भारत पर भी दंगल टालने का दारोमदार

Last Updated 12 Jan 2020 02:33:26 AM IST

बड़ी ताकत बड़ी जिम्मेदारी लाती है। कहने को ये कहावत भले ही एक कॉमिक सीरीज स्पाइडर मैन से लोकप्रिय हुई है, लेकिन पूरी दुनिया इस बात की गंभीरता को मानती है।


भारत पर भी दंगल टालने का दारोमदार

इसलिए ये संयोग नहीं कि जब-जब इस बात को नजरअंदाज करने की कोशिश हुई है, तबाही की आहट सुनाई दी है। ईरान पर अमेरिकी हमले और उसके बाद बने हालात इस बात की नई मिसाल है। अमेरिका ने नए साल के पहले हफ्ते में बगदाद एयरपोर्ट पर जनरल कासिम सुलेमानी को एयर स्ट्राइक में मार गिराया। इसके बाद ईरान ने इराक में अमेरिका के दो सैनिक ठिकानों पर ऑपरेशन शहीद सुलेमानी के तहत 22 मिसाइलें दागीं और 80 अमेरिकियों के मारे जाने का दावा किया। हालांकि अमेरिका ने मौत के आंकड़ों की पुष्टि नहीं की। लेकिन ईरान इसे सुलेमानी की मौत का बदला बता रहा है। वार-पलटवार के इस वाकये ने दुनिया को अचानक तीसरे वियुद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया।

अमेरिका की ओर से सुलेमानी पर हमले की कई वजहें गिनाई गई। कहा गया कि सुलेमानी के उकसावे पर ही बगदाद में अमेरिकी दूतावास को घेरा गया, 27 दिसम्बर को रॉकेट हमले में अमेरिकी ठेकेदार की हत्या की गई, उससे पहले सऊदी अरब के एक तेल क्षेत्र पर जबर्दस्त हमला किया गया। लेकिन इस सबके बीच अमेरिका की इस कार्रवाई को जायज नहीं ठहराया जा सकता। सुलेमानी ओसामा बिन लादेन या बगदादी नहीं था, जिसे कानूनों को ताक पर रखकर मार दिया जाए। सुलेमानी जो कर रहा था, उसमें उसे अपने देश की भलाई दिखती थी। अमेरिका को वो उकसाने वाली कार्रवाई लग रही थी तो भी दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश होने के नाते उसकी जिम्मेदारी बनती थी कि वह ईरान के साथ बातचीत की पहल करता, ईरान के मित्र देशों के साथ चर्चा करता और ये भी संभव नहीं होता तो सुरक्षा परिषद के जरिए सुलह के रास्ते तलाशता। लेकिन अमेरिका ने इन संभावनाओं को दरकिनार करते हुए शक्ति प्रदर्शन का रास्ता चुना जिसने पूरी दुनिया को सकते में ला दिया।

अमेरिकी हमले की पृष्ठभूमि में डोनाल्ड ट्रंप का वह बयान भी आया जिसमें वे ईरान के 52 इलाकों को अमेरिका के निशाने पर बताते रहे हैं। ट्रंप का कहना है कि ईरान ने साल 1979 में 52 अमेरिकियों को एक साल तक बंदी बनाकर रखा था और 52 इलाकों पर हमला कर वह उसी बात का बदला लेना चाहते हैं। कथित राष्ट्रवाद की इससे बचकानी सोच ढूंढ़े नहीं मिलेगी जो एक राष्ट्र को आगे ले जाने के बजाय 40 साल पीछे ले जाने वाली हो।

अमेरिका बेशक जनरल सुलेमानी को आतंकी कहता था, लेकिन वह वास्तव में ईरान के सुरक्षा कवच थे। पूरा ईरान उन पर अपनी जान छिड़कता था। सुलेमानी के जनाजे में जितनी बड़ी तादाद में लोग शरीक हुए वह उनकी लोकप्रियता को दर्शाता है और अमेरिका की ओर से एकांगी तरीके से सुलेमानी को आतंकी घोषित किए जाने पर प्रश्नचिह्न लगाता है। ईरान के सबसे ताकतवर और सर्वोच्च धार्मिंक नेता अयातुल्लाह ख़्ामेनेई के बाद उन्हें ईरान का दूसरा सबसे शक्तिशाली इंसान समझा जाता था। सुलेमानी कुद्स फोर्स नाम की सैन्य टुकड़ी के प्रमुख थे जो दुनिया के कोने-कोने में ईरान के दुश्मनों को मिटाने का काम करती थी। सुलेमानी की अगुवाई में इसी फोर्स ने स्थानीय संगठनों की मदद लेकर इराक में दुनिया के सबसे खूंखार आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट का खात्मा किया था। माना जाता है कि सुलेमानी की वजह से ही सीरिया को आतंकवादी देश घोषित करने का अमेरिका का एजेंडा पूरा नहीं हो पाया था। सुलेमानी ने पिछले साल अमेरिका को खुलेआम चुनौती दे दी थी कि आर्थिक पाबंदियां दोबारा बहाल कर अमेरिका ने बेशक ईरान के खिलाफ जंग शुरू की हो। लेकिन उसे खत्म ईरान ही करेगा। अमेरिका और खासकर डोनाल्ड ट्रंप इसी वजह से सुलेमानी से खार खाए बैठे थे और उसके सफाए के मौके की तलाश में थे। सुलेमानी को खत्म कर ट्रंप अपनी सनक पूरी करने में कामयाब जरूर हो गए, लेकिन इसके जरिए उन्होंने पूरी दुनिया को खतरे में डाल दिया। वह तो भला हो अमेरिकी संसद का जिसने समझदारी दिखाते हुए ट्रंप की सनक से फिलहाल दुनिया को बचा लिया। अमेरिकी संसद में ट्रंप की ईरान को जवाब देने की मंशा पर पानी फेरते हुए एक प्रस्ताव लाया गया। जंग के खिलाफ आए प्रस्ताव के समर्थन में 224 वोट पड़े और विपक्ष में केवल 194 वोट। इतना ही नहीं, अब इस प्रस्ताव के पास हो जाने से ट्रंप की शक्तियां भी सीमित हो गई हैं। महाभियोग के समर्थन में वोटिंग के बाद अमेरिकी सदन में ट्रंप की ये दूसरी हार है।

