आखिर, यह देश हमारा ही तो है

Last Updated 14 Jun 2020 12:09:24 AM IST

कोरोना के लिहाज से बीता सप्ताह दो मामलों में खासा बुरा रहा। पहला तो यह कि भारत दुनिया का चौथा सबसे संक्रमित देश बन गया।


आखिर, यह देश हमारा ही तो है

सप्ताह के आखिरी दिनों में कोरोना के नये मामलों की दर रोजाना 10 हजार से भी ज्यादा हो गई और कुल आंकड़ा तीन लाख के पार हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत ने एक ही दिन में स्पेन और ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया। अब हमसे आगे केवल अमेरिका, ब्राजील और रूस ही बचे हैं। दूसरा मसला और भी ज्यादा बुरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक कोरोना से संक्रमित टॉप-5 देशों में नये मामलों की रफ्तार अब भारत में सबसे ज्यादा हो गई है। यह अब 4.5 फीसद की दर से बढ़ रही है, जबकि दूसरा नंबर ब्राजील का है, जहां ग्रोथ रेट 4.3 फीसद है।

केवल महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडु और गुजरात ही नहीं, बल्कि अब तो उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी कोरोना की रफ्तार बेकाबू होने लगी है। केंद्र और राज्य की सरकारें अलग-अलग आंकड़े दिखाकर भले ही हालात में सुधार का कितना भी गुणा-भाग बताएं, हकीकत यही है कि जमीनी हालात पर सरकारें भी एक-राय नहीं बना पा रही हैं। दिल्ली सरकार सामुदायिक संक्रमण हो जाने का दावा कर रही है, तो केंद्र  और महाराष्ट्र सरकार ऐसी किसी संभावना से इनकार कर रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी मेडिकल रिसर्च संस्था आईसीएमआर सिरो-सर्वे के आधार पर सामुदायिक संक्रमण की आशंका को खारिज कर रही है, लेकिन कोविड-19 के लिए खास तौर पर बनी नेशनल टास्क फोर्स के वैज्ञानिक इस आशंका से साथ खड़े हैं।

आईसीएमआर जिस सिरो-सर्वे का हवाला दे रहा है, वो भी ऐसा नहीं है कि उस पर सवाल ना उठाया जा सकता हो। एक तो यह सर्वे 30 अप्रैल तक के आंकड़ों पर आधारित है, जबकि संक्रमण की रफ्तार उसके बाद ही तेज हुई है। दूसरा यह सर्वे कंटेनमेंट इलाकों से बाहर किया गया यानी जहां संक्रमण की सबसे ज्यादा आशंका थी, सर्वे ने उन्हीं इलाकों को नजरअंदाज कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि आईसीएमआर ने भी अप्रैल में सामुदायिक संक्रमण फैलने का इशारा किया था, लेकिन तब स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसे नकार दिया था। अब जब दिल्ली सरकार जुलाई के आखिर तक वहां कोरोना के साढ़े पांच लाख मामले हो जाने का खतरा बता रही है, तो एक दूसरा आंकड़ा पेश कर कहा जा रहा है कि लॉकडाउन से पहले देश में भी 20 लाख मामलों की आशंका जताई गई थी, लेकिन लॉकडाउन ने गेमचेंजर बनकर संक्रमण को सीमित कर दिया।

बहरहाल, सरकारों का हर दावा सिर-आंखों पर, लेकिन कोई यह भी बताए कि मरीजों की संख्या में रोजाना हो रही बढ़ोतरी का राज क्या है? इससे निपटने के लिए हमारी कितनी तैयारी है? क्या हमारा मौजूदा मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर इसके लिए पर्याप्त है? रेटिंग एजेंसी फिच सॉल्यूशंस की रिसर्च से इन सवालों का जवाब मिलता है, लेकिन ये जवाब भी नये सवाल खड़े करने वाले हैं। रिसर्च के मुताबिक हमारे पास प्रति 10 हजार मरीजों पर 8 डॉक्टर और 8.5 बेड हैं। इंडियन सोसाइटी ऑफ क्रिटिकल केयर की छानबीन बताती है कि देश में आईसीयू बेड भी 70 हजार और वेंटिलेटर 40 हजार ही हैं और इनमें से ज्यादातर मेट्रो, निजी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में ही हैं यानी जिले से लेकर गांवों तक हमारे हेल्थ सिस्टम में सेहत सुधारने की काफी गुंजाइश बची है। मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर के ऐसे चुनौतीपूर्ण हालात का असर अस्पतालों की सेवाओं पर भी दिखता है। तमाम कोशिशों के बावजूद सरकारी अस्पतालों पर लगा दाग छूटने का नाम नहीं लेता।

सरकारी सुविधाओं पर फल-फूल रहे निजी अस्पतालों का कोरोना मरीजों के इलाज से इनकार करना समस्या का एक अलग पहलू है। कोरोना मरीजों से जानवरों से भी बदतर बर्ताव वाली सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने तो हेल्थ के पूरे सिस्टम पर लगे दाग को और गहरा कर दिया है। एक बेड पर दो-दो मरीज, शव के बगल में मरीजों का इलाज, लॉबी और वेटिंग एरिया में लावारिस पड़े शव, मरीजों की तादाद के आगे ऑक्सीजन सपोर्ट सिस्टम और स्टाफ की संख्या का कम पड़ जाना किसे चिंतित नहीं करेगा? वो तो भला हो केंद्र सरकार की कोशिशों का कि हम समय रहते पीपीई किट में आत्मनिर्भर हो गए, वरना कोविड की शुरुआत में ही देश में पीपीई किट के लाले पड़े हुए थे।

