अभी लंबा चलेगा ’अनुशासन पर्व‘

Last Updated 29 May 2021 09:14:06 AM IST

कोरोना से जूझ रहे देश के लिए चुनौतियों ने जैसे सुरसा का रूप धारण कर रखा है। एक खत्म होती नहीं और दूसरी सामने आ खड़ी होती है। चुनौतियां भी ऐसी असाधारण जिनके बारे में जानकारियां या तो हैं नहीं और जो हैं वो भी अपर्याप्त। शासन-प्रशासन के स्तर पर हो रही चूक भी इसमें अपना योगदान दे रही है।


अभी लंबा चलेगा ’अनुशासन पर्व‘

हालांकि पिछले कुछ दिनों में इन चुनौतियों की विकरालता में कुछ कमी का अनुभव हो रहा है। बेशक, मौतों का आंकड़ा अभी भी चिंताजनक बना हुआ है, लेकिन संक्रमण के नये मामले में लगातार कमी दर्ज हो रही है। पिछले एक सप्ताह में ही यह संख्या घटकर आधी हुई है। खाली हो रहे अस्पताल और दवाइयों समेत स्वास्थ्य सुविधाओं पर घटता दबाव भी इस बात की तस्दीक कर रहा है। लेकिन यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि हालात पूरी तरह सुधर गए हैं।  
 

कोरोना के बीच तरह-तरह के फंगल आक्रमण व्यवस्था पर दोहरा आघात बनकर आए हैं। इनमें से ब्लैक फंगस तो इतना जानलेवा साबित हुआ है कि कई राज्यों में उसे महामारी घोषित कर दिया गया है। यह भी हर कोई मानेगा कि जिस तरह कोरोना की दूसरी लहर ने सबको चौंकाया, उसी तरह ब्लैक फंगस भी बिन बुलाए अतिथि की तरह अचानक पधारा। अभी भी इसके होने के तात्कालिक कारणों पर देश में बहस जारी है। जाहिर है न सरकारें, न स्वास्थ्य अमला इस अप्रत्याशित ‘आतिथ्य’ के लिए तैयार थे। हालांकि सरकार की सक्रियता और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दखल की वजह से इसके इलाज के लिए जरूरी दवाओं और इंजेक्शनों की देश-विदेश से एक सप्लाई चेन स्थापित हो गई है, जिससे इसके इलाज की व्यवस्था बन पाई है।

प्रभावित नहीं हुआ फोकस
ब्लैक फंगस की चुनौती अपनी जगह है, लेकिन इससे कोरोना से निजात पाने का सरकार का फोकस प्रभावित नहीं हुआ है। इसी हफ्ते सरकार के प्रयासों से देश ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। अमेरिका के बाद भारत 20 करोड़ वैक्सीन लगाने वाला दुनिया का दूसरा देश बन गया। कोरोना से लड़ाई में वैक्सीन को ही सुरक्षा कवच माना जा रहा है। इस नजरिए से हमारे टीकाकरण अभियान ने यकीनन एक बड़ा मील का पत्थर हासिल किया है। लेकिन दुनिया में अव्वल बनने की इस होड़ का तुलनात्मक विश्लेषण बताता है कि अमेरिका जहां 32 करोड़ की अपनी आबादी के 62 फीसद हिस्से को टीका लगाकर इम्युनिटी की दहलीज पर खड़ा है, वहीं 14 फीसद टीकाकरण के साथ हम उससे करीब-करीब पांच गुना कम रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं।  
 

बेशक, इसका बड़ा कारण 138 करोड़ की हमारी विशाल आबादी है, लेकिन वजहें और भी हैं। वैक्सीन का उत्पादन, उपलब्धता, समुचित डिलीवरी, वैक्सीन को लेकर भ्रांतियां और अफवाह तंत्र के कारण भी टीकाकरण अभियान पटरी से उतरा हुआ है। इस मामले पर हो रही सियासत बिल्कुल स्वागत योग्य नहीं है, लेकिन सरकार खुद ही मान रही है कि उनके पास जो वैक्सीन हैं, वो भी लोगों तक नहीं पहुंच रही हैं। केरल हाई कोर्ट में सरकार ने जानकारी दी है कि देश में रोजाना वैक्सीन की 28.33 लाख डोज तैयार हो रही हैं, लेकिन ये केवल 57 फीसद लोगों तक पहुंच रही हैं। उत्पादन और उपलब्धता से जुड़े ये दोनों आंकड़े चिंताजनक हैं।  सामान्य गणित के हिसाब से  देश की 138 करोड़ आबादी को दो डोज प्रति व्यक्ति की दर से 276 करोड़ डोज की जरूरत पड़ेगी। अगर हम रोजाना मौजूदा दर से ही उत्पादन करते रहें, तो देश की जरूरत को पूरा करने में ही हमें 32 महीने लग जाएंगे। इसी तरह रोजाना 16 लाख टीके लगाने का लक्ष्य भी मुश्किल से हासिल हो पा रहा है। टीकाकरण की यही रफ्तार रही, तो शत-प्रतिशत टीकाकरण चार साल बाद जाकर पूरा होगा।
 

