बदलेगी पद्धति तो होगी शिक्षा की उन्नति

Last Updated 08 Aug 2020 01:00:17 AM IST

संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा के लिए कहा था कि उसे ऐसा होना चाहिए जो सभी के लिए सुलभ हो यानी जो भी शिक्षा पाना चाहे, शिक्षा उसकी पहुंच में हो। तीन दशक बाद देश को मिली नई शिक्षा नीति बाबा साहेब के इन्हीं विचारों को समर्पित लगती है।


बदलेगी पद्धति तो होगी शिक्षा की उन्नति

इसमें बच्चों की नींव मजबूत करने से लेकर उनके भविष्य की इमारत को भी सुदृढ़ बनाने का विजन दिखता है। शिक्षा व्यवस्था का दायरा बढ़ाना, शिक्षा के माध्यम के तौर पर मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहित करना, उच्च शिक्षा में इंस्पेक्टरराज खत्म करने की पहल, शिक्षकों की गुणवत्ता सुधारने पर जोर सब ऐसे फैसले हैं, जो देश में नई शिक्षा संस्कृति की शुरु आत बन सकते हैं। मौजूदा परिदृश्य में यह लक्ष्य भले बहुत महत्त्वाकांक्षी लगता हो, लेकिन यह पहुंच के बाहर भी नहीं है, बशर्ते यह जमीन पर उसी तरह उतर सके, जैसी कल्पना इसे बनाने वालों ने की है।

नई नीति में जो सबसे दूरदर्शी बात दिखती है, वो है शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की पहल। बेरोजगारी की लगातार बढ़ती दर के बीच यह पहल ताजा हवा के झोंके जैसी दिखती है। कक्षा 6 से वोकेशनल कोर्स की शुरु आत होने का मतलब बुनियादी स्तर से ही पढ़ाई को लाइफ स्किल से सीधे जोड़ने जैसा है जिससे बच्चे किताबी ज्ञान के साथ कुछ नया कौशल भी सीख सकेंगे। कौशल का विकास स्वरोजगार की संभावनाओं को भी मजबूती देगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी ही शायद यह है कि बच्चे ना तो पढ़ाई का आनंद ले पा रहे हैं और ना ही पढ़ाई पूरी करने के बाद ढंग का कोई रोजगार तलाश पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर ऐसी शिक्षा पर जोर देते रहे हैं, जो ‘नौकरी मांगने वालों’ के बजाय ‘नौकरी देने वाले’ तैयार कर सके और इस शिक्षा नीति में उसी सोच को सच बनाने की कोशिश दिखती है।

श्रेष्ठ भारत का रोडमैप

नई नीति में प्रधानमंत्री की एक और सोच एक भारत, श्रेष्ठ भारत  को साकार करने का रोडमैप भी दिखाया गया है। शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के साथ ही स्थानीय और क्षेत्रीय भाषा का विकल्प आत्मनिर्भरता की परिकल्पना को व्यापकता देने में मददगार हो सकता है। तीन भाषा वाला फॉर्मूला बच्चों को एक साथ कई भाषाओं के साथ-साथ संबंधित विषय में महारथ हासिल करने का अवसर भी देगा। हाथ-कंगन को आरसी क्या, कई अध्ययनों ने भी इस बात पर मुहर लगाई है कि मातृभाषा में दी गई मूलभूत शिक्षा बच्चों की समझ को बेहतर करती है। इसका एक दूसरा फायदा भी दिखता है। अंग्रेजी मीडियम वाले स्कूलों से हमारी शिक्षा को फायदा पहुंचा हो या नहीं, लेकिन ये स्कूल चाहे-अनचाहे ही बच्चों के बीच हैसियत की खाई को चौड़ा करने का जरिया बने हैं। इससे समाज को काफी नुकसान पहुंचा है। अगर सभी बच्चे समान रूप से शुरु आती पढ़ाई मातृभाषा में करेंगे, तो यह खाई स्वत: ही समाप्त हो सकती है और राइट टू एजुकेशन से आगे बढ़कर राइट टू इक्वल एजुकेशन का सपना भी सच हो सकेगा।

लेकिन अंग्रेजी को पूरी तरह भुला देना भी ठीक नहीं होगा। आईटी की दुनिया में अंग्रेजी का ज्ञान भारतीयों की सबसे बड़ी पूंजी साबित हुआ है और इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। अच्छी बात है कि नई शिक्षा नीति में मातृभाषा को उसका गौरव लौटाने की पहल में कहीं भी अंग्रेजी के आगे बढ़ने की राह में किसी तरह की बाधा नहीं खड़ी की गई है। हालांकि हिंदी को लेकर कुछ राज्यों की चिंताएं थीं, लेकिन क्षेत्रीय भाषा का विकल्प देकर सरकार ने विवाद की संभावना को बड़ी समझदारी से टाल दिया।

