आत्मनिर्भर भारत अभियान आंतरिक शक्ति की पहचान

Last Updated 29 May 2020 11:16:10 PM IST

सबसे महत्त्वपूर्ण यह होगा कि देश की जनता भी बदलाव के इस अभियान में अपना हाथ बंटाए। इस मामले में जापान जैसे देश हमारे लिए मिसाल का काम कर सकते हैं, जहां की जनता इतनी मेहनतकश और सहयोगी है कि सरकार की आधी जिम्मेदारी जनता के भरोसे ही पूरी हो जाती है


आत्मनिर्भर भारत अभियान आंतरिक शक्ति की पहचान

कोरोना वायरस से प्रभावित देश की अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के लिए केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है। व्यावहारिक रूप से यह आंकड़ा 21 लाख करोड़ रु पए का है, जो न केवल हमारी जीडीपी का 10 फीसद हिस्सा है, बल्कि प्रसंगवश दुनिया के करीब 150 देशों की जीडीपी से ज्यादा होने के कारण ऐतिहासिक भी बन गया है। लेकिन इस ऐलान का सबसे सार्थक पक्ष आर्थिक सुधारों में नई जान फूंकने  का है, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का अभियान बनाया है।

दरअसल, इकोनॉमी में आमूल-चूल सुधार की बात लंबे समय से हो रही थी। प्रधानमंत्री लगातार कोरोना संकट को देश के लिए अवसर बता रहे थे। इसी राह पर चलते हुए सरकार ने इकोनॉमी में मूलभूत बदलाव लाने का संकल्प लेकर इस बहुआयामी अभियान को जमीन पर उतारने का फैसला किया है। यह कैसे होगा? इसका खाका भी सरकार ने तैयार कर लिया है। रिफॉर्म 2.0 के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री ने चार साधक और पांच पिलर वाली नौ सीढ़ियों का सूत्र दिया है। चार साधक यानी चार एल लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लॉ और पांच पिलर यानी इकोनॉमी, इंफ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी और डिमांड। मौटे तौर पर इन नौ शब्दों में ही देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले रोडमैप का पूरा सार छिपा है। इसमें देश को सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले एमएसएमई सेक्टर को नई पहचान देने का ब्लू प्रिंट है, तो बड़े उद्यमियों के लिए राहत भी। देश के खेत-खलिहान को अपने पसीने से सींचने वाले किसान के लिए स्वावलंबन की सौगात है, तो देश का पहिया खींचने वाले दिहाड़ी मजदूरों के लिए अब अपने पैरों पर खड़े होने का अवसर भी है।

जाहिर है भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने की मंशा वाले इस अभियान का रास्ता गांवों से होकर ही गुजरेगा। ऐसे हालात में ग्रामीण विकास भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा सहारा दे सकता है। ग्रामीण विकास का सीधा संबंध हमारे किसानों से जुड़ता है और कृषि क्षेत्र में क्रांति के लिए कृषिगत अधोसंरचना के साथ ही प्रशासनिक और नीतिगत सुधारों की तैयारी है। कृषि कल्याण के लिए इस पैकेज में इस साल 30 हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त व्यवस्था की गई है। इसी तरह एमएसएमई के लिए उठाए जा रहे कदम भी लिक्विडिटी बढ़ाने के साथ ही कारोबारियों को सशक्त बनाएंगे और उनके बीच प्रतिस्पर्धा भावना को मजबूत करेंगे। 100 करोड़ रु पये तक के टर्नओवर वाली यूनिट्स के लिए एमएसएमई की परिभाषा में बदलाव गेमचेंजर साबित हो सकता है। इसी तरह ढांचागत विकास में खनन से लेकर गगन तक देश को आत्मनिर्भर बनाने के प्रावधान दिखे हैं। ये सब सुधार ऐसे हैं, जिनके पीछे एक दूरदर्शी सोच दिखती है। इसलिए इनका जमीन पर असर दिखने में थोड़ा वक्त लग सकता है, लेकिन इससे जो बदलाव होगा उम्मीद है कि वो काफी टिकाऊ साबित होगा।

आत्मनिर्भरता पहली जरूरत
लेकिन आत्मनिर्भर बनने के लिए सबसे पहली जरूरत होगी कि हम अपनी सोच में आत्मनिर्भर बनें। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महत्त्वाकांक्षी अभियान पर कुछ चर्चाओं में उपहास के स्वर भी सुनाई दिए हैं। ऐसे लोगों के लिए आज यह जानना जरूरी है कि अगर हमने ऐसी सोच नहीं रखी होती तो हम अंग्रेजों की गुलामी से कभी आजाद भी नहीं हो पाते। आजादी की लड़ाई का एक मजबूत स्तंभ स्वदेशी आंदोलन भी था, जिसकी बुनियाद ही आत्मनिर्भरता पर टिकी थी। सैद्धांतिक सोच का यह फर्क केंद्र और कई राज्य सरकारों के बीच भी दिखता है। केंद्र सरकार तो अपना पूरा जोर लगा ही रही है, राज्य सरकारों को भी उसका हाथ थामने के लिए आगे आना होगा ताकि केंद्र और राज्य एक टीम की तरह मिलकर देश को आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य हासिल कर सकें। अगर हम राज्य सरकारों से केंद्रीय दिशा-निर्देशों के पालन की उम्मीद करते हैं, तो केंद्र से भी राज्यों के कामकाज में गैर-जरूरी हस्तक्षेप नहीं करना अपेक्षित रहेगा।

व्यावहारिक तौर पर हमें ऐसे कानूनों की जरूरत पड़ेगी जो सही अथरे में हमारे कामगारों के हितों का संरक्षण करते हों। ऐसे कानून पहले से होते तो प्रवासी मजदूरों को ऐसे दिन नहीं देखने पड़ते। कोरोना ने इस मामले में हमें बड़ा सबक सिखाया है। राज्यों की आपसी रस्साकशी से आज लाखों मजदूर बेघर हो गए हैं। अधर में झूल रहे इन विस्थापित कामगारों का व्यवस्था में दोबारा भरोसा बहाल करवाना आसान नहीं होगा। हमारी एक बड़ी चुनौती कारोबार की हमारी प्रक्रियाएं भी हैं, जो कई बार इतनी जटिल हो जाती हैं कि कारोबारी इसमें उलझ कर रह जाते हैं। आत्मनिर्भरता की राह में प्रोसेस रिफॉर्म लाकर इन प्रक्रियाओं को सरल बनाने की भी जरूरत है। टैक्स सिस्टम को भी बिजनेस-फ्रेंडली बनाने के लिए काफी गुंजाइश है।

सबसे महत्त्वपूर्ण यह होगा कि देश की जनता भी बदलाव के इस अभियान में अपना हाथ बंटाए। इस मामले में जापान जैसे देश हमारे लिए मिसाल का काम कर सकते हैं, जहां की जनता इतनी मेहनतकश और सहयोगी है कि सरकार की आधी जिम्मेदारी जनता के भरोसे ही पूरी हो जाती है। दूसरे वि युद्ध में हार के बाद पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका की ओर से जापान को सैन्य शक्ति में ही नहीं, बल्कि आत्मसम्मान के मामले में भी लाचार बनाने की कोशिश से हुई। लेकिन परमाणु हमले, आये-दिन के भूकंप, सुनामी और ज्वालामुखी से होने वाली तबाही और खाद्य और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों के बिना भी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाना जापान के लोगों के लिए खास सम्मान का भाव पैदा करता है। इस तरक्की का राज यहां की कार्य संस्कृति में छिपा है। दुनिया-भर में हड़ताल का एक ही मतलब होता है  काम बंद। लेकिन जापान के लोग इतने मेहनतकश होते हैं कि उन्होंने हड़ताल की भी अपनी अलग परिभाषा बनाई हुई है। लोग हड़ताल के दौरान ओवरटाइम करते हैं, ताकि फैक्ट्रियों में उत्पादन बढ़ जाए जिससे मालिक खासे प्रभावित हों। इसी जुनून के दम पर जापान आज ऑटो इंडस्ट्री, इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर हार्डवेयर जैसे कई सेक्टर में पूरी तरह आत्मनिर्भर देश बन चुका है।