यह इसलिए भी अहम है क्योंकि वैक्सीनेशन में हो रही देरी कोरोना को नये रूप बदलने का मौका भी दे रही है। दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीन उत्पादक देश के तौर पर भी ये आंकड़े हमारे लिए बिल्कुल उत्साहजनक नहीं कहे जा सकते। देश के विभिन्न राज्यों में रु क-रु क कर चल रहे टीकाकरण को भी महज सियासत कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। कई बीजेपी शासित राज्यों में भी हालात ऐसे हैं कि वैक्सीन की किल्लत के कारण टीकाकरण केंद्रों पर बार-बार ताले डालने की नौबत आ रही है। देश में फिलहाल दो टीके व्यापक उपयोग में लाए जा रहे हैं- कोवैक्सीन और कोविशील्ड। रूस के टीके स्पूतनिक-वी का उपयोग अभी शुरु आती चरण में ही है, जबकि फाइजर, मॉडर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन जैसी ग्लोबल कंपनियों से सरकार की बातचीत चल रही है। कोविशील्ड और कोवैक्सीन निर्माता कंपनियां अपना उत्पादन बढ़ाने की बात कर रही हैं। लेकिन खुद सरकार ने वैक्सीन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धता के लिए अगस्त से दिसम्बर के बीच का अंतराल तय कर बता दिया है कि अगले कुछ महीनों तक टीकाकरण की तस्वीर में ज्यादा बड़ा बदलाव नहीं दिखेगा।

औपचारिकताओं से उलझन
हमारी स्वदेशी वैक्सीन कोवैक्सीन भी औपचारिकताओं के फेर में उलझती दिख रही है और आपात इस्तेमाल के लिए इसका डब्लयूएचओ की लिस्ट में शामिल होना सितम्बर से पहले संभव नहीं दिख रहा। ऐसी सूरत में उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार काफी हद तक ग्लोबल कंपनियों के भरोसे है, या तो उन्हें भारत में आकर उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित करे या फिर उनके अपने देश में भारत के लिए वैक्सीन उत्पादन करने के लिए उन्हें तैयार करे।
इसी के साथ-साथ टीके को लेकर देश भर में फैली भ्रांतियां और अफवाह भी सरकार के काम को मुश्किल बना रही हैं। इस मामले में सब-कुछ इस तरह यंत्रवत होता जाता है मानो इसका भी कोई टूलकिट देश में काम कर रहा हो। सच्ची-झूठी घटना का हवाला देकर टीके से मौत की अफवाह फैलना, सोशल मीडिया से उस अफवाह को हवा मिलना, झूठ का जंगल की आग की तरह फैलते जाना और वैक्सीन को लेकर दिमाग में एक अनजाने डर का घर कर लेना।

लोगों के अंदर डर बढ़ा
यह बिल्कुल सच बात है कि कोरोना काल में लोगों के अंदर डर बढ़ा है, लेकिन जिस वैक्सीन को इस डर को दूर करने का जरिया बनना चाहिए, उसी से बचने के लिए लोग नदी में छलांग लगाकर अपनी जान दांव पर लगाने को तैयार हों, तो इसका मतलब यह भी है कि हमारी तैयारियों में बड़ी कमी रह गई है। सरकारी जागरूकता अभियान सिर्फ  कागजों पर चल रहा है। जहां रस्मअदायगी हुई भी है, वहां भी इसका कोई असर नहीं दिख रहा है। यह विषय इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका सीधा जुड़ाव मानसिक सेहत से है, जिसका कोविड का दौर बीत जाने के बाद एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आने का अंदेशा है। सेहत को लेकर यह चुनौती अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी सरकार की परीक्षा लेगी। चाहे रिजर्व बैंक हो या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया या फिर ब्रिटेन का बैंक बार्कलेज या फिर रिसर्च एजेंसी लोकल सर्किल, सभी का अनुमान है कि आने वाले दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था को मुश्किल दौर का सामना करना पड़ेगा। स्टेट बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना की दूसरी लहर से देश की जीडीपी को 4.5 लाख करोड़ रु पये का नुकसान हो सकता है, जो जीडीपी का करीब 2.4 फीसद होता है। इसी तरह बार्कलेज ने भी राज्यों में लगी पाबंदियों के बाद आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को 10 फीसद से घटाकर 9.2 फीसद किया है। लोकल सर्किल का सर्वे इस अंदेशे की बुनियादी वजह को स्पष्ट करता है। मानव शरीर में कोरोना जिस तरह पावर हाउस समझे जाने वाले फेफड़ों पर हमला करता है, उसी तरह आर्थिक मोर्चे पर उसने अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर आक्रमण किया है। कोरोना और उसके कारण लगे लॉकडाउन की वजह से देश की 59 फीसद एमएसएमई और स्टार्टअप साल खत्म होने से पहले या तो हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे या बिक जाएंगे। यह सर्वे 171 जिलों की 6 हजार से ज्यादा एमएसएमई तक पहुंचा है, इसलिए इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।
 

यानी सवाल स्वास्थ्य का हो या आर्थिक सेहत का, हमारे लिए ‘अनुशासन का पर्व’ लंबा खिंचने वाला है। खासकर तब जबकि दूसरी लहर की विदाई से पहले ही और ज्यादा खतरनाक साबित हो सकने वाली तीसरी और चौथी लहर की चेतावनी भी जारी हो चुकी है। इसलिए अब जन-जन के जीवन में मास्क, सफाई, सामाजिक दूरी और वैक्सीन में अनुशासन और भी जरूरी हो गया है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि खतरा केवल टल रहा है, खत्म नहीं हो रहा है।

उपेन्द्र राय


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