चालबाज चीन का स्याह चरित्र

Last Updated 07 Jun 2020 01:02:20 AM IST

पूर्वी लद्दाख में चीन से लगी भारत की सीमा पर तीन साल बाद शांति फिर टूटी है। लेह की पैंगोंग झील और गालवन घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच तनातनी के बाद दोनों ओर तनाव के हालात बन गए हैं।


चालबाज चीन का स्याह चरित्र

हालांकि भारत और चीन ने अपने-अपने कूटनीतिक तंत्र को सक्रिय कर विवाद की आग को फिलहाल शांत कर लिया है, लेकिन कब कौन-सी दबी चिंगारी फिर सुलग जाए इस पर अनिश्चितता बरकरार है।

साल 2017 में जब डोकलाम हुआ था तब सीमा पर हालात सामान्य होने में 73 दिन लग गए थे। हालिया विवाद इसलिए गंभीर है क्योंकि चीनी सेना ने सरहदी समझौते को तोड़ते हुए भारतीय पोस्ट तक पहुंचने वाली सड़क पर कैम्प लगाने की हिमाकत की है। 260 किलोमीटर लंबी यह सड़क दरबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी सड़क है, जो एलएसी इलाके में सेना की उत्तरी चौकी को जोड़ती है। यह सड़क एलएसी तक हर मौसम में तेजी से रसद पहुंचाने के लिए बन रही उन 73 सड़कों में शामिल है, जिन पर पिछले छह साल में या तो काम पूरा हो चुका है, या तेजी से पूरा किया जा रहा है।

तो क्या दशकों से सीमा पर भारत का जो इलाका भारतीय सेना के लिए दुर्गम बना हुआ था, उस पर इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की भारत की कोशिश ही चीन की ताजा बौखलाहट का नतीजा है? यकीनन यह एक वजह है, लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है। इसकी बुनियाद तो पिछले साल अगस्त में ही पड़ गई थी जब भारत ने धारा 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर का बंटवारा कर दिया था। इस बंटवारे से केवल पाकिस्तान के मंसूबों को ही झटका नहीं लगा था, बल्कि लद्दाख का सीधे-सीधे केंद्र की निगरानी में आ जाना चीन के लिए भी किसी सदमे से कम नहीं था। इस दौरान चीनी मीडिया में छपी खबरों से यह साफ होता है कि वहां बड़े पैमाने पर यह धारणा बनी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में चीन को लेकर भारत का रवैया बदल गया है। 2018 में वुहान समिट के बाद दोनों देशों के संबंध स्थिर होने लगे थे, लेकिन लद्दाख की स्वायत्तता और फिर अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड या चतुर्भुज सामरिक संवाद में भारत की बढ़ती भागीदारी से उसकी ‘वन चाइना पॉलिसी’ खटाई में पड़ गई है। हांगकांग, ताइवान, वियतनाम और तिब्बत पहले से ही इस पॉलिसी की कड़ी परीक्षा ले रहे हैं। चीन ने पिछले अप्रैल में दक्षिण चीन सागर में वियतनामी जहाज को डुबा दिया था। फिर हांगकांग में जब विरोध के स्वर बुलंद हुए तो उन्हें दबाने के लिए चीन ने कानून सख्त कर दिया। ताइवान को तो वो अलगाव के खिलाफ लगातार चेताता रहा है।

लेकिन चीन यह भी अच्छे से जानता है कि भारत के साथ बांह मरोड़कर बात मनवा लेने वाला दांव नहीं खेला जा सकता। उसकी बौखलाहट की एक वजह यह भी हो सकती है कि उसे कोरोना का कुहासा छंटने के बाद भारत से व्यापारिक रिश्तों में दरार की आशंका परेशान कर रही हो। आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में भारत का बड़ा बाजार हर देश को आकर्षित करता है। यहीं इस विवाद में अमेरिका की एंट्री भी होती है। ट्रेड वार के बाद भी चीन में अमेरिका का निवेश कम नहीं हुआ है, लेकिन भारत से उसके लगातार बेहतर होते रिश्ते चीन को खटक रहे हैं। वैसे भी कोविड के बहाने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस कोशिश में जुटे हैं कि चीन को दुनिया से अलग-थलग कर दिया जाए। चीन से अपनी बादशाहत को मिल रही गंभीर चुनौती और चुनावी साल में चीन के खिलाफ अमेरिका में फैली नकारात्कता रणनीतिक रूप से ट्रंप के लिए फायदेमंद है। चीन भी अपने गुट को बड़ा करने में जुटा है। ऐसे में भारत इन दो महाशक्तियों की पावर पॉलिटिक्स का केंद्र बन गया है।

इस सबके बीच कश्मीर पर पाकिस्तान से कई बार मध्यस्थता का राग अलाप चुके ट्रंप ने पहली बार चीन को लेकर भी ऐसी पेशकश कर दी है। अब यह पेशकश कितनी गंभीर है, इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि जो अमेरिका खुद चीन से अपने मसले नहीं सुलझा पा रहा है, वो किस मुंह से भारत और चीन को रिश्ते सुधारने के लिए कह सकता है। दरअसल, यह मामला ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ वाला है। अमेरिका की मंशा झगड़ा सुलझाने की नहीं, बल्कि यह दिखाने की है कि वो भारत के साथ खड़ा है और अब भी दुनिया में शांति बनाए रखने में उसकी चौधराहट बरकरार है।

अमेरिका ने जी-7 का विस्तार कर उसे जी-11 या जी-12 बनाकर भारत को उसमें शामिल होने का प्रस्ताव भी दिया है। जी-7 दुनिया की सात बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों का समूह है। इसमें भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील को भी जोड़ने की योजना है जबकि रूस को लेकर अभी असमंजस बना हुआ है। चीन इस योजना से इसलिए तिलमिलाया हुआ है क्योंकि इंडो-पैसिफिक इलाके में वो इसे अपनी घेराबंदी और भारत की अहमियत बढ़ाने की अमेरिकी साजिश के तौर पर देख रहा है।

यह भी एक वजह है कि वुहान और चेन्नई में भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने की पहल में शामिल होने वाले चीन ने भारत को घेरने के लिए एक तरफ नेपाल को मोहरा बनाया है, तो दूसरी तरफ खुद सीमा विवाद उठाकर भारत पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। जी-7 वाले मसले पर भी उसने भारत को पुरानी दोस्ती का हवाला दिया है और संभावित कोल्ड वार में अमेरिका के साथ जाने को आग से खेलना बताया है।

लब्बोलुआब यही है कि दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनने और सीमाओं के विस्तार की अपनी आकांक्षाओं से चीन कभी समझौता नहीं करेगा। चीन के सरकार समर्थक ‘वेन वेई पो’ अखबार में सात साल पहले मैंडरिन भाषा में एक लेख छपा था, जो उसकी विस्तारवादी सोच की एक झलक देने के लिए काफी है। इस लेख में दावा किया गया था कि अपनी सीमाओं के विस्तार और तथाकथित विदेशी कब्जे वाली जमीनों को दोबारा हासिल करने के लिए चीन ने अगले 50 साल में छह युद्ध लड़ने की योजना बनाई है और वो इसका ब्लूप्रिंट भी तैयार कर चुका है।

इसमें भारत के साथ भी एक युद्ध शामिल है, जो दक्षिण तिब्बत को हथियाने की चीन की योजना का फ्लैशप्वाइंट होगा। अखबार के मुताबिक इसके लिए 2035 से 2040 का कालखंड निर्धारित किया गया है क्योंकि चीन का मानना है कि तब तक वो सैन्य शक्ति के मामले में भारत से काफी आगे निकल चुका होगा। इसके बावजूद चीन को इस बात का डर है कि अगर सीधा युद्ध हुआ तो इस बार उसे भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए उसने भारत को टुकड़ों में बांटकर कमजोर करने का प्लान तैयार किया है। इसके लिए वो पूर्वोत्तर में असम और सिक्किम में खुद अशांति के हालात बनाएगा और उत्तर में कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तान को हथियार सप्लाई कर मदद करेगा। चीन को उम्मीद है कि भारत को एक साथ दो मोर्चे पर उलझा कर दक्षिण तिब्बत पर कब्जा जमाने का उसका सपना पूरा हो जाएगा।

भारत ही नहीं, चीन अपने दूसरे पड़ोसी और फिलहाल करीबी सहयोगी माने जाने वाले रूस के सरहदी इलाकों पर भी नजरें जमाए बैठा है। चीन की योजना है कि पांच युद्ध जीतकर वो इतना शक्तिशाली बन चुका होगा कि जब वो किंग साम्राज्य के समय का नक्शा सामने रखकर रूसी सीमा में शामिल हिस्से का दावा ठोकेगा तो रूस के सामने ज्यादा विकल्प नहीं बचे होंगे। चीन की सोच इतनी आक्रामक है कि इसके लिए वो 2055-2060 के बीच रूस से आमने-सामने के युद्ध के लिए भी तैयार है क्योंकि उसका मानना है कि 21वीं सदी के मध्य तक दुनिया में उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं बचेगा क्योंकि रूस और जापान कमजोर पड़ चुके होंगे, भारत और अमेरिका की ताकत स्थिर हो जाएगी और वो खुद दुनिया की नई सुपर पावर बन चुका होगा।

इसलिए जो लोग कोरोना महामारी के बीच चीन के सीमा विवाद भड़काने पर हैरान हैं, उन्हें चीन की यह सोच नये सिरे से परेशान कर सकती है। यह भी मुमकिन है कि चीन ने अगले 50 साल के अपने गेम प्लान में एक मोहरा और आगे बढ़ाया हो। वैसे भी चीन की पहचान उसकी उस वैश्विक रणनीति से ही होती रही है, जो दुनिया को आपदा में डालकर उसमें खुद अपने फायदे का अवसर तलाशता है।

उपेन्द्र राय


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