कोरोना संकट में जापान ने अपने जीडीपी के 21 फीसद के बराबर के पैकेज का ऐलान किया है और दुनिया को उम्मीद है कि वो इस चुनौती को भी पार कर जाएगा। दरअसल, भारत और जापान, दोनों ही यूरोपीय जातियों की साम्राज्यवादी चेतना के शिकार रहे हैं, फर्क है तो बस टाइमलाइन का। भारत द्वितीय युद्ध के पहले तक और जापान उस युद्ध के बाद से।

चुनौतियां
दूसरे विश्व युद्ध के कुछ साल बाद भारत आजाद हुआ और स्वतंत्र देश के सामने जब चुनौतियों ने सिर उठाया, तो हमने उसका जवाब आत्मनिर्भर बनकर ही दिया। बंटवारे के बाद जब खाद्यान्न का संकट गहराया, तो हरित क्रांति ने हमें अनाज की आपूर्ति में आत्मनिर्भर बनाया। कभी अपना पेट भरने के लिए दूसरे देशों से खाद्यान्न मंगाने वाला हमारा देश आगे चलकर बाकी दुनिया का पेट भरने लायक भी बना। 50 के दशक में ही दूध के उत्पादन में स्थायित्व और दूध के उचित मूल्य की व्यवस्था करने के लिए देश ऐसा एकजुट हुआ कि अगले दो दशकों में ही दूध का उत्पादन 50 लाख टन बढ़ गया। उस श्वेत क्रांति का असर यह है कि भारत आज दूध की घरेलू जरूरत पूरी करने के साथ ही दुनिया में सबसे ज्यादा दूध उत्पादन वाला देश भी बना हुआ है। इसके बाद देश मछली और तिलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने और रोजगार बढ़ाने के लिए हुई नीली और पीली क्रांति का भी गवाह बना। इसी तरह साल 1991 के आर्थिक सुधार व्यापार और उद्योग में आत्मनिर्भरता लाने के आधार बने। इन सुधारों का सीधा असर यह हुआ कि तीन दशक बाद आज देश में गरीबी की दर आधी रह गई है और साल 1991 की हमारी जीडीपी 266 बिलियन डॉलर से बढ़कर साल 2020 में 2.59 ट्रिलियन डॉलर हो गई है। खुद के दम पर अपनी जरूरतें पूरी करने और तरक्की हासिल करने का यह अभियान मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल में भी जारी रहा है। भारत को वैश्विक हब बनाने के लिए साल 2014 में मेक इन इंडिया की बुनियाद पड़ी। इसके असर से पिछले वित्तीय साल में एफडीआई 49 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है। साल 2015 के बजट से लॉन्च हुई मुद्रा योजना आज देश के उन युवाओं के सपने को सच करने का काम कर रही है, जो स्वरोजगार के बूते अपने परिवार के साथ-साथ देश को भी आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दे रहे हैं। साल 2016 से शुरू हुआ स्टार्ट अप इंडिया भी इसी तरह सफलता के झंडे गाड़ रहा है। वंचित तबके के लिए शुरू की गई प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना और आयुष्मान भारत पीएम केयर्स स्वास्थ्य योजना भी देश को आत्मनिर्भर बनाने के सिलसिले का ही विस्तार है।

आज भारत के सामने एक बार फिर अपनी आंतरिक शक्ति को नई पहचान देने की चुनौती आ खड़ी हुई है। कोरोना संकट ने वैीकरण की कमियों को उजागर करते हुए उसे गहरी चोट पहुंचाई है, तो यह भारत के लिए लोकल को वोकल बनाने का मौका भी है, जिसे आत्मनिर्भर बनकर ही हासिल किया जा सकता है।

उपेन्द्र राय


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