डर के आगे उम्मीद की डगर

Last Updated 24 May 2020 01:39:43 AM IST

भारत में जब अप्रैल का महीना खत्म हो रहा था, तब देश में लॉकडाउन लागू हुए एक महीने से ज्यादा का समय बीत चुका था।


डर के आगे उम्मीद की डगर

यह वही समय था जब इन्फोसिस के संस्थापक पद्मश्री एनआर नारायणमूर्ति ने देश और सरकार को लंबे लॉकडाउन के खतरे से आगाह किया था। नारायणमूर्ति ने जो कुछ कहा उसका निचोड़ यही था कि अगर भारत में लॉकडाउन लंबा खिंचा, तो कोरोना के मुकाबले भुखमरी से ज्यादा लोगों की जान जा सकती है। इस चेतावनी के साथ ही मूर्ति ने सरकार को यह सलाह भी दी थी कि वो कोरोना वायरस को न्यू नॉर्मल के रूप में स्वीकार कर और संक्रमितों का ध्यान रखते हुए सक्षम लोगों के लिए काम पर वापस लौटने का माहौल तैयार करे।

करीब तीन हफ्ते बाद देश ठीक इसी दिशा में आगे बढ़ता दिख रहा है। अब इसमें नारायणमूर्ति की सलाह का कोई हाथ है या सरकार को अपने स्रोतों से मिली जानकारी का आधार यह तो पता नहीं लेकिन इतना स्पष्ट है कि कोरोना से निपटने की नीति में यू-टर्न दिखाई देने लगा है। ‘जो जहां हैं, वहीं रहें’ की नीति एक मई को ही बदल दी गई थी। लॉकडाउन तीन लागू होते समय ही शराब की बिक्री भी शुरू कर दी गई थी। अब इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने कोरोना टेस्ट के लिए भी नए दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं, जिसके अनुसार जरूरी मामलों में ही कोरोना के टेस्ट हुआ करेंगे। श्रमिक स्पेशल और एसी ट्रेनों के बाद अब 1 जून से नॉन एसी ट्रेनें भी चलेंगी। 31 मई तक घरेलू उड़ानें नहीं चलने की घोषणा के बीच नई घोषणा आ गई कि 25 मई से यह सेवा भी शुरू होने जा रही है। चौथा लॉकडाउन शुरू होते ही वह दिशा-निर्देश भी वापस ले लिया गया, जिसमें फैक्टरी मालिकों से कहा गया था कि कामगारों को नहीं निकालें और उनके वेतन न काटें। लॉकडाउन 4 के दिशा-निर्देशों के अनुसार अब कारखाने भी खुल रहे हैं और दुकानें भी, ट्रैफिक भी दिखने लगा है और निर्माण कार्य भी, मगर शतरे के साथ। सवाल उठता है कि न संक्रमण का विस्तार थम रहा है, न मौत के मामले रु क रहे हैं, न कोई दवा मिली है, न वैक्सीन, फिर ऐसे इतनी ढील देने का आधार क्या है? पिछले दिनों में आखिर ऐसा क्या हुआ कि जान और जहान के बीच संतुलन का लक्ष्य दोनों को तराजू के एक ही पलड़े में तौलने की कवायद बन कर रह गया? इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि लॉकडाउन के शुरुआती दो चरण बेहद सफल रहे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक अपील पर देश ने 40 दिनों तक जो संयम दिखाया उसे हर किसी ने सराहा। सियासी मतांतर से प्रेरित आलोचना के बावजूद देश का विपक्ष भी कमोबेश सहयोगी भूमिका में ही दिखाई दिया। देश ही नहीं, इस दौर का सख्त लॉकडाउन दुनिया भर में चर्चा का विषय बना। तो फिर उस दौर की कामयाबी को पीछे छोड़कर हम क्यों उस राह पर बढ़ चले हैं जिस पर अमेरिका और ब्रिटेन पहले से ही कदमताल कर रहे हैं। वो भी तब जब मौत के चढ़ते ग्राफ के बीच लॉकडाउन को लेकर दोनों देशों का ढुलमुल रवैया उनके अपने देशों में ही कड़ी आलोचना का सबब भी बन रहा है। दरअसल, अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों का फैसला एक पूर्व निर्धारित कार्य योजना का हिस्सा दिखता है, जिसमें इन देशों ने अपने देशवासियों का जीवन चक्र सुरक्षित करने की तुलना में अर्थव्यवस्था के पहिए को चलायमान रखना ज्यादा जरूरी समझा। हमारी सरकार ने देशवासियों की जान बचाने को प्राथमिकता दी, लेकिन अब जब हम भी वरीयता बदलने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं तो यह कदम तीसरे और चौथे लॉकडाउन में बने हालात से प्रेरित दिखता है। यह बात हर कोई पहले से ही जानता था कि लॉकडाउन कोरोना के विस्तार को कुछ समय के लिए टाल सकता है, उसे खत्म नहीं कर सकता। राज्यों के साथ मंथन और उनके आग्रह पर जब लॉकडाउन को तीसरे और चौथे चरण तक बढ़ाकर उसमें ढील दी गई तो संक्रमण और मौत के चढ़ते ग्राफ से यह बात प्रमाणित भी हो गई। देश का वर्तमान संकट सड़क पर मजदूरों का होना है जो भूखे और बेचैन हैं, हताश और निराश हैं। कई अथरे में कोरोना पॉलिसी में जो यू-टर्न आया है; उसकी वजह यही मजदूर हैं।

