पा रहे हैं। जम्मू में पिछले कुछ दिनों से मंडरा रहे ड्रोन का कनेक्शन पाकिस्तान की इसी बौखलाहट से जुड़ा बताया जा रहा है। हालांकि इस सबके बीच लोकतंत्र में जो सबसे जरूरी चीज है वो है जनता की आवाज जो साफ तौर पर जम्मू-कश्मीर में बदलाव का स्वागत कर रही है। अनुच्छेद 370 की विदाई ने स्थानीय जनता को उसकी ताकत और सियासत को उसकी सीमाएं तो समझा दी हैं, अब जरूरत लोकतंत्र बहाल कर जम्मू-कश्मीर को फिर से खुशहाल बनाने और देश से भी कदमताल की है।
 

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment