नौबत ही न आने दें ‘प्रेशर कुकर’ फटने की

Last Updated 11 Jan 2020 01:41:13 AM IST

लोकतंत्र की सरलतम पहचान ऐसी शासन व्यवस्था से परिभाषित होती है, जिसमें रहने वाले लोगों को अपनी बात कहने की पूर्ण आजादी और व्यवस्था के विरोध का पूरा अधिकार होता है। जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन इसकी लोकप्रिय अभिव्यक्ति है।


नौबत ही न आने दें ‘प्रेशर कुकर’ फटने की

दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद नरेन्द्र मोदी संसद के सेंट्रल हॉल पहुंचे तो उन्होंने संविधान की किताब के समक्ष शीश नवाकर प्रणाम किया और अपना संबोधन शुरू किया। इससे पहले 2014 में प्रचण्ड बहुमत हासिल करने के बाद लोक सभा में प्रवेश करने से पहले सीढ़ियों पर माथा टेका था। जब प्रधानमंत्री ने संविधान के समक्ष अपना माथा झुकाया तो देश के लोगों में ये उम्मीद और भरोसा पैदा हुआ कि एक ऐसा प्रधानमंत्री आया है, जो देश के संविधान को सर माथे रखता है। बीते लोक सभा चुनाव से ठीक पहले फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार को दिए टीवी इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया था कि, बुरी तरह आलोचना किए जाने पर क्या उन्हें गुस्सा नहीं आता या वे आहत नहीं होते? इसके जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘जिस पद पर हैं, उसकी गरिमा और गंभीरता को वे अच्छी तरह समझते हैं। वहां राग-द्वेष के लिए कोई जगह नहीं है।’

लोकतंत्र की सरलतम पहचान ऐसी शासन व्यवस्था से परिभाषित होती है, जिसमें रहने वाले लोगों को अपनी बात कहने की पूर्ण आजादी और व्यवस्था के विरोध का पूरा अधिकार होता है। जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन इसकी लोकप्रिय अभिव्यक्ति है। जाहिर है, एक स्वस्थ लोकतंत्र में जिस तरह देश पर अभिमान वांछित माना जाता है, उसी तरह देश हित में विरोध और आलोचना भी जरूरी है, लेकिन दुनिया भर में जहां भी लोकतंत्र को शासन प्रणाली के तौर पर अंगीकार किया गया है, उनमें से कई देशों में इसकी मूल पहचान संकट में है। जनता के विरोध करने के अधिकार में शासन तंत्र की ओर से अवरोध खड़े करने के दृष्टांत अब नये नहीं रहे। अफसोस है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा हासिल करने के बाद भारत में भी ये पहचान चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है।

विरोधियों की रार का सामना कर रही मौजूदा सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में ऐसे कई वाकयात सामने आए हैं, जब मुखालफत की आवाज को या तो सरकारी शोर से खारिज कर दिया गया या फिर हैरतअंगेज तौर पर चुप करवा दिया गया। विरोध करने वालों के लिए हालात असहायता का बोध कराने वाले हैं, क्योंकि इसमें बातचीत का दायरा किसी भी सार्थक चर्चा के लिए लगातार सिकुड़ता जा रहा है।

जेएनयू से उलट जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी में पुलिस का एक्शन सवालों में घिरा है। वहां भी रात के अंधेरे में छात्र-छात्राओं को खामोश करने की कोशिश की गई। खाकी वर्दी पहने पुलिस की जो तस्वीरें जामिया के हॉस्टल से निकलीं, उसे जेएनयू में नकाब पहने गुंडों से किसी भी तरह अलग करके नहीं देखा जा सकता। ये मामला केवल दिल्ली की दो यूनिवर्सिटी का नहीं कहा जा सकता। विरोध की तपिश मैसूर, अलीगढ़, बनारस जैसे देश के दूसरे हिस्सों में स्थित विश्वविद्यालयों में भी महसूस की गई और अफसोस की बात है कि वहां का प्रशासन भी छात्रों से चर्चा के बजाय उनके खिलाफ जांच के रास्ते पर ही आगे बढ़ा है। शिक्षण संस्थानों के कैंपस में मतभेद की गुंजाइश तो हो सकती है, लेकिन यहां बदले के माहौल की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

जेएनयू में छात्रों का समर्थन करने पहुंची फिल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण भी इसी सोच का निशाना बनी है। दीपिका ने भले ही इस मामले पर अब तक मुंह न खोला हो, लेकिन विरोधियों की ओर से दीपिका की नीयत से लेकर उनकी ताजा फिल्म की नियति को लेकर जमकर शोर मचाया जा रहा है। कुछ इसी तर्ज पर सालों-साल जो देश ‘हमारा बजाज’ गुनगुनाता रहा, उसके लिए सरकार पर सवाल उठा कर मशहूर उद्योगपति राहुल बजाज रातों-रात पराए हो गए थे। अनुच्छेद 370 हटने के बाद कश्मीर में इंटरनेट सेवा भी लंबे समय तक ठप रही जो हाल के दिनों में विरोध को दबाने के एक ‘प्रभावी’ तरीके के रूप में सामने आई है। इंटरनेट शटडाउन ट्रैकर इंटरनेट पर बैन का हिसाब-किताब रखने वाले एक पोर्टल है। इस पोर्टल के अनुसार इस साल सरकारी तौर पर भारत में अब तक 100 से ज्यादा बार इंटरनेट सेवाएं ठप की गई हैं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। पिछले साल ऐसा 134 बार हुआ जो पूरी दुनिया के इंटरनेट शटडाउन का 68 फीसद था। इस मामले में दूसरे नंबर पर रहे पाकिस्तान में वहां की सरकार की ओर से केवल 12 बार इंटरनेट ठप किया गया। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा देने वाली सरकार यकीनन सबका साथ लेकर सबको अपनी आवाज उठाने के अधिकार का विश्वास दिलाने की इस चुनौती से निबटने का रास्ता भी तलाश रही होगी।

लेकिन विडंबना यह है कि सरकार की कोशिशें जमीन पर उतरती नहीं दिख रही हैं। साल 2014 से डेमोक्रेसी इंडेक्स यानी लोकतंत्र रैंकिंग में भारत लगातार पिछड़ा है। ब्रिटिश कंपनी ईआईयू-इकॉनामिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट इस इंडेक्स को तैयार करती है, जिसमें निष्पक्ष चुनाव, राजनीतिक भागीदारी, बहुलतावाद और सिविल लिबर्टी जैसे पैमानों पर देशों की रैंकिंग की जाती है। साल 2016 में भारत को इंडेक्स में 32वां स्थान मिला था जो पिछले साल की रैंकिंग में 41वीं पोजीशन पर पहुंच गया। यानी केवल तीन साल में भारत इस सूचकांक में 10 स्थान फिसल गया है।

देश के मुख्य न्यायाधीश अगर मौजूदा दौर को मुश्किल हालात बताते हैं और शांति के रास्ते तलाशने की जरूरत पर जोर देते हैं तो उनके इस बयान की गंभीरता को समझना होगा। कुछ साल पहले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने भी असंतोष को लोकतंत्र का सुरक्षा वॉल्व बताते हुए सत्ता प्रतिष्ठान को आगाह किया था कि अगर इसे दबाया गया तो देश के संतुलन का प्रेशर कुकर फट भी सकता है।

उम्मीद की जाती है कि देश के न्याय व्यवस्था की सबसे ऊंची कुर्सी से निकली इस नसीहत से सरकार अनजान नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से ज्यादा इसकी अहमियत कौन जान सकता है! उनका सर्वोच्च पद पर पहुंचना लोकतंत्र की मजबूती का ही सबूत है, जो एक आम इंसान को चुनाव लड़ने की ताकत भी देता है और उस पर शासन करने का अधिकार भी। तमाम खामियों के बावजूद यही लोकतांत्रिक संरचना भारत की खासियत भी है। जरूरत बस इसे राजनीति का केंद्र बिंदु बनाए रखने की है क्योंकि एक बार लोक और तंत्र के बीच खाई के हालात पैदा हुए तो उसे पाटने के लिए लोकतांत्रिक ताकतों को बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।



प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद नरेन्द्र मोदी संसद के सेंट्रल हॉल पहुंचे तो उन्होंने संविधान की किताब के समक्ष शीश नवाकर प्रणाम किया और अपना संबोधन शुरू किया। इससे पहले 2014 में प्रचण्ड बहुमत हासिल करने के बाद लोक सभा में प्रवेश करने से पहले वहां की सीढ़ियों पर माथा टेका था। जब प्रधानमंत्री ने संविधान के समक्ष अपना माथा झुकाया तो देश के लोगों में ये उम्मीद और भरोसा पैदा हुआ कि एक ऐसा प्रधानमंत्री आया है जो देश के संविधान को सर माथे रखता है। गत आम चुनाव से ठीक पहले फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार को दिए टीवी इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया था कि, बुरी तरह आलोचना किए जाने पर क्या उन्हें गुस्सा नहीं आता या वे आहत नहीं होते? इसके जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा था,‘जिस पद पर वे हैं, उसकी गरिमा और गंभीरता को वे अच्छी तरह समझते हैं। वहां राग-द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है।’

उपेन्द्र राय


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