मुद्दा : दलितों का परिवेश कब तक उपेक्षित
आजादी के बाद बापू का सपना था कि समाज में अनुसूचित जाति को समान अधिकार दिलाएंगे क्योंकि समाज में उनकी स्थिति आज भी अछूत जैसी है। इनके साथ अपराध के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। वे खुले रूप से मंदिर में नहीं जा सकते।
![]() |
अपने बेटा-बेटी की शादी डोली या घोड़ी में बिठा कर नहीं कर सकते। यदि किसी ने हिम्मत भी की होगी तो उच्च वर्ग के लोगों ने उन्हें प्रताड़ित किया। आज भी उन्हें गांव में जल स्रेतों के पास पानी भरने के लिए तब तक इंतजार करना पड़ता है, जब तक उच्च वर्ग के लोग वहां से पानी लेकर घर नहीं पहुंच जाते।
देश में बहुत सारी योजनाएं दलितों के नाम पर संचालित हो रही हैं, लेकिन अधिकांश दलित समाज को पता नहीं है कि उनके लिए किस तरह से केंद्र और राज्यों में आर्थिक संसाधनों को उपलब्ध किया जा रहा है। उनमें से किसी के पास जानकारी होगी भी तो आसानी से उन्हें मदद नहीं मिल पाती। सत्ता और राजनीति भी ऐसी है कि आरक्षण के नाम पर चुने हुए जनप्रतिनिधि भी उपेक्षा महसूस करते हैं। अपने ही दलों के अंदर बड़े नेता उनका अपमान करने पर आमादा रहते हैं। अनुसूचित जाति के साथ इस तरह के अत्याचार का प्रमुख कारण है कि उच्च वर्ग की मानसिकता में अभी इतना परिवर्तन नहीं हो पाया है कि जो शरीर, रक्त, हाथ-पैर, आंखें, दिमाग, सोचने-समझने की कला और एक जगह से दूसरे जगह जाने की हिम्मत उनमें है, वही दलित वर्ग में भी मौजूद है। जिस दिन उच्च वर्ग के हृदय में यह परिवर्तन हो गया तो समझ लीजिए कि उसके बाद से ही दलितों पर अत्याचार कम हो सकते हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत के संविधान में आरक्षण भी इसीलिए रखवाया ताकि उन्हें हर स्तर पर उनकी निश्चित जनसंख्या के आधार पर अधिकार मिलें और वे हीन भावना से आगे निकल सकें।
आज आरक्षण का विरोध भी कई राजनीतिक दलों के लोग स्वर्ण मानसिकता के कारण ही करते हैं क्योंकि सोचते हैं कि दलित वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी में आने की क्या जरूरत है? जो लोग वर्षो तक उनकी खेतीबाड़ी का काम करते रहे, कृषि के औजार बनाते रहे, पैरों को सुख देने वाले जूते बनाते रहे, सुंदर डिजाइन के कपड़े सिलते रहे, खाने पकाने के बर्तन बनाते रहे, भवन और मंदिर निर्माण के शिल्पी रहे आज ये सारे काम पूंजीपतियों और कॉरपोरेट के पास चले गए हैं। इस कारण उनमें रोजगार संकट बढ़ गया है, जबकि दलित भी उसी पर्यावरण में रहते हैं, जिसमें समाज के अन्य सभी वग जीवन यापन करते हैं।
जब शोषित, उपेक्षित वर्ग के पढ़े-लिखे युवक-युवतियां कहीं सरकारी नौकरी में दिखाई देते हैं, तो वहां भी उन्हें दलित वर्ग में पैदा होने का अहसास होता है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि सरकारी, गैर-सरकारी और अन्य सभी कामकाज में यदि कहीं दलित वर्ग की हिस्सेदारी है, तो समझ लीजिए कि वहां पर भी समाज स्वर्ण और अवर्ण में विभक्त दिखाई देता है। आजादी के बाद समाज में इस विषमता को दूर करने के लिए लगभग दो दशक तक गांधी विचार के अनुयायियों और सत्ता पक्ष के प्रतिनिधियों ने मिल कर अछूतों को मंदिर प्रवेश करवाने का काम किया। दलित बस्तियों में शिविर सम्मेलन के दौरान सामूहिक भोजन करने का सरकारी कार्यक्रम भी चलाया जाता रहा है, जो केवल दलित वोट के नाम पर जलपान अथवा सामूहिक भोज नजर आता है।
चिंताजनक है कि हर घंटे में दलितों के साथ 5 अपराध हो रहे हैं। दलितों को जलाना, पीटना-मारना, शोषण करने जैसे अत्याचारों को हर दिन मीडिया दे रहा है। हाल के दिनों में दलितों पर हुए अत्याचार के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में 15,368, राजस्थान में 8,752, मध्य प्रदेश में 7,753, बिहार में 6,509, ओडिशा में 2,902, महाराष्ट्र में 2,743 घटनाएं हुई और इसके बाद के आंकड़े अन्य राज्यों में भी हैं। उत्तर प्रदेश इसमें सबसे आगे है जहां 15,368 अत्याचारों में 189 र्मडर, 939 दलित महिलाओं पर हमले, 617 किडनैप आदि के मामले हैं। दलितों पर अत्याचार उच्च मानसिकता के कारण है।
यह तभी रु क सकता है जब मनुष्य छुआछूत की भावनाओं को त्याग दें और हर रोज जिस तरह से पत्र-पत्रिकाओं में नेताओं की स्मृतियों के विज्ञापन छपते रहते हैं, उसी तरह से कोशिश हो कि दलितों पर अत्याचार रोकने के जितने भी कानून हैं, उनका प्रचार- प्रसार हो। टेलीविजन पर भी हर राजनीतिक दल इन अत्याचारों पर खुल कर बोले। वे यह बोलना भी बंद करें कि मेरे राज में इतने दलित मरे और तब तक दूसरा कहता है कि मेरे राज में इससे कम मरे हैं। ऐसी हास्यास्पद चर्चाएं रोकनी पड़ेंगी। इससे घटनाएं और अधिक बढ़ने वाली हैं क्योंकि इससे समाधान के विषय पर कोई बात सामने नहीं आती है। पक्ष-विपक्ष, सामाजिक संस्थाएं मिल कर दलित समाज और स्वर्ण समाज के बीच में सौहार्दता, समानता, एकता, प्रेम और सहानुभूति का वातावरण बनाने के लिए आगे आएंगे तो बहुत लंबा वक्त दलितों पर हो रहे अत्याचार को रोकने में नहीं लगेगा।
| Tweet![]() |