दरअसल, ट्रंप के ‘ऑपरेशन ईरान’ का उत्प्रेरक भी उसी हार को माना जा रहा है। अमेरिका चुनाव के मुहाने पर खड़ा है और महाभियोग की तलवार जिस तरह ट्रंप की छवि को तार-तार कर रही है, उसने ट्रंप के सामने करो या मरो के हालात खड़े कर दिए हैं। वैसे भी जंग और अमेरिकी चुनावों का पुराना कनेक्शन रहा है। साल 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले को साल 2004 में बुश की चुनावी जीत का बड़ा हथियार माना गया था। साल 2011 में जब बराक ओबामा दोबारा राष्ट्रपति बनने की तैयारी कर रहे थे, तब डोनाल्ड ट्रंप ने ट्वीट कर कहा था कि चुनाव जीतने के लिए ओबामा ईरान के साथ युद्ध शुरू कर सकते हैं। संयोग देखिए कि ओबामा ने तो ऐसा कुछ नहीं किया, लेकिन ट्रंप जरूर उसी रास्ते पर आगे बढ़ गए। बगदाद पर हवाई हमला ऐसे वक्त में हुआ जब अमेरिका में चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं। लेकिन जिस तरह अमेरिका में संसद से सड़क तक इस हमले का विरोध हुआ, उससे लगता है कि ट्रंप का ये पांसा उल्टा पड़ गया है।

शायद इसीलिए ईरानी हमले के बाद ट्रंप जब दुनिया के सामने आए तो उन्होंने ईरान की जनता का भविष्य तो बेहतर बताया ही, साथ ही ये भी साफ किया कि उनका मकसद ईरान में सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि उसे परमाणु ताकत नहीं बनने देना है। अपनी गुस्ताखी पर पर्दा डालने की कोशिश में ट्रंप अब ओबामा शासनकाल में ईरान के साथ हुए परमाणु समझौता को बड़ी गलती बता रहे हैं और चाहते हैं कि रूस, चीन जैसे ईरान के मित्र देश उसे अमेरिका के साथ नया करार करने के लिए तैयार करें। लेकिन चीन ने जिस तरह इस प्रस्ताव को खारिज किया है उससे तो यही लगता है कि ट्रंप की ये हसरत भी अधूरी रह जाएगी।

शुरुआती आक्रामकता के बाद दोनों देशों के संयम दिखाने से मध्य-पूर्व में तनाव भले कम हुआ हो, लेकिन जंग का खतरा टला नहीं है। अंदेशा है कि अमेरिका अगर इस क्षेत्र में अब कोई भी हिमाकत करता है तो रूस और चीन ईरान की मदद के लिए आगे आ सकते हैं। ईरान चूंकि शिया देश है इसलिए अगर अमेरिका आगे बढ़ता है तो सुन्नी बहुल सऊदी अरब, यूएई, कुवैत, कतर और इस्रइल उसका समर्थन कर सकते हैं। इन हालात में दुनिया को तबाही से बचाने के लिए भारत की भूमिका बड़ी हो जाती है। भारत अमेरिका और ईरान दोनों का करीबी सहयोगी है, इसलिए वे उसकी सुन सकते हैं। भारत में ईरान के राजदूत और अमेरिका का रक्षा मंत्रालय भी कह चुका है कि तनाव कम करने के लिए वे भारत की कोशिशों का स्वागत करेंगे। फिलहाल जंग का खतरा टल गया है लेकिन तनाव के बीच दोनों देशों को साथ लेकर कैसे आगे बढ़ा जाए ये देखना जरूरी होगा।

ईरान के साथ भारत के पुराने सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। साल 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दौरे ने इसमें नई जान फूंकी है। इस दौरे की सामरिक सार्थकता स्थापित करते हुए इसे चाबहार पोर्ट से जोड़ा गया था और  चीन और पाकिस्तान की बढ़ती दोस्ती की काट बताया गया था। वैसे भी भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से ईरान एक अहम देश है। साल 2008 में अरब की खाड़ी में ईरान के समुद्री क्षेत्र में प्राकृतिक गैस की खोज 2008 में एक भारतीय टीम ने ही की थी। लेकिन हाल के दशकों में भारत की अमेरिका से भी करीबियां बढ़ी हैं। खासकर नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इसमें संतुलन के नए आयाम जुड़े हैं। मोदी सरकार की लगातार कोशिशों से अमेरिका ने पाकिस्तान पर लगाम कसी है, मसूद अजहर समेत यूएनएससी, एनएसजी में सदस्यता जैसे कई मोर्चों पर साथ भी मिला है। आगे देखने वाली बात केवल यही नहीं होगी कि दुनिया इस संकट से बाहर कैसे निकलती है, नजरें इस बात पर भी रहेंगी कि दुनिया को तबाही से बचाने में भारत कैसे अपनी जिम्मेदारी निभाता है।

उपेन्द्र राय


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