चीन को सबक सिखाने का ‘आत्मनिर्भर’ प्लान

Last Updated 13 Jun 2020 12:30:21 AM IST

चीन की चालबाजी का तोड़ ढूंढने के लिए भारत को दूसरे देशों के भरोसे रहने के बजाय आत्मनिर्भर बनना होगा। ताजा विवाद सुलझाने के लिए चीन के साथ भले ही बातचीत चल रही है, लेकिन केवल बातचीत से चीन मान जाएगा, ऐसा लगता नहीं। उसे एक बार फिर डोकलाम जैसा कड़ा संदेश देने की जरूरत है कि भारत अब उसके दबाव में आने वाला नहीं। भारत के उस कड़े रु ख का संदेश वियतनाम, मंगोलिया, सिंगापुर, फिलीपींस जैसे पड़ोसी देशों तक भी पहुंचा था कि अगर संकल्प पक्का हो तो चीन के बनाए किसी भी चक्रव्यूह को तोड़ा जा सकता है




चीन को सबक सिखाने का ‘आत्मनिर्भर’ प्लान

चीन के साथ पूर्वी लद्दाख के सीमा विवाद में भारत को कामयाबी मिली है और चीनी सेना को पीछे हटना पड़ा है। बातचीत शुरू करने के लिए भारत ने यह शर्त रखी थी। फिलहाल, बातचीत शुरू हो गई है लेकिन चीन की तरफ से विरोधाभासी संकेत आने बंद नहीं हुए हैं। एक तरफ चीनी डिप्लोमेट सकारात्मक बयान जारी कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीन लद्दाख से लेकर सिक्किम और अरु णाचल तक में अपनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तैनाती बढ़ा रहा है। इसलिए केवल बातचीत से विवाद पूरी तरह सुलझ जाएगा, चीनी माल की ही तरह इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती।

बातचीत किस तरह बढ़ेगी इसका जवाब तो आने वाले दिनों में ही मिल पाएगा लेकिन हर बार की तरह चीन की इस हरकत ने कई सवाल जरूर खड़े कर दिए हैं। चीन की यह हिमाकत क्या केवल सीमा विवाद है या फिर उसकी कोई नई चाल है क्योंकि इस बार का उसका व्यवहार पिछले पैटर्न से बिल्कुल अलग है। इस बार चीन ने नये इलाके में घुसपैठ की है और सैनिकों की संख्या भी पहले से कहीं ज्यादा रही। एलएसी के संदर्भ में गालवान घाटी या पैंगोंग झील को लेकर चीन ने पहले कभी बखेड़ा खड़ा नहीं किया था। उसकी गतिविधियां चुमर या डोकलाम तक सीमित थीं। ऐसा पहली बार हुआ है कि चीन ने पेट्रोलिंग के दौरान अपनी सीमा लांघी तो वो उस इलाके में टेंट गाड़ कर बैठ गया। तीसरा अंतर यह है कि इस बार घुसपैठ की हिमाकत एक नहीं, बल्कि एक से ज्यादा इलाके में एक साथ की गई। इस बार चीन ने एक साथ तीन-तीन इलाकों में चुनौती दी है। और चौथा यह कि चीन अब पहले से ज्यादा आक्रामक और जिद्दी दिख रहा है।

तस्वीर को बड़ा करें तो चीन का बर्ताव थोड़ा और स्पष्ट होता है। वुहान में साजिश की प्रयोगशाला से शुरू हुई कोरोना महामारी ने चीन की अर्थव्यवस्था के अलावा कई देशों से उसके संबंधों को नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में चीन का यह ‘शक्ति प्रदर्शन’ उसकी दबाव नीति का हिस्सा लगता है, जिसमें एक मौका देखकर भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों में बढ़त लेने की फितरत है, तो दूसरी तरफ कोविड के मामले में हो रही किरकिरी की भरपाई करने की हसरत।

वैसे भी अपनी सीमाओं के विस्तार को लेकर चीन की चालबाजी किसी से छिपी नहीं है। रूस के अलावा चीन ही ऐसा देश है, जिसकी सीमाएं 14 देशों से सटी हुई हैं और अकेले पाकिस्तान को छोड़कर ऐसा कोई पड़ोसी नहीं है, जिसके साथ चीन का सीमा विवाद ना हो। उत्तर कोरिया को तो चीन अपना आर्थिक और राजनीतिक दोस्त बताता है, लेकिन सरहद का भूगोल बदलने में चीन ने उसे भी नहीं बख्शा है। मंगोलिया, लाओस, वियतनाम, म्यांमार, अफगानिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान जैसे सभी पड़ोसी आज चीन को शक की नजर से देखते हैं। दक्षिण चीन सागर में चीन के एकछत्र राज की चाहत से मलयेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम और ब्रुनेई जैसे देश परेशान हैं, तो पूर्वी चीन सागर में कुछ द्वीपों को लेकर उसकी जापान से खटपट होती रहती है।

भारत के मामले में तो चीन की चाल और भी टेढ़ी रही है। अपने पड़ोसियों के साथ-साथ चीन की नजरें भारत के पड़ोसियों पर भी लगी रहती हैं। तिब्बत, नेपाल, पाकिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार जैसे भारत के तमाम पड़ोसी देशों को बंदरगाहों, सड़कों और फ्रंटियर रोड जैसे काम के लिए भारी-भरकम कर्ज देकर चीन उन्हें अपने पाले में लाने का जाल फेंकता रहता है। उत्तर, मध्य और दक्षिण एशिया में पैठ बनाने के लिए चीन की ‘वन बेल्ट, वन रोड’ और सिल्क रूट की मुहिम का एक मकसद इन क्षेत्रों में भारत की घेराबंदी करना भी है।

एशियाई नाटो
फिर चीन के विस्तारवादी मंसूबे की काट क्या हो? जिस तरह द्वितीय वि युद्ध के बाद सोवियत संघ की साम्यवादी विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए यूरोपीय देशों ने उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो का गठन किया गया था, उसी तर्ज पर आज एशिया में चीन को रोकने के लिए एशियाई नाटो की जरूरत है। खासकर चीन पर आसियान और सार्क संगठन के लगभग निष्प्रभावी साबित होने के बाद यह और जरूरी हो जाता है। नाटो का एक उपबंध उसके सदस्य सभी 30 देशों को यह सुरक्षा कवच देता है कि किसी भी एक देश पर हमला बाकी सभी देशों पर हमला माना जाएगा। इसी तरह एशिया में भी ऐसा कोई संगठन बन जाता है, तो चीन को अपनी सीमाओं के विस्तार की कोशिश से पहले उसके अंजाम को लेकर कई बार सोचना पड़ेगा।

वैसे, एशियाई नाटो का सुझाव नया नहीं है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने 30 मई, 2014 को सिंगापुर के अपने भाषण में पहली बार एशियाई देशों को नाटो बनाने का मशविरा दिया था। इसके लिए शिंजो आबे ने भारत के साथ ही अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया को मिलाकर एक ऐसा गठजोड़ बनाने की चर्चा की थी, जो चीन के विरु द्ध एशियाई देशों के एक मजबूत गठबंधन की बुनियाद रख सके। दरअसल, जब भी भारत के संदर्भ में चीन का जिक्र होता है, तो यह बात भी बार-बार सामने आती है कि भारत की पश्चिमी और पूर्वी एशियाई ताकतों के साथ नजदीकी चीन की आंखों में कांटे की तरह खटकती है। साल 2007 में जब भारत ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और सिंगापुर के साथ बंगाल की खाड़ी में   ‘ऑपरेशन मालाबार’ में हिस्सा लिया था तब भी चीन ने इस सालाना सामरिक अभ्यास को एशियाई नाटो का नाम दिया था।