सरकार की कोशिशें अपनी जगह हैं, लेकिन इतना भी तय है कि भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में कोई भी सरकार हर काम को संपूर्ण कुशलता के साथ पूरा करने की जिम्मेदारी पर खरी नहीं उतर सकती। अपने सरोकार से जुड़े कुछ मामलों में आम जनता से भी जिम्मेदारी का बोझ बांटने की अपेक्षा की जाती है। खासकर जब समस्या कोरोना जैसी असाधारण हो, तो उसका हल भी साधारण तरीकों से नहीं हो सकता। जहां सोशल डिस्टेंसिंग जरूरी है, वहीं उसके साथ सोशल अवेयरनेस भी जरूरी है, जिसकी जिम्मेदारी सामाजिक संगठन और सेल्फ हेल्प ग्रुप उठा सकते हैं। वैसे इस दिशा में काफी काम हुआ भी है। खासकर महिलाओं के स्व-सहायता समूहों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने इस दौरान सराहनीय काम किया है। छत्तीसगढ़, झारखंड, असम, मध्य प्रदेश जैसे तमाम राज्यों में स्व-सहायता समूह पीपीई किट, मास्क बनाने से लेकर सोशल डिस्टेंसिंग का पाठ पढ़ाती दिखे हैं। इस दौरान कई सेलिब्रिटीज भी सामने आए हैं, जिन्होंने प्रवासी मजदूरों और गरीब परिवारों को उनके घर तक पहुंचाने से लेकर उनके खाने-पीने का बीड़ा उठाया है। लेकिन अभी भी ये कोशिशें नाकाफी हैं। केवल पीएम केयर फंड में राशि भेज देने से ही जिम्मेदारियों का ‘द एंड’ नहीं हो जाता।

समाज की ओर से मदद संसाधन के स्तर पर भी हो सकती है। मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर का हाल बताता है कि वो संक्रमण के आपातकाल से निपटने के लिए नाकाफी है। अस्पतालों में बेड फुल हो गए हैं, तो अब वेटिंग लिस्ट में नाम दर्ज करवाने के लिए भी सवा लाख रु पये तक के लेन-देन की खबरें सामने आ रही हैं यानी अब वो समय भी करीब आ रहा है जब हमें घरों को ही अस्पताल में बदलना पड़ सकता है। आग लगने पर कुआं खोदने से बेहतर है कि हम इसकी पहले से ही तैयारी शुरू कर दें। क्या आपात स्थिति में लोग अपने स्तर पर घरों में ऑक्सीजन सिलेंडर जैसे लाइफ सेविंग इंतजाम रख सकते हैं? देश के कुछ इलाकों में लोगों ने इस ओर जागरूकता दिखाई है। दिल्ली की एक कॉलोनी के रहवासी को जब अस्पताल में यह सुविधा नहीं मिली, तो उस कॉलोनी की रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने अपने स्तर पर सोसायटी में ही ऐसे ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मशीन और सिलेंडर का इंतजाम कर लिया। सोसायटी में रहने वाले एक रिटार्यड डॉक्टर और सीनियर नर्स मदद के लिए आगे आए और मरीज को समय रहते खतरे से बाहर निकाल लिया गया। अब सोसायटी आसपास के इलाकों में भी ऐसे मरीजों के इलाज में मदद कर रही है। मुंबई में भी एक परिवार ने इसी तर्ज पर घर की महिला सदस्य की जान बचाई। इसके लिए परिवार के एक सदस्य ने बाकायदा डॉक्टरों से ऑक्सीजन सिलेंडर लगाने से लेकर मरीज को दी जाने वाली ऑक्सीजन की सही मात्रा की जानकारी ली। कोरोना की चुनौती के बीच आत्मनिर्भरता की यह छोटी-सी कोशिश भी समाज के लिए बड़ी मिसाल बन सकती है।

संक्रमण के बीच आर्थिक गतिविधियों को जारी रखने में भी यह जज्बा देश के काम आ सकता है। प्रवासी मजदूरों के पलायन के बाद बड़े शहरों की बड़ी इकाइयों में जल्द काम शुरू होने की उम्मीद बेमानी है। इसके बजाय फोकस गांवों और छोटे शहरों जैसे देश के उन इलाकों पर किया जा सकता है, जहां इन मजदूरों का रिवर्स माइग्रेशन हुआ है। ऐसे क्षेत्रों में एहतियात के साथ छोटे-छोटे स्तर पर ही सही, आर्थिक गतिविधियों की शुरुआत की जा सकती है। इससे इन मजदूरों की सरकारी मदद पर निर्भरता भी कम की जा सकेगी, साथ ही उन्हें अपने घर के करीब रोजगार के विकल्प भी मिल जाएंगे। वर्क फ्रॉम होम की तर्ज पर प्रोडक्शन फ्रॉम होम पर भी विचार किया जा सकता है। हालांकि असंगठित क्षेत्र में इसकी पुरानी परंपरा है, लेकिन इसे संगठित अमलीजामा पहना कर लोकल को वोकल बनाने की संभावना तलाशी जा सकती है। यह तो स्पष्ट है कि देश के अनलॉक होते ही कोरोना के मामले बेलगाम हुए हैं, लेकिन इसके लिए हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। इसलिए हालत सुधारने के लिए हमें भी जिम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यह देश हमारा ही तो है।

उपेन्द्र राय


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