मजदूरों की बेबसी समय-समय पर कभी गुजरात, कभी महाराष्ट्र, कभी राजस्थान तो कभी तेलंगाना और मध्य प्रदेश में रोषपूर्ण प्रदर्शन के रूप में सामने आती रही। कभी रेल हादसे में उनकी बेबसी को देश ने देखा, कभी सड़क हादसों में। रोजगार और कमाई के सोत छिन जाने से इन मजदूरों के सामने अपने परिवार का पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। भूख से बेबस इन परिवारों के लिए कोरोना का डर भी मामूली बन कर रह गया। वैसे राज्यों के बीच आपसी समन्वय से इस स्थिति को टाला जा सकता था। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब जैसे प्रांतों में प्रवासी मजदूरों की बहुतायत है और इनमें से ज्यादातर उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल से आते हैं। जिन प्रदेशों को मजदूर छोड़ना चाहते थे, वहां के शासन-प्रशासन की रु चि उन्हें वहीं बनाए रखने में थी। मगर, ऐसा तब हो पाता जब उनके लिए रोजगार बचे होते या फिर कम-से-कम दो वक्त के भोजन की गारंटी होती। मगर ऐसा हुआ नहीं। अब जब मजदूर अपने गृहप्रांतों में लौट रहे हैं तो वहां भी यह इंतजाम हो पाएंगे यह संभव नहीं दिखता। यानी पेट की आग मिटाने के लिहाज से मजदूरों के लिए इधर कुआं, उधर खाई वाले हालात हैं। हालात की इन कसौटियों पर सरकार के फैसले को कसा जाए तो नियमों में ढील का आशय खुद-ब-खुद साफ हो जाता है। कोरोना के जोखिम से बचाने के साथ ही देश की एक बड़ी आबादी को भुखमरी से बचाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। कोरोना काल में लगभग 67 फीसद मजदूर अपना रोजगार गंवा चुके हैं, जिससे उनके लिए दो-जून की रोटी दूभर हो गई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि कोरोना की मार भारत की कम-से-कम 40 करोड़ आबादी के सामने आजीविका का ऐसा संकट खड़ा कर सकती है, जहां उनके लिए पेट भरने का इंतजाम जुटाना असंभव हो जाएगा। ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2019 की रिपोर्ट में तो महामारी शुरू होने से पहले ही भारत में भुखमरी के स्तर गंभीर होने की चेतावनी जारी कर दी गई थी। इस सबके बीच सरकार को अपने स्रोतों से भी हालात विकट होने की जानकारी है। इससे उबरने का एक ही रास्ता है कि मजदूर ही नहीं, अर्थव्यवस्था के लिए अहम हर किरदार के हाथों में पैसा पहुंचे।

बेशक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार ने 20 लाख करोड़ रु पये के पैकेज की घोषणा की है, लेकिन पटरी पर आने के बाद इसे दौड़ाने के लिए आर्थिक गतिविधियों की भी जरूरत पड़ेगी। हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है इस सबसे संक्रमण फैलने का खतरा भी बढ़ेगा। लेकिन सरकार के सामने अब यह जोखिम उठाने की मजबूरी भी है और यह वक्त के हिसाब से जरूरी भी दिखता है। लॉकडाउन के बावजूद भारत की विकास दर के अनुमान अब तक सकारात्मक ही दिख रहे थे, लेकिन अब ताजा सर्वे इसके शून्य से नीचे जाने का अंदेशा जताने लगे हैं। यानी हालात अब वाकई शून्य से शुरुआत करने वाले बन गए हैं। जाहिर है केवल कल-कारखानों में उत्पादन शुरू हो जाने से काम नहीं बनेगा। इसके लिए असंगठित क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियां शुरू करनी होंगी जो लॉकडाउन की बंदिशों को हटाए बिना संभव नहीं होगा।

उपेन्द्र राय


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