बहरहाल, यह बात अब पुरानी पड़ चुकी है और जब तक एक मजबूत एशियाई नाटो का विचार कागज से जमीन पर नहीं उतरता है, तब तक चीन को रोकने के लिए जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ मिलकर बने ‘क्वाड’ पर ही दांव खेला जा सकता है। लेकिन इसके लिए भी भारत को एशिया में सहयोगी देशों के बीच अपनी रणनीतिक सोच को नये सिरे से परिभाषित करना होगा। सबसे पहले तो भारत को आसियान देशों को यह भरोसा दिलाना होगा कि क्वाड में हिस्सेदारी करते हुए भी वो दूसरे क्षेत्रीय समूहों को बराबर की अहमियत देता रहेगा। दरअसल, यह इसलिए जरूरी है कि कई आसियान देशों को लगता है कि उन्हें क्वाड जैसे अहम रणनीतिक गठबंधन से दूर रखा गया है, जिससे वो चीन और ‘एशियाई नाटो’ की लड़ाई में फंस कर रह गए हैं।

एक विकल्प चीन की आर्थिक घेराबंदी का भी हो सकता है। चीन ने इस साल अपनी अर्थव्यवस्था के लिए कोई लक्ष्य तय नहीं किया है यानी वो भी यह मान रहा है कि कोरोना से उबरने के बावजूद आर्थिक रिकवरी आसान नहीं होगी। इसके उलट भारत ने आत्मनिर्भर बनने का लक्ष्य निर्धारित किया है, जो चीन पर आर्थिक दबाव डालकर हासिल किया जा सकता है। स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देकर हम चीन से होने वाले आयात पर अपनी निर्भरता कम कर सकते हैं। अमेरिका भले ही आज हमारा सबसे बड़ा कारोबारी दोस्त बन गया हो, लेकिन चीन से हमारा आयात आज भी 70 अरब डॉलर के करीब है जबकि निर्यात 20 अरब डॉलर से भी कम। ऐसे में अगर हम चीनी उत्पादों का बहिष्कार करें, तो चीन को आर्थिक चोट पहुंचाई जा सकती है। हालांकि डब्ल्यूटीओ के नियमों के कारण क्षेत्रीय और सैन्य समस्याएं होने के बावजूद चीनी सामान पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारे कुल निर्यात का आठ फीसद चीन को जाता है, जबकि वो अपने निर्यात का केवल दो फीसद हिस्सा हमें भेजता है। इसलिए अगर हम उसके उत्पादों का बहिष्कार करेंगे तो वो भी ऐसा कर सकता है, जिससे हमारा ही ज्यादा नुकसान होगा। ऐसे में सरकार चीनी सामान पर एंटी डंपिंग ड्यूटी जैसे शुल्क जरूर लगा सकती है, जिससे
चीनी माल की कीमत बढ़ जाएगी और हमारे घरेलू उत्पादक कीमतों के स्तर पर उनसे मुकाबला कर सकेंगे।

जी-7 में भारत को शामिल करने की अमेरिकी पेशकश का स्पष्ट निहितार्थ भी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन की ताकत को संतुलित करने का दिखता है। इन हालात में अमेरिका की अगुवाई में अगर दुनिया की बाकी शीर्ष अर्थव्यवस्थाएं भी चीन के बनाए माल का बहिष्कार करें तो चीन पर लगाम जरूर लगाई जा सकती है। लेकिन आज की आर्थिक व्यवस्था में हर देश के चीन से अपने-अपने हित जुड़े हैं। यहां तक कि चीन से रिश्तों में ऐतिहासिक कड़वाहट के बावजूद अमेरिका के लिए चीन से पूरी तरह मुंह मोड़ना संभव नहीं दिखता।
इसलिए चीन की चालबाजी का तोड़ ढूंढने के लिए भारत को दूसरे देशों के भरोसे रहने के बजाय आत्मनिर्भर बनना होगा। ताजा विवाद सुलझाने के लिए चीन के साथ भले ही बातचीत चल रही है, लेकिन केवल बातचीत से चीन मान जाएगा, ऐसा लगता नहीं। उसे एक बार फिर डोकलाम जैसा कड़ा संदेश देने की जरूरत है कि भारत अब उसके दबाव में आने वाला नहीं। भारत के उस कड़े रु ख का संदेश वियतनाम, मंगोलिया, सिंगापुर, फिलीपींस जैसे पड़ोसी देशों तक भी पहुंचा था कि अगर संकल्प पक्का हो तो चीन के बनाए किसी भी चक्रव्यूह को तोड़ा जा सकता है।                                 

उपेन्द्र राय


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