इसी तरह लॉ और मेडिकल को छोड़कर हायर एजुकेशन के लिए एकल नियामक बनाना उच्च शिक्षा की कई मुश्किलों को दूर करेगा। अब तक नियंत्रण की ‘चाबुक’ ढेर सारी संस्थाओं के बीच बंटी हुई थी। यूजीसी-एआईसीटीई के नियम-निर्देश भी शिक्षण संस्थानों की परेशानी दूर करने के बजाय और बढ़ा देते थे। अब एक नियामक होने से विविद्यालयों को संचालन में ज्यादा आजादी मिल पाएगी। विविद्यालयों की ही तरह छात्रों को भी अपने विषय चुनने की आजादी मिलेगी यानी अब मैथ्स के साथ म्यूजिक और फिजिक्स के साथ फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई भी की जा सकेगी। इससे पैसों की तंगी या दूसरी वजहों से ड्रॉपआउट करने वाले छात्रों का साल बर्बाद होने से बच जाएगा। मल्टीपल एंट्री और एग्जिट का विकल्प अगर काम कर गया तो 2035 तक हर दूसरे छात्र को उच्च शिक्षा से जोड़ने का लक्ष्य आसान हो जाएगा।

गुणवत्ता और लचीलेपन का यह संयोग नई शिक्षा नीति की खास पहचान है। इसमें एक तरफ छात्रों की प्रतिभा को निखारने के उपाय हैं, तो दूसरी तरफ ठेके पर नहीं, बल्कि ठोक-बजा कर शिक्षकों को प्रशिक्षण देकर नई चुनौतियों के लिए तैयार करने के प्रावधान भी हैं। इसमें भी खास जोर इस बात का दिखता है कि गांवों में शिक्षकों की कमी को दूर किया जाए और शिक्षित ग्रामीण युवाओं को उनके गांव के आसपास ही रोजगार मुहैया करवाया जाए।

पुरानी बात जानना जरूरी
नई शिक्षा नीति में जो बात पुरानी है, वह जानना भी जरूरी है। शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसदी खर्च करने की बात पिछले 50 साल से की जा रही है और इस सिफारिश को एक बार फिर दोहरा दिया गया है। फिलहाल, यह खर्च 4.43 फीसद के आसपास है। देखने में यह आंकड़ा लक्ष्य से ज्यादा दूर नहीं दिखता, लेकिन सच्चाई कड़वी है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार पांच साल पहले सरकार शिक्षा पर 38 हजार 607 करोड़ रुपये खर्च कर रही थी, जो पिछले साल में घटकर 37 हजार करोड़ रुपये रह गया यानी बढ़ने की जगह शिक्षा पर खर्च कम होता जा रहा है।
 
चिंताएं और भी हैं। सरकार ने कहा है कि दो करोड़ बच्चों को स्कूल तक वापस लाएंगे। ये ड्रॉप-आउट रेट लगभग 40 फीसद का है और इसमें भी ज्यादातर लड़कियां हैं, जिनके लिए सरकार ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान चलाया हुआ है। मानव संसाधान विकास मंत्रालय, जो आने वाले दिनों में शायद शिक्षा मंत्रालय के नाम से जाना जाने लगे, उसकी ही एक रिपोर्ट बताती है कि हर साल करीब 17 फीसद लड़कियां 14 साल या आठवी कक्षा के बाद स्कूल जाना छोड़ देती हैं। नई शिक्षा नीति में इस चिंताजनक आंकड़े को लेकर कोई खास चिंता नहीं दिखी है। इसी तरह प्राइमरी स्कूलों से लेकर विविद्यालयों तक शिक्षकों की भारी कमी है। आंकड़ा करीब 10 लाख अध्यापकों का है। कई स्कूल तो महज एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। फिर नई शिक्षा नीति ऑनलाइन एजुकेशन को बढ़ावा देगी और इससे एक नई चिंता यह उभरी है कि हमारा आज का समाज इसके लिए तैयार नहीं है। स्कूल शिक्षा विभाग की रिपोर्ट से पता चलता है कि देश के दस फीसद से भी कम स्कूलों में कंप्यूटर हैं और इंटरनेट की पहुंच तो महज चार फीसद से कुछ ही ज्यादा स्कूलों तक है। इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए प्रस्तावित क्रेडिट पॉलिसी निजीकरण को बढ़ावा दे सकती है। बेहतर ग्रेड पाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए यूनिर्वसटिी छात्रों को पढ़ाई के खर्च से कोई भी राहत मिलनी बंद हो सकती है। आशंका इस बात की है कि इस होड़ में छोटे शहरों के कॉलेज और निचले स्तर के विविद्यालय राष्ट्रीय यूनिर्वसटिी के सामने बेहद कमजोर खिलाड़ी साबित होंगे। शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसद खर्च करने का वादा किया गया है। बेशक, खर्च बढ़ाने से ज्यादा बच्चों को गुणवत्ता वाली शिक्षा मिल सकेगी लेकिन इसके लिए आर्थिक संसाधन कैसे जुटाए जाएंगे, इस का कोई जिक्र नीति में नहीं मिलता।
 
इसलिए सवाल तो उठेगा कि नई शिक्षा नीति देश की अपेक्षाओं पर कितनी खरी उतरी है? सरकार का तो दावा है कि उसकी नई शिक्षा नीति दुनिया में भारत को ज्ञान का सुपरपावर बनाने का काम करेगी। नई नीति में चौतरफा बदलावों को देखकर यह तो मानना पड़ेगा कि सरकार ने शिक्षा के चहुंमुखी विकास की मजबूत आधारशिला रखने की कोशिश की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नये भारत के निर्माण की यह अभूतपूर्व कोशिश केवल नेक इरादा बनकर नहीं, बल्कि एक सच्चा वादा बनकर पूरी होगी।

उपेन्द्र राय


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